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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ के ही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्ति-प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्ति-प्रधान आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हैं, किन्त वे वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं। वस्तुतः कोई भी संस्कृति ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न का जीवन्त प्रतीक है। उसमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों अंग हैं, जैसे हिन्दू-परम्परा। यदि औपनिषदिक धारा को वैदिक धारा से (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है। भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू-परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं की समीक्षा है किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक माना जा सकता। यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि अभी तक हिन्दू-धर्म दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध का समादरपूर्वक उल्लेख हुआ है। सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से स्वीकार करता धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? है कि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार-परम्परा से भिन्न थे, वस्तुतः हिन्दू-परम्परा कोई एक धर्म और दर्शन न होकर व्यापक परम्परा फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह का नाम है या कहें कि वह अभिन्न वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता का समूह है। उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति- है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म लिया था। सूत्रकृतांग की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचार-मार्ग का पालन के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। सूत्रकृतांग में इन तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अत: हिन्दू उसी अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि-प्राप्त कहना तथा उत्तराध्ययन जैसे यहूदी, ईसाई या मुसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्परा है, एक में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन सांस्कृतिक धारा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं।
काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दू-परम्परा से नितान्त भिन्न अधिकार केवल उसके आचार-नियमों का पालन करने वाले को ही नहीं नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी है, अपितु भिन्न आचार-मार्ग का पालन करने वाला भी मुक्ति का अधिकारी हैं जिसके औपनिषदिक ऋषि। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय हो सकता है। समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व इसी सन्दर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ किया जो जनसामान्य का.धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक (ई०पू० चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं हैं, इसी माटी की था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषदिक नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोशाल, धारा किसी एक ही मूल स्त्रोत के विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य संजय (वेलिठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी में समझने की आवश्यकता है।
को अर्हत् ऋषि या ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। ऋषिभाषित में इनके भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषकि, बौद्ध और जैन धर्मों आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन-परम्परा में इस की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा- की परम्परा और जैन-परम्परा का उद्गम स्त्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा- केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्त्रोत एक ही है। से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी स्त्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैन धर्म के ऋषिभाषित में धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने विभिन्न परम्पराओं के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की भाव, शब्द-योजना और भाषा-शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के थेरगाथा में भी विभिन्न परम्पराओं के जिन-स्थविरों के उपदेश संकलित निकट हैं। आचारांग में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत हैं। उसमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण-परम्परा के आचार्यों किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। आचारांग में के उल्लेख हैं जिनमें एक वर्धमान (महावीर) भी हैं। यह सब इस तथ्य श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, का सूचक है कि भारतीय चिन्तन-धारा प्राचीनकाल से ही उदार और अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे आचारांग, उत्तराध्ययन सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता
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