Book Title: Shraman Sanskruti me Nari Ek Mulyankan Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 4
________________ आदर्श चरित्र दृष्टान्त रूप में प्रयुक्त होता है। वे वास्तव में माता कौशल्या को ही देन थे। राम जैसे सुपुत्र की जननी होकर ही वह धन्य हो गयी। यह कथन अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि माता कौशल्या की मनः सृष्टि की साकार दिव्य छवि ही मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र के रूप में आविर्भूत हुई थी। श्रद्धेया श्री कौशल्या वास्तव में आदर्श जननी थी और उन के उज्ज्वल चरित्र का प्रदीप प्रकाशमान है। उन्होंने भागवती दीक्षा अंगीकृत की एवं आत्म कल्याणार्थ साधनारत हो गयी थी। महासती सीता-साध्वी शिरोमणि सीता जी की जीवन-गाथा स्वतः ही इतनी अधिक पावन है कि पवन प्रवाह के समान कितनी ही शताब्दियां लहराती निकल गयी हैं, किन्तु उन का जीवन आलोक-स्तम्भ के रूप में जगमगाता रहा है। राजकुमार श्रीरामचन्द्र और राजकुमारी सीता का पाणिग्रहण हुआ। राम सीता का दाम्पत्य जीवन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने अपने पति देव से निवेदन किया मेरा अन्तर्मन आप के प्रति निर्मल है, शुद्धतम् है। किन्तु सांसारिक वासनाओं से मेरा मन ऊब गया है। आर्यवर! मुझे दीक्षा ग्रहण करने के लिये आज्ञा प्रदान कीजिये। अन्ततः श्रीराम को अनुमति देने हेतु विवश होना पड़ा। सीताजी ने दीक्षा ग्रहण की और साधनारत हो गई।११ सतीत्व धर्म की धारिका साध्वी रत्न सीता जी का जीवन-वृत्त जगत्वन्द्य के रूप में सर्वदा अमर रहेगा। महासती कुन्ती-सुदूर प्राचीन काल में अंधक वृष्णि नामक नरेश शौरिपुर नगर में शासन करते थे। इन की गुण शीलवती कन्या थी -कुन्ती! माता का नाम रानी सुभद्रा था। इनकी माद्री नामक एक बहन थी। कुन्ती और माद्री दोनों का परिणय हस्तिनापुर नरेश पाण्डु के साथ सम्पन्न हो गया। कुन्ती राजपरिवार में जन्मी, पोषित हुई, राजघराने में ही विवाह सम्पन्न हुआ। पर कुन्ती का मन विरक्त हो उठा। अन्ततः समस्त वैभव, सुख अधिकारों का सर्वथा त्याग कर साध्वी हो गयीं। और आत्म कल्याण के भव्य मार्ग पर अग्रसर हुई। अध्यात्म साधना और अत्युग्रतप के फलस्वरूप उन्हें शाश्वत आनन्द उपलब्ध हुआ। साध्वीरत्न कुन्ती जी का जीवन नारी जगत के लिये संप्रेरक बना रहेगा। महासती द्रौपदी- साध्वी रत्न द्रौपदी का परम निर्मल चरित्र, सत्य और शील का साकार रूप है। उस ने शील एवं सत्य के संरक्षण हेतु जिस तेजोमय-स्वरूप का परिचय दिया था, वह अपने आप में अद्भत है। जब दर्योधन ने भरी सभा में अपनी जांघ निर्वस्त्र करते हए प्रौपदी को उस पर आसीन हो जाने का आदेश दिया। महासती इस क्रूरतम अपमान से अतिशय रूप से तिलमिला उठी। उस सिंहनी ने दुःशासन एवं दुर्योधन को उन की दुष्टता के लिये करारी लताड़ लगायी। उसने कठोर शब्दों में इन की और इनके दुष्कृत्यों की घोर निन्दा की। सती जी का अति तेज प्रत्यक्ष रूप में प्रगट हुआ। और महासतियों के स्वर्णिम इतिहास में वह क्षण सदा-सदा के लिये अमर हो गया। श्री द्रौपदी जी ने युधिष्टिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव इन पाँचों पाण्डव पतियों सहित सानन्द जीवन यापन आरम्भ किया। यहीं उस ने पाण्डुसेन नामक तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसने आजीवन विघ्न-बाधाएँ सहन की। किन्तु सतीत्व का अनमोलरत्न हस्तगत रखा, उसे सुरक्षित रखा। द्रौपदी ख - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व -८ सर्ग - ३! १० - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित पर्व - ७! ११ - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित पर्व - ७! (२३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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