________________
जी ने सांसारिक सुखों का त्याग कर संयम पथ स्वीकार किया और अध्यात्म साधना में लीन हो गई। अन्ततः उस को पाँचवें स्वर्ग की प्राप्ति हुई। द्रोपदी की विरक्ति से पाण्डव भी प्रेरित हुए और वे आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गये। पाण्डव बन्धुओं ने मोक्ष पद को प्राप्त किया। महासती द्रौपदी का जीवन एक प्रकाशमान जीवन था।
महासती राजीमति-श्रमणीरत्न राजमति का समुज्ज्वल जीवन भी उत्कृष्ट संयम का अनुपम गान है। वह अलौकिक दृढ़व्रता थी। जिस ने केवल वाग्दत्ता होते हुए भी, तोरण से अपने वर के लौट जाने पर आजीवन अविवाहिता रहने का प्रण कर दृढ़ता के साथ महाव्रतों का पालन किया।२ ऐसी गौरवशालिनी नारी के आधार पर ही नारी आदर्श का भव्यतम आदर्श अवस्थित है। उस का जीवन वासना-विहीन और आत्मोत्सर्ग का एक अद्भुत चित्र है।
___ महासती पुष्पचूला-श्रमणी-मणि 'पुष्पचूला का महासतियों की उज्ज्वल-परम्परा में विशिष्ट स्थान है। निर्मल स्नेह, ब्रह्मचर्यनिष्ठा, अविचल साधना आदि विविध रंगों से साध्वी पुष्पचूला का जीवन चित्र संवरा हुआ है। इन के चरित्र की गौरव-गाथा के स्मरण मात्र से कलुषित मानस में निर्मलता का संचार हो जाता है। महासती पुष्पचूला संसार में रहकर भी विरक्त रही। विवाहिता रह कर भी ब्रह्मचर्य साधना में लीन रही। बाहर से राजरानी थी, पर वह भीतर में सदा साध्वी बनी रही, इस दृष्टि से इस का जीवन अनुकरणीय है, अभिनन्दनीय है।
महासती प्रभावती-साध्वी रत्न श्री प्रभावती जी का साध्वी परम्परा में मौलिक स्थान है, परम विशिष्ट स्थान है। इस श्रमणी रत्न ने अपने आदर्श जीवन दृष्टान्त के द्वारा नारी जगत् के लिये पत्नी का गौरव स्वरूप प्रतिष्ठित किया। उस के उज्ज्वल जीवन पर से यह स्पष्ट होता है कि पत्नी के लिये पति का आमन्त्रण स्वीकार करना तो अनिवार्य है, किन्तु साथ ही पति देव को सन्मार्ग पर लाने का उत्तर- दायित्व भी उसे वहन करना चाहिये। पत्नी पति की धर्म सहायिका होती है। वह पति के जीवन को धर्ममय बनाये
। के लिये सतत रूप से सहायता करती है और उस का यही स्वरूप प्रमख है। महासती प्रभावती महाराज चेटक की यशस्विनी कन्या थी और भगवान् महावीर की अनन्य उपासिका थी। उस का जीवन विलास-रहित, संयमित और निष्कलुष था। वह आदर्श ज्योति कभी भी घूमिल नहीं हो सकती, प्रभाव विहीन नहीं हो सकती, उसका जो महत्व है, वह शाश्वत है।
महासती मृगावती-साध्वीरत्न मृगावती यशस्विनी प्रतिमामूर्ति महासती प्रभावती की बहिन थी। ज्योतिर्मय प्रभु महावीर की माता त्रिशला भी साध्वी मृगावती की मौसी थी। साध्वीरत्न का शील ही उस के लिये सर्वस्व हैं। हजार हजार बाधाएँ उस के मार्ग में आती हैं, किन्तु वह निस्तेज होकर इन विलोम तत्वों के प्रति समर्पिता नहीं होती है, अपितु वह शक्तिभर इन से संघर्ष करती है। अन्ततः सतीत्व शक्ति की ही विजय होती है और बाधाएं ध्वस्त हो जाती है। मृगावती जी प्रभु महावीर के श्री चरणों में दीक्षित होकर आर्या चन्दन बाला के संरक्षण में धर्म साधना करने लगी। एक समय का पावन प्रसंग है कि प्रभु महावीर विचरण करते हुए कौशम्बी पधारे। चन्दन बाला उनके दर्शनार्थ पहुँची। उनके साथ मृगावती भी थी। उस समय सूर्य प्रभु की सेवा में उपस्थित था। सूर्य के प्रकाश में मृगावती को दिन के समाप्त हो जाने का
१३ - दशवैकालिक नियुक्ति अध्ययन २ गाथा -८ ! १४ - आवश्यक नियुक्ति गाथा १२८४!
(२४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org