________________ 598 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसने जातिगत या आर्थिक आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार अन्तर में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है। धम्मपद में भी कहा गया है कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया। इसका प्रभाव हिन्दूधर्म कि जैसे कमलपत्र पानी से अलिप्त होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों पर भी पड़ा और उसमें भी गुप्तकाल के पश्चात् भक्तियुग में वर्ण- का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का विरोध हुआ। वैसे तो दु:खों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को महाभारत के रचनाकाल (लगभग चौथी शती) से ही यह प्रभाव उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त हैं, जो मेधावी हैं, स्थितप्रज्ञ हैं, जो परिलक्षित होता है। सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल हैं और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुंच चुके हैं- उन्हें ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ।२ इस प्रकार हम ईश्वर से मुक्ति और मानव की स्वतन्त्रता का उद्घोष देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो मूल्य लोगों की दृष्टि में कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी श्रमण परम्परा के अनुकूल थी। फलत: न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध धारणाएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं नियतिवादी धारणाएँ मानवीय परम्परा में, वरन् हिन्दू परम्परा के महान् ग्रन्थ महाभारत में भी ब्राह्मणत्व स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थीं। जैन-दर्शन ने इस कठिनाई को की यही परिभाषा दी गई है। जैन परम्परा के उत्तराध्ययनसूत्र, बौद्ध परम्परा समझा और मानवीय स्वतन्त्रता की पुन: प्राण-प्रतिष्ठा की। उसने यह के धम्मपद और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियाँ मानव की निर्धारक जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् हैं, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। इस प्रकार उसने मनुष्य को उसमें शाब्दिक साम्यता भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है और इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव अपहरण कर रही थी और यह प्रतिपादित किया कि मानवीय स्वतन्त्रता को स्पष्ट करता है। में निष्ठा ही धर्म-दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। जैनों की इस अवधारणा का प्रभाव हिन्दूधर्म पर उतना अधिक नहीं पड़ा, जितना यज्ञ का नया अर्थ अपेक्षित था। फिर भी ईश्वरवाद की स्वीकृति के साथ-साथ मानव की जिस प्रकार ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार श्रेष्ठता के स्वर तो मुखरित हुए ही थे। यज्ञ को भी एक नए अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्ततु किया, वरन् उन्होंने यज्ञ रूढ़िवाद से मुक्ति की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की। उत्तराध्ययन जैन धर्म ने रूढ़िवाद से भी मानव-जाति को मुक्त किया। उसने में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। बताया गया उस युग की अनेक रूढ़ियों जैसे-पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से है कि "तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की मानव-समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिये इन सबका प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही खुला विरोध भी किया। ब्राह्मण-वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक बताकर सामाजिक शोषण का जो सिलसिला प्रारम्भ किया था, उसे समाप्त है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।"३ फलत: न केवल जैनकरने के लिये जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने प्रयास किया। जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग के बाह्य आचार्यों ने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने यज्ञादि प्रत्ययों पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता को नई परिभाषाएँ प्रदान की। यहाँ जैनधर्म के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप आदि की कुछ नई परिभाषाएँ दी जा रही हैं। में किया है जिस रूप में उसका विवचेन उत्तराध्ययन सूत्र में किया गया है। अंगुत्तरनिकाय में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए ब्राह्मण का नया अर्थ बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण, ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन जैन-परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये। हे ब्राह्मण, इन तीन और निमृता का प्रतिमान माना और उसे ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या उत्तराध्ययनसूत्र के पच्चीसवें अध्याय एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक भलीभाँति सुख से करें। ये अग्नियाँ कौन सी हैं, आह्वानीयाग्नि अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है, इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। (आहनेहय्यग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपत्तग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणाय्यग्गि)। विस्तार भय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल एक दो पद्यों को माँ-बाप को आह्वानीयाग्नि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि 'जो जल करनी चाहिये। पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में उत्पन्न होते हुए भी भोगों में लिप्त समझना चाहिये और आदर्शपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। श्रमणनहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है'। जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only 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