Book Title: Shraman Sanskruti me Nari Ek Mulyankan
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति में नारी : एक मूल्यांकन • उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म. के शिष्य श्री रमेश मुनि शास्त्री मानव सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ प्राणी है, और वह देवत्व एवं दानवत्व का समन्वय होता है। कभी उस का एक लक्षण जाग्रत रहता है और अन्य लक्षण प्रसुप्त रहता है। यह क्रम भी विलोम हो जाता है। इसी महत्वपूर्ण आधार शिला पर मानव मात्र का यथार्थ रूपेण मूल्यांकन होता है कि वह भला है अथवा बुरा है? देवत्व की कमनीय-कल्पना उच्चस्तरीय मानवीय विलक्षण-विशेषताओं के समन्वित रूप में की जा सकती है, गणनातीत सद्गणों के समुच्चय के रूप में की जा सकती है। इसके विपरीत मानव की कुप्रवृत्तियाँ ही दानवत्व का परिचायक है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति-व्यक्ति के इसी प्रकार के व्यक्तित्व को संवारती है। वह मानव की यथार्थ-अर्थ में मनुष्यता से सम्पन्न करती है। मनुष्य का जो संस्कार करना है, वह संस्कृति के माध्यम से पूर्ण होता है। उक्त संस्कृति मानव के जीवन को ज्योतिर्मय रूप देने का कार्य भी सम्पन्न करती है। श्रमण-संस्कृति के विपुल विशाल वाङ्मय में नारी की महिमा और गरिमा की जो गौरवपूर्ण गाथा गाई गई है, वह वस्तुतः अपूर्व है। प्राचीन काल में नारी श्रमण संस्कृति की सजग प्रहरी थी, वह एक ज्योति-स्तम्भ के रूप में रही थी। इतना ही नहीं वह अध्यात्म चेतना और बौद्धिक उन्मेष की परम-पुनीत प्रतिमा थी। अध्यात्म शक्ति का चरम उत्कर्ष ‘मुक्ति' स्त्री वाचक शब्द ही हैं। पौरुष एवं शक्ति एक ही शक्ति के दो रूप हैं, पक्ष हैं, पहलू हैं, वह शान्ति की शीतल सरिता प्रवाहित करने वाली है और आध्यात्मिक क्रान्ति की ज्योति को जगमगाने वाली भी है। वास्तविकता यह है कि वह शान्ति और क्रान्ति की पृष्ठभूमि निर्मित करती है। जैन साहित्य का सर्वेक्षण करने पर स्पष्टतः प्रतीत होता है कि अतीत काल में श्रमणियों का संगठन सुव्यवस्थित एवं अद्धितीय था। जिस युग में जो तीर्थंकर होते थे, वे केवल ज्ञान के पश्चात् चतुर्विध संघ श्रमण-श्रमणी-श्रमणोपासक और श्रमणोपासिका की संस्थापना करते हैं। जिसे आगमिक भाषा में तीर्थ कहा जाता है। जिन धर्म का मूलभूत महास्तम्भ तीर्थ है। तीर्थंकर का तोरल तीर्थ पर आधारित है। तीर्थंकर जब समवसरण में धर्म देशना देते हैं, उस समय वे तीर्थं को नमस्कार करते हैं। उक्त कथन से अति स्पष्ट है कि तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ वन्दनीय है। चतुर्विध तीर्थ में आत्मा की दृष्टि से नारी और पुरुष इन दोनों में तात्विक विभेद नहीं है, आध्यात्मिक जगत् में नर और नारी का समान रूप से मूल्यांकन हुआ है। जो व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष, रागद्वेष का आत्यन्तिक क्षय कर देता है, वही परम लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। अनन्त अक्षय आनन्द का साक्षात्कार कर सकता है। १- भगवती सूत्र २०/८! २ - आवश्यक नियुक्ति गाथा -५६७! (२०) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “नारी के बहुविद्य पर्यायार्थक नाम उस के कार्यों और स्थितियों के अनुसार व्यवहृत हैं। