Book Title: Shraman Sanskruti ka Udat Drushtikon Author(s): Shriranjan Suridev Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 2
________________ । २ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन अन्य : सप्तम खण्ड ----- ----........................ .....+++++++++ ++++++++ वाले ऐसे विचार-बिन्दु हैं, जिनसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उपलब्धि सम्भव होती है और मोक्ष का मार्ग उद्घाटित होता है। लोकषणा या लोकहित श्रमण-संस्कृति के उदात्त दृष्टिकोण का महनीय पक्ष है। आधुनिक लोकदृष्टि इसलिए अनुदार हो गई है कि वह हिंसा, असत्य, चौर्यवृत्ति, काम लिप्सा और संचयवृत्ति से आक्रान्त है। अनुदारता ही संकीर्ण विचार की जननी है। आज के वक्रजड़ लोग दुर्व्याख्या के विष से मूच्छित हैं। आत्महित के लिए परहित का प्रत्याख्यान उनका धर्म हो गया है । आस-पड़ोस के जलते हुए घरों के बीच अपने घर को सुरक्षित समझने का प्रमाद ही उनका.आत्मसंस्कार बन गया है । परदुःख के विनाश में आत्मसुख को सही न मानकर वे आत्मसुख को परदुःख का कारण बनाना उचित समझते हैं। श्रमण-संस्कृति इसी अनुदार दृष्टि के निर्मूलन के प्रयास के प्रति सतत् आस्थाशील है। श्रमण-संस्कृति अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के उदात्त दृष्टिकोण की त्रिपुटी पर आधुत है। अनेकान्त की उदार विचारधारा श्रमण-संस्कृति का महार्घ अवदान है। अनेकान्त यदि वैचारिक उदात्त दृष्टिकोण का प्रतीक है, तो अहिंसा और अपरिग्रह आचारगत उदारता का परिचायक । श्रमण-संस्कृति का अहिंसावाद भी सीमित परिधि की वस्तु नहीं है। प्राणिवध जैसी द्रव्यहिंसा से भी अधिक व्यापक भावहिंसा पर श्रमण-संस्कृति बल देती है। उसका मन्तव्य है कि मूलतः भावहिंसा ही द्रव्यहिंसा का कारण है। यदि भावहिंसा पर नियन्त्रण हो जाय, तो फिर द्रव्यहिंसा का प्रश्न ही नहीं उठे। आज सामाजिक जीवन में भवहिंसा की प्रधानता से ही द्रव्यहिंसा होती है और यही फिर भयंकर युद्ध और भीषण रक्तपात में परिणत हो जाती है। जाति और धर्म की भावना में संकीर्णता आने पर हिंसा का उदय स्वाभाविक है। इस स्थिति में पुण्य की परिभाषा परोपकार न होकर सामान्य वैयक्तिक पूजा-पाठ में ही निःशेष हो जाती है। जात्यभिमान हमें अध:पतन की ओर ले जाता है और इससे हम मानवता का निरादर कर बैठते हैं। इसीलिए, भगवान महावीर ने कर्मणा जाति की परिभाषा प्रस्तुत करते हुआ कहा कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ -उत्तरा० २५॥३३ . अहिंसावाद पर अनास्था के कारण ही आज के समाज में जातिगत हीनभावना का विस्तार हो रहा है। जाति के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण उदात्त नहीं रह गया है। हम इसीलिए, ऊंच-नीच, छुआछूत आदि के घेरे में बन्दी बनते जा रहे हैं। श्रमण-संस्कृति दुरभिमान को चुनौती देती है और सघोष उद्घोषणा करती है : “मेत्ती मे सम्बभूएसु।" सामाजिक अवधारणा के सन्दर्भ में अपरिग्रहवाद भी श्रमण-संस्कृति के उदात्त दृष्टिकोण का परिचय प्रस्तुत करता है । अपरिग्रह का तात्पर्य धन के प्रति स्वामित्व की भावना का परित्याग है । अनावश्यक संचय से सामान्य लोकजीवन को कष्ट पहुँचता है । घूसखोरी, जमाखोरी, मिलावट, तस्करी आदि का व्यापार परिग्रह वृत्ति का ही जघन्यतम रूप है । हम धन से दूसरे की सहायता करते भी हैं, तो स्वामित्व की भावना रखकर ही। स्वामित्व की भावना का त्याग हम नहीं कर पाते । इससे अपरिग्रह का सही रूप तिरोहित ही रह जाता है । और फिर, हम संकीर्ण भावना से ऊपर नहीं उठ पाते, हमारा वैचारिक दृष्टिकोण उदात्त नहीं हो पाता। श्रमण-संस्कृति अपरिग्रह के माध्यम से हमें उदात्त दृष्टिकोण प्रदान करती है, जिससे हमारे अन्तर्मन में सर्वोदय की भावना का संचार होता है और जनमानस ग्रहण की संकीर्ण भावना से त्याग की उदात्त भूमि की ओर अभिमुख होता है। ..श्रमण-संस्कृति का अनेकान्त उसकी उदात्त दृष्टि का एक ऐसा प्रकाशस्तम्भ है, जिससे सम्पूर्ण विश्व का जीवन-दर्शन आलोकित है। अनेकान्तवाद, जनसमुदाय को दुराग्रहवादिता की संकीर्ण मनोवृत्ति से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। दर्शन के क्षेत्र में या फिर जीवन के व्यावहारिक जगत् में व्याप्त श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ की भावना के व्यामोह का विलोप अनेकान्त से ही सम्भव है। नीर-क्षीर-विवेक की सम्प्राप्ति एकमात्र अनेकान्त से ही हो सकती है । सत् के प्रति आसक्ति और असत् के प्रति वैराग्य अनेकान्त की भावना से ही आता है। भाषिक शुद्धि की दृष्टि से स्याद्वाद और वैचारिक शुद्धि की दृष्टि से अनेकान्तवाद की स्थापना श्रमणसंस्कृति की उदात्तता का ही पार्यन्तिक रूप है। आज हम किसी वस्तु को एकान्त दृष्टि से सत्य मानने का भ्रम पालते हैं। किन्तु, अनेकान्तवाद इस भ्रम को दूर करता है। किसी वस्तु को हम एकान्त दृष्टि से सत्य मानकर अपनी अनुदात्त दृष्टि का ही परिचय देते हैं। कोई भी मानव एकान्त भाव से पूर्ण नहीं होता। यदि हम किसी दर्शन के तत्त्वज्ञ o o Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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