Book Title: Shraman evam Vaidik Dhara ka Vikas evam Parasparik Prabhav
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 7
________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव 597 प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों में जकड़कर समन्वय स्थापित करना था। यद्यपि गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन हमें भक्तियोग की चर्चा हुई है किन्तु वहाँ इनमें से प्रत्येक को मोक्ष-मार्ग मान एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन लिया गया है। की इन धाराओं को एक दूसरे से अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायगा जैनधर्म ने न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल हो सकेंगे। उत्तराध्ययन, की परम्परा का विरोध किया, वरन् श्रमण-परम्परा के देह-दण्डन की सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और आचारांग को समझने के लिए तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवत: महावीर के पूर्व पार्श्व औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। उसी प्रकार के काल तक धर्म का सम्बन्ध बाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था। यही उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव कारण था कि जहाँ ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में ही धर्म की में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक इतिश्री मान लेता था। सम्भवतः जैन परम्परा के महावीर के पूर्ववर्ती अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने आध्यात्मिक साधना के बाह्य पहलू के स्थान पर उसके अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त आन्तरिक पहलू पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण-परम्पराओं मानव को मुक्ति दिला सकता है और भारतीय धर्मों की पारस्परिक में भी बौद्ध आदि कुछ धर्म-परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक प्रभावशीलता को स्पष्ट कर सकता है। बल देना प्रारम्भ कर दिया था। लेकिन महावीर के युग तक धर्म एवं साधना का यह बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् जैन धर्म का हिन्दू धर्म को अवदान ब्राह्मण परम्परा में तो यज्ञ, श्रद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया औपनिषदिक काल .या महावीर-युग की सबसे प्रमुख समस्या था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने साधना के आन्तरिक पक्ष पर बल देना यह थी कि उस युग में अनेक परम्पराएँ अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही प्रारम्भ किया था, उन्होंने उसके बाह्य पक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। उस युग प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक अति की ओर जाकर में चार प्रमुख वर्ग थे- 1. क्रियावादी, 2. अक्रियावादी, 3. विनयवादी एकांगी बन गए। अत: मवीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने और 4. अज्ञानवादी। महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास का प्रयत्न किया और यह बताया कि धर्म-साधना का सम्बन्ध सम्पूर्ण किया। प्रथम, क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल जीवन से है। उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान देता था। वह कर्मकाण्डपरक था। बौद्ध परम्परा में इस धारणा को शीलव्रत है, उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार परामर्श कहा गया है। दूसरा दृष्टिकोण अक्रियावाद का था। अक्रियावाद उन्होंने धार्मिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों के तात्त्विक आधार या तो विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण थे या आत्मा पर ही बल दिया। उन्होंने ज्ञान और क्रिया के बीच समन्वय स्थापित किया। को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की तात्त्विक अवधारणा के पोषक थे। ये नरसिंहपुराण (61/9/11) में भी आवश्यक नियुक्ति (पृष्ठ, 95-97) परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादक थीं। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म के समान ही ज्ञान और क्रिया के समन्वय को अनेक रूपकों से वर्णित या आचरण ही साधना का सर्वस्व था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन-परम्परा के इस चिन्तन में ही साधना का सर्वस्व था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और हिन्दू-परम्परा को प्रभावित किया है। अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मानव मात्र की समानता का उद्घोष मान्यताओं को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका दर्शन रहस्यवाद और उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण-व्यवस्था एक सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण समस्या थी। वर्ण. का आधार कर्म और स्वभाव को छोड़ चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे भक्तिमार्ग का प्रारम्भिक रूप माना जन्म मान लिया गया था। परिणामस्वरूप वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी जाता है। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार उस युग थी और ऊँच-नीच का भेद हो गया था जिसके कारण सामाजिक में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयवाद (सन्देहवाद) की स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था। जैन विचारधारा ने जन्मना परम्पराएँ अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने जातिवाद का विरोध किया और समस्त मानवों की समानता का उद्घोष अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा इनमें समन्वय खोजने का प्रयास किया। एक ओर उसने हरिकेशी बल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को, तो किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक् चारित्र दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधकों को अपने साधनाके रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें मार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। केवल जातिगत विभेद ही नहीं ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी परम्पराओं का समुचित समन्वय था। वरन् आर्थिक विभेद भी समानता की दृष्टि से जैन विचारधारा के सामने इस प्रकार महावीर एवं जैन-दर्शन का प्रथम प्रयास ज्ञानमार्गीय, कोई मूल्य नहीं रखता। जहाँ एक ओर मगध-सम्राट तो दूसरी ओर कर्ममार्गीय, विभिन्न भक्तिमार्गी, तापस आदि एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य पुणिया जैसे निर्धन श्रावक भी उसकी दृष्टि में समान थे। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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