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से “नारी" शब्द का सन्धि विच्छेद इस प्रकार हैं - न + अरि इतिनारी जिस का कोई शत्रु नहीं है, वह नारी है। उस ने आध्यात्मिक और साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति कर पुरुषों को गौरवान्वित किया है। अतएव वह “योषा" कहलाई। २ वह गृह नीति की संचालिका है। अतएवं वह “गृहिणी" है। पूजनीया होने के कारण वह “महिला” शब्द से अभिहित है। नारी जीवन के उच्चतम आदर्श का शुभारम्भ और समापन “मातृत्व” में हुआ है। “माता” नाम से अधिक पावन आध्यात्मिक नाम नारी का दूसरा नहीं है। वह मानवता की रक्षा, आत्मा की संरक्षा माता के रूप में ही कर सकती है। माता निर्मात्री है। वह देव और गुरु के समान वन्दनीय है। मानव में जो कमनीय और कोमल भावनाएँ हैं, वे माता की देन हैं। माता के द्वारा मस्तिष्क, मांस और रक्त इन तीन महत्वपूर्ण अंगों की प्राप्ति होती है। माता अगाध-अपार वात्सल्य की साक्षात् अमर प्रतिमूर्ति है। उस की असीम ममता सचमुच में निराली है। पुत्र माता का कलेजा है। तीर्थ कर रूप बनने वाली उस भव्यात्मा को पुरुष रूप में जन्म देने वाली “माता" है, नारी है। नारी तीर्थंकर को जन्म देती है। उस माता के विशिष्ट महत्व का यथातथ्य मूल्यांकन कौन कर सकता है? जिस माता के पावन उदर में तीर्थंकर ने अवतरण किया। उस की पावनता वचनातीत है। माता की स्तुति इस रूप में की गई है -संसार में सैकड़ों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती हैं। किन्तु हे भगवन्! आप जैसे अद्वितीय, अनुपम पुत्ररत्न को जन्म देने वाली विलक्षण स्त्री ही होती है। नक्षत्रों को सर्व दिशाएँ धारण करती हैं, परन्तु अन्धकार-विनाशक सूर्य को पूर्व दिशा पैदा करती हैं। नारी की कुक्षि से तीन लोक के स्वामीतीर्थकर का जन्म होता है। तीर्थकर के पावन-प्रवचन से चतर्विध धर्म-तीर्थ की स्थापना होती है। जिससे भव्य प्राणी सन्मार्ग पर बढ़कर आत्म कल्याण करते हैं। ऐसे तीर्थंकर की जननी किसी एक के द्वारा पूजनीय है, अर्चनीय है। तीर्थंकर जैसे पुत्ररत्न को जन्म देती है। अतएव उस के अनेक नामों में “जनिः” नाम सर्वथा सार्थक है। कोमल और मधुर भावनाओं से समाविष्ट जानित्व अर्थात् मातृत्व का यह गौरवमय रूप सार्वदेशिक एवं सार्वयुगीन है, शाश्वत है। जननी अपने रोम-रोम से अपनी सलौनी सन्तान का आत्म-कल्याण साधन करती है। वह जगज्जननी के विशिष्ट रूप में सृष्टि करती है। सरस्वती के रूप में विद्या प्रदान करती है, असुरनाशिनी के रूप में सुरक्षा करती है, लक्ष्मी के रूप में अपार-वैभव सौंपती है, और शान्ति के रूप में बल का अभिसंचार करती है। माता को और उस के बहुविद्य अनन्त उपकारों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। नारी पर्याय का परमोत्कर्ष आर्यिका के महनीय रूप को धारण करने में है। आर्या का काव्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है -सज्जनों, के द्वारा जो अर्चनीय पूजनीय होती है, जो निर्मल चारित्र को धारण करती है, वह आर्या कहलाती है। आर्या का अपर नाम “साध्वी" है। जो अध्यात्म साधना का यथाशक्ति परिपालन करती है, उसे “साध्वी" कहा जाता है। शम, शील, श्रुत और संयम ही साध्वी का ३ - वाचस्पत्य शब्द कल्पद्रुम -३/५१/१/ ४ - उपासक दशांग अध्ययन ३/ सूत्र -१३७! ५ क - भगवती सूत्र शतक -१ उद्धेशक -७! ख - स्थानांग सूत्र स्थान -३ उद्धेशक -४ सूत्र २० ए! ६ - भक्ताभर स्तोत्र, श्लोक - २२! (२१) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथार्थ स्वरूप है। साध्वियों ने उत्कृष्ट रूप से संयम साधना के अमृत से भव्य चातकों के असंयम ताप को दूर किया, संसार रूपी सागर के भंवरों में गोते खाने वाले भव्य जीवों को व्रतों का हस्तावलम्बन देकर बाहर निकाला। भव्यआत्माओं के अज्ञानान्धकार से परिव्याप्त चक्षुओं को ज्ञान-शलाका से खोला। वास्तविकता यह है कि सत्य शील की अमर साधिकाओं की उज्ज्वल-परम्परा का प्रवहमान प्रवाह वस्तुतः विलक्षण प्रवाह है। उनकी आध्यात्मिक जगत् में गरिमामयी भूमिका रही है। वह उद्दण्डता को प्रबाधित करती है। कठोरता को सात्विक अनुराग के द्रव में घोल कर समाप्त कर देती है। पाशविकता पर वल्गा लगाती है। यथार्थ में उज्ज्वल तारिका साध्वीरत्नों ने जहाँ निजी जीवन में अध्यात्म का आलोक फैला कर पारलौकिक जीवन के सुधार की महती और व्यापक भूमिका का कुशलता एवं समर्थता के साथ निर्वाह किया है। वहाँ धर्म प्रचार के गौरवपूर्ण अभियान में भी एक अद्भुत उदाहरण उपस्थित करने में सक्षम रही है। अतएव वे नारी के गौरवमय अतीत को अभिव्यक्त करती है। जिन साध्वीरत्नों ने सत्य और शील की विशिष्ट साधना की वे सचमुच में अजर-अमर हो गई। उन का जीवन ज्योतिर्मय एवं परमकृतार्थ हुआ और उन के समुज्ज्वल जीवन की सप्राण प्रेरणाओं से समूची मानवता कृतार्थ होती रही है। जैन साहित्य का गहराई से परिशीलन करने पर विदित होगा कि अनेक साध्वियों का ज्योतिर्मय जीवन सविस्तृत रूपेण प्राप्त होता है। मैं यहाँ पर केवल उनके नामों का निर्देश कर रहा हूँ, जिससे साध्वियों की एक प्रलम्ब स्वर्णिम श्रृंखला का परिबोध हो सकेगा। भगवती ब्राहनी- साध्वीरत्न ब्राह्मी प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषम देव की ज्येष्ट पुत्री और चक्रवर्ती भरत की बहन थी। इन का जीवन विलक्षण विशेषताओं का अक्षय कोष था। इन्होंने मोक्ष पद को प्राप्त कर अपना जीवन सार्थक किया, सफल किया। वैराग्य मूर्ति सुन्दरी-श्रमणी श्रेष्ठा सुन्दरी भी भगवान् ऋषमदेव की ही कन्यारत्न थीं, जिन के पावन नाम का श्रवण मात्र से भव्य जीवों का कल्याण हो जाता है। ब्राह्मी और सुन्दरी सौतेली बहनें थीं। और ये दोनों अविवाहित थीं। साध्वीरत्न सुन्दरी भगवती ब्राह्मी के साथ विचरण शील रहीं। जन-मानस को प्रभावित करने में स्वयं के त्याग-वैराग्य और साधनामय जीवन का दृष्टान्त एक अतीव समर्थ साधन रहा। अन्ततः महासती सुन्दरी ने समग्र कर्मों का समूलतः नाश कर निर्वाण पद की प्राप्ति की। महासती दमयन्ती-साध्वीरत्न दमयन्ती वस्तुतः धैर्यमूर्ति थी। विशिष्ट साध्वियों की अग्रपंक्ति में साध्वी श्री दमयन्ती का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। वे सप्राण-प्रेरणा स्रोत हैं। इन्होंने सुदीर्घकालीन पति वियोग जन्य पीड़ा को जिस धैर्य के साथ सहन किया, वह नारी संस्कृति का एक श्रेष्ठ तम आदर्श है। राजा नल और रानी दमयन्ती ने दृढ़ता के साथ आत्म कल्याण के मार्ग पर कदम बढ़ाया। वास्तव में साध्वी शिरोमणि दमयन्ती का जीवन एक ज्योतिर्मय जीवन था। महासती कौशल्या-श्रमणी'. काशल्या एक आदर्श जननी थी। माता कौशल्या का आदर्श जननी के रूप में उज्ज्वल.. अमर रहेगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के शील और औदार्य का वर्णन करना लेखनी से परे है। आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श स्वामी आदि गुणों की व्याख्या के लिये श्री रामचन्द्र का ७ - सुभाषित रत्न सन्दोह ६-११ आचार्य अमित गति! ८ - क - हरिवंश पुराण सर्ग -ए पृष्ठ १८३! ख - आदि पुराण भाग १ पर्व २४! ९ - क - भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति गाथा है! (२२) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श चरित्र दृष्टान्त रूप में प्रयुक्त होता है। वे वास्तव में माता कौशल्या को ही देन थे। राम जैसे सुपुत्र की जननी होकर ही वह धन्य हो गयी। यह कथन अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि माता कौशल्या की मनः सृष्टि की साकार दिव्य छवि ही मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र के रूप में आविर्भूत हुई थी। श्रद्धेया श्री कौशल्या वास्तव में आदर्श जननी थी और उन के उज्ज्वल चरित्र का प्रदीप प्रकाशमान है। उन्होंने भागवती दीक्षा अंगीकृत की एवं आत्म कल्याणार्थ साधनारत हो गयी थी। महासती सीता-साध्वी शिरोमणि सीता जी की जीवन-गाथा स्वतः ही इतनी अधिक पावन है कि पवन प्रवाह के समान कितनी ही शताब्दियां लहराती निकल गयी हैं, किन्तु उन का जीवन आलोक-स्तम्भ के रूप में जगमगाता रहा है। राजकुमार श्रीरामचन्द्र और राजकुमारी सीता का पाणिग्रहण हुआ। राम सीता का दाम्पत्य जीवन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने अपने पति देव से निवेदन किया मेरा अन्तर्मन आप के प्रति निर्मल है, शुद्धतम् है। किन्तु सांसारिक वासनाओं से मेरा मन ऊब गया है। आर्यवर! मुझे दीक्षा ग्रहण करने के लिये आज्ञा प्रदान कीजिये। अन्ततः श्रीराम को अनुमति देने हेतु विवश होना पड़ा। सीताजी ने दीक्षा ग्रहण की और साधनारत हो गई।११ सतीत्व धर्म की धारिका साध्वी रत्न सीता जी का जीवन-वृत्त जगत्वन्द्य के रूप में सर्वदा अमर रहेगा। महासती कुन्ती-सुदूर प्राचीन काल में अंधक वृष्णि नामक नरेश शौरिपुर नगर में शासन करते थे। इन की गुण शीलवती कन्या थी -कुन्ती! माता का नाम रानी सुभद्रा था। इनकी माद्री नामक एक बहन थी। कुन्ती और माद्री दोनों का परिणय हस्तिनापुर नरेश पाण्डु के साथ सम्पन्न हो गया। कुन्ती राजपरिवार में जन्मी, पोषित हुई, राजघराने में ही विवाह सम्पन्न हुआ। पर कुन्ती का मन विरक्त हो उठा। अन्ततः समस्त वैभव, सुख अधिकारों का सर्वथा त्याग कर साध्वी हो गयीं। और आत्म कल्याण के भव्य मार्ग पर अग्रसर हुई। अध्यात्म साधना और अत्युग्रतप के फलस्वरूप उन्हें शाश्वत आनन्द उपलब्ध हुआ। साध्वीरत्न कुन्ती जी का जीवन नारी जगत के लिये संप्रेरक बना रहेगा। महासती द्रौपदी- साध्वी रत्न द्रौपदी का परम निर्मल चरित्र, सत्य और शील का साकार रूप है। उस ने शील एवं सत्य के संरक्षण हेतु जिस तेजोमय-स्वरूप का परिचय दिया था, वह अपने आप में अद्भत है। जब दर्योधन ने भरी सभा में अपनी जांघ निर्वस्त्र करते हए प्रौपदी को उस पर आसीन हो जाने का आदेश दिया। महासती इस क्रूरतम अपमान से अतिशय रूप से तिलमिला उठी। उस सिंहनी ने दुःशासन एवं दुर्योधन को उन की दुष्टता के लिये करारी लताड़ लगायी। उसने कठोर शब्दों में इन की और इनके दुष्कृत्यों की घोर निन्दा की। सती जी का अति तेज प्रत्यक्ष रूप में प्रगट हुआ। और महासतियों के स्वर्णिम इतिहास में वह क्षण सदा-सदा के लिये अमर हो गया। श्री द्रौपदी जी ने युधिष्टिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव इन पाँचों पाण्डव पतियों सहित सानन्द जीवन यापन आरम्भ किया। यहीं उस ने पाण्डुसेन नामक तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसने आजीवन विघ्न-बाधाएँ सहन की। किन्तु सतीत्व का अनमोलरत्न हस्तगत रखा, उसे सुरक्षित रखा। द्रौपदी ख - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व -८ सर्ग - ३! १० - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित पर्व - ७! ११ - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित पर्व - ७! (२३) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी ने सांसारिक सुखों का त्याग कर संयम पथ स्वीकार किया और अध्यात्म साधना में लीन हो गई। अन्ततः उस को पाँचवें स्वर्ग की प्राप्ति हुई। द्रोपदी की विरक्ति से पाण्डव भी प्रेरित हुए और वे आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गये। पाण्डव बन्धुओं ने मोक्ष पद को प्राप्त किया। महासती द्रौपदी का जीवन एक प्रकाशमान जीवन था। महासती राजीमति-श्रमणीरत्न राजमति का समुज्ज्वल जीवन भी उत्कृष्ट संयम का अनुपम गान है। वह अलौकिक दृढ़व्रता थी। जिस ने केवल वाग्दत्ता होते हुए भी, तोरण से अपने वर के लौट जाने पर आजीवन अविवाहिता रहने का प्रण कर दृढ़ता के साथ महाव्रतों का पालन किया।२ ऐसी गौरवशालिनी नारी के आधार पर ही नारी आदर्श का भव्यतम आदर्श अवस्थित है। उस का जीवन वासना-विहीन और आत्मोत्सर्ग का एक अद्भुत चित्र है। ___ महासती पुष्पचूला-श्रमणी-मणि 'पुष्पचूला का महासतियों की उज्ज्वल-परम्परा में विशिष्ट स्थान है। निर्मल स्नेह, ब्रह्मचर्यनिष्ठा, अविचल साधना आदि विविध रंगों से साध्वी पुष्पचूला का जीवन चित्र संवरा हुआ है। इन के चरित्र की गौरव-गाथा के स्मरण मात्र से कलुषित मानस में निर्मलता का संचार हो जाता है। महासती पुष्पचूला संसार में रहकर भी विरक्त रही। विवाहिता रह कर भी ब्रह्मचर्य साधना में लीन रही। बाहर से राजरानी थी, पर वह भीतर में सदा साध्वी बनी रही, इस दृष्टि से इस का जीवन अनुकरणीय है, अभिनन्दनीय है। महासती प्रभावती-साध्वी रत्न श्री प्रभावती जी का साध्वी परम्परा में मौलिक स्थान है, परम विशिष्ट स्थान है। इस श्रमणी रत्न ने अपने आदर्श जीवन दृष्टान्त के द्वारा नारी जगत् के लिये पत्नी का गौरव स्वरूप प्रतिष्ठित किया। उस के उज्ज्वल जीवन पर से यह स्पष्ट होता है कि पत्नी के लिये पति का आमन्त्रण स्वीकार करना तो अनिवार्य है, किन्तु साथ ही पति देव को सन्मार्ग पर लाने का उत्तर- दायित्व भी उसे वहन करना चाहिये। पत्नी पति की धर्म सहायिका होती है। वह पति के जीवन को धर्ममय बनाये । के लिये सतत रूप से सहायता करती है और उस का यही स्वरूप प्रमख है। महासती प्रभावती महाराज चेटक की यशस्विनी कन्या थी और भगवान् महावीर की अनन्य उपासिका थी। उस का जीवन विलास-रहित, संयमित और निष्कलुष था। वह आदर्श ज्योति कभी भी घूमिल नहीं हो सकती, प्रभाव विहीन नहीं हो सकती, उसका जो महत्व है, वह शाश्वत है। महासती मृगावती-साध्वीरत्न मृगावती यशस्विनी प्रतिमामूर्ति महासती प्रभावती की बहिन थी। ज्योतिर्मय प्रभु महावीर की माता त्रिशला भी साध्वी मृगावती की मौसी थी। साध्वीरत्न का शील ही उस के लिये सर्वस्व हैं। हजार हजार बाधाएँ उस के मार्ग में आती हैं, किन्तु वह निस्तेज होकर इन विलोम तत्वों के प्रति समर्पिता नहीं होती है, अपितु वह शक्तिभर इन से संघर्ष करती है। अन्ततः सतीत्व शक्ति की ही विजय होती है और बाधाएं ध्वस्त हो जाती है। मृगावती जी प्रभु महावीर के श्री चरणों में दीक्षित