Book Title: Shraman Sanskruti ka Udat Drushtikon
Author(s): Shriranjan Suridev
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 3
________________ श्रमण-संस्कृति का उवात्त रष्टिकोण ३ को ही पण्डित मान लेते हैं, तो यह एकान्त दृष्टि हुई। सम्भव है, उस पण्डित को सांख्यिकी में तत्त्वज्ञता प्राप्त नहीं हो, तो फिर उसे एकान्तभाव से पण्डित कहना उचित भी नहीं। अनेकान्त दृष्टि से दर्शन की अपेक्षा यदि वह पण्डित है, तो सांख्यिकी की अपेक्षा पण्डित नहीं भी है। इसी विचारधारा के आधार पर अनेकान्त में 'सप्तभंगी न्याय' की प्रतिष्ठा हुई है । इस न्याय के द्वारा हम एकान्त से अनेकान्त की ओर प्रस्थान करते हैं, जहाँ हमें सम्पूर्ण जागतिक स्थिति का सही अभिज्ञान प्राप्त होता है और उदात्त दृष्टिकोण से संवलित होने का अवसर मिलता है। सर्वधर्मसमन्वय की समस्या का समाधान भी अनेकान्त ही दे सकता है। ज्ञान और दया श्रमण-संस्कृति के मेरुदण्ड हैं। ये दोनों ऐसे दिव्य तत्त्व हैं, जिनमें उदात्त दृष्टिकोण का अपार सागर तरंगित होता रहता है। कोई भी ज्ञानी पुरुष अनुदार नहीं हो सकता और किसी भी दयालु की विचारधारा संकीर्ण नहीं होती। किन्तु, दया की भावना का उदय बिना ज्ञान के सम्भव नहीं। इसीलिए, जिनवाणी की मान्त्रिक भाषा है : 'पढमं णाणं तओ बया।' श्रमण-संस्कृति में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है । ज्ञान भी ऐसा, जो स्व और पर को समान रूप से आभासित करे और उसमें किसी प्रकार की बाधा-व्यवधान न हो। इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने कहा है : 'प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविजितम् ।' उदात्त दृष्टिकोण के लिए ज्ञान का होना अनिवार्य है और ज्ञान का क्रियान्वयन दया-भावना से ही सम्भव है। ज्ञान की ही सक्रिय अवस्था दया है। ज्ञान की सक्रियता के लिए दया अनिवार्य है। कहना चाहिए कि ज्ञान और दया दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसीलिए, अनन्तज्ञान से सम्पन्न तीर्थंकर 'दयालु' या 'कल्याणमित्र' की संज्ञा से सम्बोधित हुए। ब्रह्मचर्य की व्याख्या में भी श्रमण-संस्कृति ने उदार दृष्टिकोण से काम लिया है। अन्यत्र जहाँ 'मरणं बिन्दुपातेन जीवनं बिन्दुधारणात्' का कठोर निर्देश मिलता है, वहीं श्रमण-संस्कृति ने 'स्ववार सन्तोषित्व-व्रत' को ब्रह्मचर्य का दरजा दिया है। आज ब्रह्मचर्य के नाम पर उन्मुक्त यौनमेध का जो नग्न ताण्डव दृष्टिगत होता है, उसका संयमन 'स्वदार सन्तोषित्व-व्रत' से सहज ही सम्भव है। एकमात्र अपनी पत्नी में ही सन्तोष के व्रत का पालन किया जाय, तो कामोष्मा से प्रतप्त आधुनिक समाज में संयम के स्वर्गिक सुख की अवतारणा हो जाय। श्रमण-संस्कृति अपने उदात्त दृष्टिकोण के कारण ही व्यष्टिगत धारणा की अपेक्षा समष्टिगत धारणा के प्रति आग्रहशील है । वह 'भूमा वै सुखं नाल्पे सुखमस्ति' के सिद्धान्त का समर्थन करती है। वह प्रमा (तद्वति तत्त्रकारकं ज्ञान) पर आस्था रखती है, बाहरी चाकचिक्य को नकार देती है। वह सिद्धान्तों के भटकाव की स्थिति नहीं उत्पन्न करती। वह तो जीवन को सन्त्रास, कुण्ठा, अनास्था, विसंगति आदि दुर्भावनाओं के घात-प्रतिघातों से बचने को प्रेरित करती है, ताकि मानव अपनी मानवता की चरम परिणति के सुमेरु पर विराजमान हो सके, सिद्धशिला पर आसीन हो सके। आज का मानव नितान्त परिग्रही हो गया हो । उसने अपने इर्दगिर्द अनेक आडम्बर चिपका रखे हैं । अज्ञानता और दयाहीनता के कारण वह अनपेक्षित आभिजात्य भावना में पड़कर मानवता की गरिमा से परिच्युत हो गया है। वह बाह्य जगत में अकर्म को कर्म और कर्म को अकर्म मान बैठा है। भौतिकता से अतिपरिचय के कारण वह आध्यात्मिकता की अवज्ञा कर रहा है। उसका कोई भी कथन न तो सुचिन्तित होता, न ही वह कोई सुविचारित कार्य कर पाता है। कुल मिलाकर, आधुनिक मानव-समाज में आत्मप्रदर्शन की मिथ्या गतानुगतिकता की ऐसी लहर छा गयी है कि वह सिवाय दूसरे का छीनने के आलावा और कुछ सोच ही नहीं सकता। श्रमण-संस्कृति ने इसीलिए अस्तेय-भावना को सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा दी है। ईशोपनिषद् की 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्' जैसी सामाजिक भावना को उबुद्ध करने वाली चेतावनी को आज के मानव ने नजरन्दाज कर दिया है, इसीलिए उसमें चौर्यवृत्ति आ गई है । आत्मधन की अपेक्षा परधन के प्रति तृष्णा से वह निरन्तर आकुल-व्याकुल हो रहा है । फलतः उसके संयम का चाबुक बेकार हो गया है और इन्द्रियों के घोड़े बेलगाम हो गये हैं। उसके जैसा कामगृध्र व्यक्ति काम से ही काम को शान्त करना चाहता है। घी से आग को ठण्डा करना चाहता है ! और, इसके लिए वह चौर्यवृत्ति से ही अपने सुख-सन्तोष की सामग्री जुटाने में प्रबल पुरुषार्थ मान रहा है और हिंसा तथा मिथ्यात्व के प्रति एकान्त आग्रहशील हो उठा है। सारस्वत जगत में भी आज अजीब छीना-झपटी चल रही है । गीता की 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' की चेतावनी भी उसे याद नहीं रह गयी है। फलतः, उसकी जिन्दगी की गाड़ी समतल सड़क को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ रास्ते में दौड़ पड़ी है। कृत्रिम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में पड़ उसने अपनी सहज पौरस्त्य संस्कृति की उपेक्षा कर दी है। यहां तक कि अपनी भाषा और साहित्य को भी वह मूल्यहीन मानने लगा है। उसके मूल्यांकन की तुला ही अभारतीय हो गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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