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आभास नहीं हुआ और वह काफी समय तक प्रभु की सेवा में बैठी रही। जब वह विलम्ब से लौटी तो उसे साध्वी मर्यादा के उल्लंघन हो जाने का खेद था। आर्या चन्दना ने भी उसे उपालम्भ देते हुए कहासाध्वियों सूर्यास्त के बाद बाहर नहीं रहना चाहिये । मृगावती ने क्षमायाचना के साथ सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। किन्तु फिर भी उसे अपनी भूल पर पश्चात्ताप हुआ और परिणामतः उसे केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। अब वह सर्वज्ञ - सर्वदर्शी हो गई थी। इसी केवल ज्ञान की रात्रि में जब मृगावती जगी हुई थी । और समीप ही साध्वी चन्दना सोई हुई थी। उस ने एक सर्प को आर्या के समीप से निकलते हुए देख लिया । साहस के साथ आर्या के हाथ को पकड़ कर उसने भूमि से ऊपर उठा लिया और सर्प वहाँ से निकल गया। आर्या सहसा जाग उठी। उसने मृगावती जी को कर स्पर्श का कारण पूछा और सर्वदर्शी मृगावती जी ने सर्प वाली घटना बता दी।
साध्वी प्रमुखा चन्दन बाला को अत्यन्त ही आश्चर्य हुआ कि इस को सघन अन्धकार में इसको काला नाग कैसे दृष्टिगोचर हो गया? उन्होंने मृगावती से इसी आशय का प्रश्न किया । मृगावती ने उत्तर में कहाअब मैं सर्वत्र कुछ देख पा रही हूँ और ज्ञानालोक में विहार कर पा रही हूँ। आर्या चन्दन बाला को यह समझने में विलम्ब नहीं हुआ कि मृगावती को केवल ज्ञान की उपलब्धि हो गई ।
आर्या चन्दना ने केवली मृगावती की वन्दना की और स्वयं भी ध्यान साधना में लीन हो गई। उन्होंने क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर चार घनघाती कर्मों का क्षय कर लिया। इसी रात्रि में चन्दनबाला को केवल ज्ञान हो गया। महासती मृगावती भी यथासमय अघाती कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो
गई।
महासती पद्मावती- साध्वी रत्न पद्मावती भी वैशाली गणराज्य के अधिपति महाराज चेटक की यशस्विनी पुत्रियों में से एक थी । अन्य बहनों की तरह यह भी धर्मानुरागिणी और प्रतिभाशालिनी थी । चम्पानगरी के धर्मनिष्ठ नरेश दधिवाहन के साथ पद्मावती का विवाह हुआ। पद्मावती सांसारिक सुखों से सर्वथा विरक्त हुई और उस ने प्रव्रज्या ग्रहण की। संयम साधना में लीन हो गई। और उस ने पिता तथा करकण्डू पुत्र के मध्य युद्ध के घोर दुष्कर्मों को पूर्णतः रोक दिया । हिंसा को उन्मूलित कर अहिंसा की स्थापना की। और वह अपने जीवन को सफल कर देती है।
महासती शिवा- शिवादेवी वैशाली नरेश चेटक की चतुर्थ राजकुमारी थी । पतिव्रत में अविचल रही, सत्य प्रिया एवं विवेक शीला थी । सतीत्व की तेजस्विता उस की अन्यतम विशेषता थी। रानी शिवा देवी अपने पतिदेव अवन्ति के अधिपति चण्डप्रद्योतन के प्रति निर्मल भावना रखती थी। अधिकार की गरिमा से पूर्ण वातावरण में रहती हुई भी इन से कोसों दूर थी। भगवान् महावीर चरणों में महारानी शिवादेवी ने दीक्षा ग्रहण की। साध्वी शिवा ने आर्यारत्न चन्दनबाला के सान्निध्य में उत्कृष्ट साधनाएं की, कर्मों का सर्वथा क्षय कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई।
महासती सुलसा-महासती सुलसा का समूचा जीवन धर्ममय था । उस का जीवन इस तथ्य का परिपुष्ट उदाहरण है कि पत्नी अपने मृदुल- मधुर उद्बोधन द्वारा पतिदेव को भी श्रद्धावान् बनाने में सफल हो सकती है। सुलसा का जन्म राज्यवंश में नहीं हुआ । नाग नामक राजगृही के एक सामान्य सारथी की पत्नी सुलसा एक सामान्य गृहस्थ थी । किन्तु यह सत्य है कि वह धर्म परायण थी। सम्यग्दर्शन में अविचल रहने वाली सुलसा ने श्रद्धा और साधना के बल पर ही तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया उस का जीव ही आगामी चौबीसी में पन्द्रहवें तीर्थं कर के रूप में अवतरित होगा।
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