Book Title: Shraman Sanskruti Ek Parishilan Author(s): Rajendra Kumar Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 4
________________ अरिष्टनेमी ने अपने विवाह प्रसंग पर पशु हिंसा की संभावना से घबराकर अपरिणीत रहना ही स्वीकार किया। अरिष्टनेमी श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। इसी युग में हिंसक यज्ञों के स्थान पर घोर आंगिरस ऋषि ने आत्म यज्ञ की श्रीकृष्ण को प्रेरणा दी। कौशांबी के मतानुसार अरिष्टनेमी और और आंगिरस एक ही व्यक्ति हैं। १५ १७ ईसा की सात शताब्दी पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने हिंसा की परंपरा की चुनौती दी। इसी युग में श्रमण परंपरा के विभाजन के लिए मतभेद के बीज पड़ चुके थे। पार्श्व ने एक पंचाग्नि से आतापना ले रहे तापस से संवाद कर मिथ्या मान्यताओं के प्रति विद्रोह प्रकट किया। तथागत बुद्ध इस तीर्थंकर की परंपरा से जुड़े रहे। १६ योगियों की नाथ संप्रदाय का भी पाश्र्व आदि पुरुष माना गया है। इसी काल में यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस ने भारत आकर पार्श्व पंथ के श्रमणों से अहिंसा का पाठ पढ़ा। सामाजिक विकृतियों के विरुद्ध जनमानस को साथ लेकर श्रमण संस्कृति का विकास चक्र अविराम गतिशील रहा। पार्श्व निर्वाण के पश्चात् फिर हिंसा ने अपना सिर ऊँचा किया तो महावीर और बुद्ध ने जातिगत विषमता, यज्ञ हिंसा के विरुद्ध श्रमण परंपरा को स्थिर किया। इस काल में यज्ञों में घी होमने से अर्थ व्यवस्था चरमरा गई। बैलों को यज्ञों में होमने से कृषि पर विपरीत प्रभाव पढ़ा ऐसी स्थिति में आक्रान्त जनमानस ने महावीर एवं बुद्ध के नेतृत्व में अपने मौलिक अधिकारों के लिये संघर्ष किया। दयनीय मातृ जाति एवं पीड़ित शुद्रों की स्थिति को सुधारने में और उन्हें समान सामाजिक अधिकार देने का संदेश श्रमण संस्कृति ने दिया। साथ ही एक अभिनव अहिंसा मूलक आस्था भी उन्होंने प्रजा को प्रदान की। समाज के निम्न वर्ग के साथ-साथ आभिजात्य वर्ग भी श्रमण संस्कृति से जुड़ गया क्योंकि वह ईश्वर, कर्तृत्व जातिवाद से ऊब गया था। महावीर का अनेकांत एवं बुद्ध का अनात्मवादी सिद्धान्त जन-जन वरेण्य तार्किक एवं सुसंगत होने से उन्हें अपनी और आकृष्ट कर रहा था । श्रमण संस्कृति जन मन में उठी पीड़ा की परितोषक बन गई। जनवादी स्वरुपा श्रमण संस्कृति का नेतृत्व यद्यपि क्षत्रियों के हाथ में था पर ब्राह्मणों के अत्याचारों के विरुद्ध वैश्य और शूद्रों ने भी उनको अपना सहयोग दिया जन-जन की धार्मिक आस्था जैन धर्म एवं बौद्ध के प्रति बढ़ती गई । बौद्ध धर्म आर्य देश से बाहर भी फैल गया, जैन धर्म जन धर्म के रूप में विकसित हो रहा था । बंगाल की मानभूम एवं सिंह भुम अनपद की प्रजा आज भी सराक ( श्रावक ) है। यह अहिंसक जाति 'काटने' शब्द का प्रयोग भी जीवन व्यवहार में नहीं करती। इनके पूर्वज गाजीपुरा के आसपास सरयू तट वासी थे। हजारीबाग जिले में पार्श्वनाथ हिल सम्मेद शिखर की आज भी आदिम जातियाँ पहाड़ों को देवता कहकर पुकारती है। मध्यकाल राजपूत एवं मुगल शासकों पर भी जैन धर्म का पर्याप्त प्रभाव था। अकबर की सभा में हीरचंद विजयश्री महत्वपूर्ण जैन संत थे । १८ १९ २० १५. भारतीय संस्कृति और अहिंसा पृ. ५७॥ १६. Mrarhya Davida Goutam the man P. P२२-२५। • १७. नाथ संप्रदाय - हजारीप्रसाद द्विवेदी पृ. १९० । १८. भारतीय चिंतन- पृ. ९२ । १९. मुडांज एण्ड देअर कंट्री पृ. ५२ । २०.. भारतीय तत्व चिंतन पृ. १७६ । Jain Education International (१०१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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