Book Title: Shraman Sanskruti Ek Parishilan
Author(s): Rajendra Kumar
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 2
________________ तथ्यतः यह निरूपणा सुसंगत है कि भारतीय मनीषा में धर्म जीवन से जुड़ा हुआ है जिसकी गणना उपादान तत्व के रूप में हुई है। दर्शन भारतीय तत्व चिंतन में आत्म विद्या किंवा पराविद्या के लिए दर्शन शब्द का प्रयोग हुआ ७ है। इसका व्यत्पत्ति जन्य अर्थ चसुत्पन्न ज्ञान ही है । - पाश्चात्य अवधारणा में दर्शन के लिए Philosophy शब्द का प्रयोग हुआ है। यह शब्द मूलतः युनानी है जो Philos और sophia इन दो शब्दों के संयोग से बना है, पहला प्रेमवाची है तथा दूसरा विद्याज्ञान से संस्पर्शित है जिसका रूपान्तरण हुआ विद्यानुराग | sophia का तात्पर्य wisdom (अर्थज्ञान) है जो भारतीय बोध में यथार्थ ज्ञान सम्यक् ज्ञान है। यह विद्यानुराग ही आर्य संस्कृति का श्रद्धा भाव है। इस संदर्भ में अरस्तू का कथन महत्वपूर्ण है कि दर्शन वह विज्ञान है जो परम तत्व के यथार्थ की अन्वेषणा करता है। वहीं ब्रेदले की दृष्टि है कि दर्शन दृश्य जगत से वास्तविक जगत में प्रवेश का प्रयास है। १० श्रमण संस्कृति की जैन अवधारणा में दर्शन यथार्थ ज्ञान है। सम्यक् दर्शन है। ११ वहां अतीन्द्रिय सुख की अभिरुचि और वीतराग सुख स्वभाव में रमणरत निश्चय को इस तरह दर्शन का आशय यथार्थ अवबोध सम्यक् दर्शन या यथार्थ ज्ञान ही है। ८ १२ • दर्शन कहा है। निष्कर्ष संस्कृति, धर्म, दर्शन ये तीनों मानव की विकास यात्रा के प्रतीक चिह्न हैं। ये सभी परम्परा संपृक्त हैं। आचारोन्मुख संस्कृति धर्म तथा उसकी चिंतन परक प्रवृत्ति दर्शन है। संस्कृति का सम्बन्ध हमारे धार्मिक विश्वास एवं आस्था से है। सभी धर्म आम्नायों ने दर्शन एवं धर्म की एकता स्थापित की, उसी अनुरूप श्रमण विचार धारा भी इनमें अभेद स्थापित करती है। जैन विचार में दर्शन विचार है और धर्म आचार तथा बौद्ध दृष्टिकोण में हीनयान दर्शन है, महायान धर्म है। धर्म और दर्शन मानव को मिथ्यात्व से परे हटाकर यथार्थ के आलोकपथ में आने का निर्देश करते हैं। ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. जनोन्मुख श्रमण संस्कृति श्रमण चिंतन के अनुसार सृष्टि शाश्वत है। सुख से दुःख की ओर तथा दुःख से सुख की ओर विश्व का क्रमशः अवसर्पण तथा उत्सर्पण होता रहता है। अवसर्पण की आदि सभ्यता सरल व अजुथी कौटुंबिक व्यवस्था न होने से कोई दायित्व नहीं था तथा दायित्व हीन जीवन व्ययता विरहित था। जैन पुराणों के अनुरूप जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति कत्पवृक्षों से होती थी। पाप-पुण्य, निम्न श्रेष्ठ का संघर्ष नहीं था । यह युग भोग भूमि के नाम से अभिहित किया गया है। १३ Jain Education International - देवेन्द्रमुनि शास्त्री - धर्म दर्शन मनन और मूल्यांकन- ४७ वही पृष्ठ-५७ वही पृष्ठ- ५७ वही पृष्ठ-६७ तत्वार्थ सूत्र अध्याय- १ द्रव्य संग्रह १४/४९ तथा ४५ भगवान महावीर एक अनुशीलन- भूमिका भाग पृ. १५१ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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