होकर आर्या चन्दन बाला के संरक्षण में धर्म साधना करने लगी। एक समय का पावन प्रसंग है कि प्रभु महावीर विचरण करते हुए कौशम्बी पधारे। चन्दन बाला उनके दर्शनार्थ पहुँची। उनके साथ मृगावती भी थी। उस समय सूर्य प्रभु की सेवा में उपस्थित था। सूर्य के प्रकाश में मृगावती को दिन के समाप्त हो जाने का १३ - दशवैकालिक नियुक्ति अध्ययन २ गाथा -८ ! १४ - आवश्यक नियुक्ति गाथा १२८४! (२४) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभास नहीं हुआ और वह काफी समय तक प्रभु की सेवा में बैठी रही। जब वह विलम्ब से लौटी तो उसे साध्वी मर्यादा के उल्लंघन हो जाने का खेद था। आर्या चन्दना ने भी उसे उपालम्भ देते हुए कहासाध्वियों सूर्यास्त के बाद बाहर नहीं रहना चाहिये । मृगावती ने क्षमायाचना के साथ सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। किन्तु फिर भी उसे अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ और परिणामतः उसे केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। अब वह सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो गई थी। इसी केवल ज्ञान की रात्रि में जब मृगावती जगी हुई थी । और समीप ही साध्वी चन्दना सोई हुई थी। उस ने एक सर्प को आर्या के समीप से निकलते हुए देख लिया । साहस के साथ आर्या के हाथ को पकड़ कर उसने भूमि से ऊपर उठा लिया और सर्प वहाँ से निकल गया। आर्या सहसा जाग उठी। उसने मृगावती जी को कर स्पर्श का कारण पूछा और सर्वदर्शी मृगावती जी ने सर्प वाली घटना बता दी। साध्वी प्रमुखा चन्दन बाला को अत्यन्त ही आश्चर्य हुआ कि इस को सघन अन्धकार में इसको काला नाग कैसे दृष्टिगोचर हो गया? उन्होंने मृगावती से इसी आशय का प्रश्न किया । मृगावती ने उत्तर में कहाअब मैं सर्वत्र कुछ देख पा रही हूँ और ज्ञानालोक में विहार कर पा रही हूँ। आर्या चन्दन बाला को यह समझने में विलम्ब नहीं हुआ कि मृगावती को केवल ज्ञान की उपलब्धि हो गई । आर्या चन्दना ने केवली मृगावती की वन्दना की और स्वयं भी ध्यान साधना में लीन हो गई। उन्होंने क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर चार घनघाती कर्मों का क्षय कर लिया। इसी रात्रि में चन्दनबाला को केवल ज्ञान हो गया। महासती मृगावती भी यथासमय अघाती कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई। महासती पद्मावती- साध्वी रत्न पद्मावती भी वैशाली गणराज्य के अधिपति महाराज चेटक की यशस्विनी पुत्रियों में से एक थी । अन्य बहनों की तरह यह भी धर्मानुरागिणी और प्रतिभाशालिनी थी । चम्पानगरी के धर्मनिष्ठ नरेश दधिवाहन के साथ पद्मावती का विवाह हुआ। पद्मावती सांसारिक सुखों से सर्वथा विरक्त हुई और उस ने प्रव्रज्या ग्रहण की। संयम साधना में लीन हो गई। और उस ने पिता तथा करकण्डू पुत्र के मध्य युद्ध के घोर दुष्कर्मों को पूर्णतः रोक दिया । हिंसा को उन्मूलित कर अहिंसा की स्थापना की। और वह अपने जीवन को सफल कर देती है। महासती शिवा- शिवादेवी वैशाली नरेश चेटक की चतुर्थ राजकुमारी थी । पतिव्रत में अविचल रही, सत्य प्रिया एवं विवेक शीला थी । सतीत्व की तेजस्विता उस की अन्यतम विशेषता थी। रानी शिवा देवी अपने पतिदेव अवन्ति के अधिपति चण्डप्रद्योतन के प्रति निर्मल भावना रखती थी। अधिकार की गरिमा से पूर्ण वातावरण में रहती हुई भी इन से कोसों दूर थी। भगवान् महावीर चरणों में महारानी शिवादेवी ने दीक्षा