Book Title: Shraman Sanskruti ka Udat Drushtikon Author(s): Shriranjan Suridev Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 1
________________ ++++++++ ++ ++ + + + + + ++ ++ ++ +++ ++++ ++ ++ ++ ++ ++ ++++++++ ++++++ +++ + + + ++ ++++ ++. +++ ++ ++ ++ + ++++ ++++++++++ श्रमण-संस्कृति का उदात्त दृष्टिकोण -प्रो० श्रीरंजन सूरिदेव मानव-समाज में जब वैचारिक ह्रास आ जाता है, तब उसमें संकीर्णता का प्रवेश होता है और उसकी चिन्तनधारा का उदात्त दृष्टिकोण संशय के धुंधलके में दिग्भ्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में विशेष रूप से जाति और धर्म ही संकीर्णता के प्रवेश-द्वार हुआ करते हैं। जाति और धर्म के प्रति दुराग्रह या हठाग्रह ही वैचारिक संकीर्णता को जन्म देता है। इस सन्दर्भ में श्रमण-संस्कृति का दृष्टिकोण इसलिए उदात्त है कि वह वैचारिक संकीर्णता का सर्वथा प्रत्याख्यान करती है। श्रमण-संस्कृति और वैदिकसंस्कृति के बीच, ऐतिहासिक दृष्टिकोण से कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। ये दोनों संस्कृतियाँ चक्रगति के अनुक्रम से समय-समय अपनी सत्ता स्थापित करती रही हैं। जिस संस्कृति में जितनी अधिक वैचारिक उदारता रहेगी, उसकी सत्ता अपनी ही अविचल और लोकादृत होगी। अधुना श्रमण-संस्कृति के प्रति अत्यधिक लोकाग्रह का कारण उसकी वैचारिक उदारता ही है। कोई भी संस्कृति मानव-जिजीविषा की पूर्ति के साधनों की प्राप्ति के उपायों का समर्थ निर्देश तभी कर सकती है, जब कि वह वैचारिक दृष्टि से अपने को कभी अनुदार नहीं होने देती। इसीलिए जनकल्याण के निमित्त वैचारिक उदारता की शर्त आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य मानी गई है। लोकमार्ग का नेतृत्व वही कर सकता है, जो विचार से उदार होता है और आचार की दृष्टि से 'आत्मनेपदी'। आचार की दृष्टि से जो केवल 'परस्मैपदी' होता है, उसका विचार या आचार कभी लोकग्राह्य नहीं होता। इसीलिए, सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में आत्मचिन्तम की सर्वोपरि महत्त्व दिया गया है। उदारवादी दृष्टि से यह स्पष्ट है कि आत्मचिन्तन का सम्बन्ध आत्मसंयम या आत्मनियन्त्रण या आत्मदमन से जुड़ा हुआ है । श्रमण तीर्थकर भगवान महावीर ने आत्मदमन को बड़ा कठिन बताया है । उन्होंने कहा है : अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु खलु बुद्दमो । अप्पा वन्तो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थ य॥ -उत्तरा० ११५ निश्चय ही, दुर्दम आत्मा का दमन करने वाला व्यक्ति ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है। आत्मदमन, आत्मपीड़न का पर्याय है । आत्मा के अनुकूल वेदनीयता सुख है और प्रतिकूल वेदनीयता दुःख । तीर्थकर पुरुष चूंकि सर्वभूतहित के आकांक्षी होते हैं, इसलिए वे प्रतिकूल वेदनीयता पर विजय पाने के निमित्त आत्मदमन या आत्मपीड़न करते हैं । अर्थात्, परत्राण के लिए प्रतिकूल को अनुकूल बनाकर आत्मसुख अनुभव करते हैं और, सही अर्थों में उदार व्यक्ति वही होता है, जो परदुःख के विनाश के लिए आत्मदुःख के वरण करने में ही सुख का अनुभव करता है। इसीलिए, 'वसुदेवहिण्डी' के 'धम्मिल्लचरित' में धर्म की परिभाषा करते हुए संघदासगणिवाचक ने कहा है : 'परस्स अनुक्खकरणं धम्मोत्ति'। इस प्रकार, सम्पूर्ण श्रमण-संस्कृति परदुःख के विनाशमूलक उदारता की उदात्त भावना से ओतप्रोत है। भगवान महावीर के पंचयाम धर्म में श्रमण-संस्कृति के उदात्त दृष्टिकोण का ही भव्यतम विनियोग हुआ है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँचों साधारण जन-जीवन को उदात्त दृष्टिकोण से संवलित करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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