ग्रहण की। साध्वी शिवा ने आर्यारत्न चन्दनबाला के सान्निध्य में उत्कृष्ट साधनाएं की, कर्मों का सर्वथा क्षय कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई। महासती सुलसा-महासती सुलसा का समूचा जीवन धर्ममय था । उस का जीवन इस तथ्य का परिपुष्ट उदाहरण है कि पत्नी अपने मृदुल- मधुर उद्बोधन द्वारा पतिदेव को भी श्रद्धावान् बनाने में सफल हो सकती है। सुलसा का जन्म राज्यवंश में नहीं हुआ । नाग नामक राजगृही के एक सामान्य सारथी की पत्नी सुलसा एक सामान्य गृहस्थ थी । किन्तु यह सत्य है कि वह धर्म परायण थी। सम्यग्दर्शन में अविचल रहने वाली सुलसा ने श्रद्धा और साधना के बल पर ही तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया उस का जीव ही आगामी चौबीसी में पन्द्रहवें तीर्थं कर के रूप में अवतरित होगा। (२५) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासती सुभद्रा -साध्वीरत्न सुभद्रा का समूचा जीवन धार्मिक दृढ़ता का जीवन्त प्रतीक था। विजय सत्य की होती है। सुभद्रा का जीवन इसी विजय का उद्घोषक है। सुभद्रा जिनदास की यशस्विनी पुत्री थी। जिनदास वसन्तपुर का प्रतिष्ठित श्रेष्ठी था। चम्पानगरी में एक घनाढ्य युवक निवास करता था। जिस का नाम बुद्धदास था। सुभद्रा का पाणिग्रहण बुद्धदास के साथ हुआ। सुभद्रा ने बुद्धदास के समूचे परिवार को “नमो अरिहन्ताणं" का मंगलमय महामन्त्र दिया। उक्त महामन्त्र की शीतल लहरों से समूचा परिवार प्रक्षालित हो गया। - महासती चन्दनवाला-साध्वीरल श्री चन्दनबाला प्रभु महावीर की प्रथम शिष्या थी। श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी एवं धर्मशासिका थी। जिस के नेतत्व में छत्तीस हजार साध्वियों ने अपने आप को मोक्ष-मार्ग पर गतिशील रखा। महाराजा चेटक की राजकुमारी धारिणी चम्पानरेश दधिवाहन की धर्मनिष्ठा रानी थी। रानी धारिणी त्रिशला की बहन अर्थात् भगवान् महावीर की मौसी थी। चम्पानगरी का यह राज दम्पती उज्ज्वल कीर्ति के कारण विश्रुत है। ये राजरानी एक अतीव सलौनी राजकुमारी के माता-पिता थे। जिस का नाम था -वसुमती। यही वसुमती चन्दना या चन्दनबाला नाम से विश्रुत हुई। ___ साध्वीरत्न चन्दनबाला का समूचा जीवन अद्भुत गरिमाओं का मूल्यवान् कोष था। वह विशिष्ट साध्वी प्रतिकूल-परिवेश में भी गम्भीर और सहिष्णु बनी रही। धर्मपथ से विचलित न हुई। मूला और शतानीक जैसे क्रूर कर्मियों का भी उस ने माधुर्यपूर्ण व्यहार से हृदय-परिवर्तन किया। कौशम्बी एवं चम्पा के मध्य भीषण शत्रुता को भी उसने सदा के लिये समाप्त कर दिया। उसने ऐसी विलक्षण विशेषताओं के आधार पर साध्वियों की उज्ज्वल परम्परा में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया। सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि श्रमण संस्कृति में नारी का जो मूल्यांकन हुआ है, वह यथार्थपूर्ण है। नारी के व्यापक व्यक्तित्व को सर्वांगीण रूप से चित्रित करने का उपक्रम अनन्त असीम आकाश को अपने लघीयान् बाहुपाश में परिबद्ध कर लेने के समान हास्यास्पद प्रयास है। और मेरा यह लेखन कार्य यथार्थ अर्थ में अगाध-अपार महासागर की अपरिमित जलराशि को एक गागर में भर लेने के समान है, तथापि इस दिशा में अत्यल्प सा प्रयत्न किया। यथार्थ से आदर्श की ओर ऐसे में यदि यह लघु काय निबन्ध-बिन्दु पाथेय स्वरूप सिद्ध हुआ तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूगा। (26)