Book Title: Shraman Sanskruti Ek Parishilan Author(s): Rajendra Kumar Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 6
________________ जैन साहित्य में तीर्थंकरों के लिये अर्हत शब्द का प्रयोग किया है। 28 जिसका प्रचलन पाश्र्वनाथ पर्यन्त रहा। महावीर और बुद्ध काल में अर्हत शब्द का स्थान निगंठवा निग्रंथ शब्द ने लिया। इस शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रन्थों में भी हुआ है। पं. बंगाल में सातवीं शताब्दि तक निर्मथ नामक एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय चल रहा था। श्रमण संस्कृति की अंग रूप एक धारा जो व्रात्य कैशी मुनि निर्यथ के नाम से पुकारी गयी, वही कालान्तर में जैन धर्म के नाम से अभिहित हुई। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और सूत्र कृताङ्ग आदि प्रतिनिधि जैन आगमों में जिन शासन, जिन मार्ग, जिन प्रवचन शब्द.तो सुविख्यात रहे पर जैन धर्म शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग विशेषावश्यक भाष्य में हुआ। 20 जिसका सृष्टि काल विक्रम संवत् 845 है। 31 इस तरह फिर वैदिक ग्रंथ मत्स्य पुराण में भी जिन धर्म तथा देवी भागवत 22 में जैन धर्म शब्द प्रयोज्यमान हुआ। श्रमण शब्द भी जैन आगमों में उपलब्ध होता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये धर्म हैं। इन धर्मों के धारक श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका कहे जाते हैं। 22 इस तरह जैन धारा का सम्बन्ध श्रमण संस्कृति के आद्य स्त्रोत के साथ रहा है। अलग-अलग देश काल में श्रमण संस्कृति की पहचान भले ही अलग-अलग नामों से हुई, पर उसका सम्बन्ध श्रमण संस्कृति से विभक्त नहीं हुआ। इसी तरह बौद्ध परम्परा, जिसका प्रवर्तन भगवान बुद्ध द्वारा हुआ, वह भी श्रमण संस्कृति की अविभाज्य अंग रही है। बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों के लिये 'श्रमण' शब्द का प्रचुरता के साथ प्रयोग हुआ है। 24 निष्कर्षतः यही निरूपणा समीचीन होगी कि भारतीय सांस्कृतिक स्रोत से दो धाराओं का उद्भव हुआ जो जैन एवं बौद्ध कहलायीं, और इन दोनों की सामूहिक अभिव्यक्ति श्रमण संस्कृति के नाम से हुई। इस श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत वैचारिक वैमनस्य के कारण आजीवक अक्रियावादी आदि कई मतों की उत्पत्ति हुई। कुछ सामायिक प्रभावों को छोड़कर वे सब काल के गाल में समा गए। मुख्य रूप से जैन रम्परा ही अस्तित्व में रही। कालान्तर में बौद्ध संस्कति भी भारत में कछ परिस्थितियों से आक्रान्त होकर नष्ट प्रायः हो गयी। जैन धारा श्रमण संस्कृति की उपस्थिति का बराबर आभास देती रही है। जहाँ ब्राह्मण संस्कृति व्यवहार व कर्मकाण्ड प्रधान रही है वहीं श्रमण संस्कृति विशुद्ध आध्यात्मिक रही है। ब्राह्मण संस्कृति व्यक्ति को बाह्य जीवन की सुंदरता के साँचे में ढाल रही थी, तो श्रमण संस्कृति उसके अन्तस् को निखारने में लगी थी जिस पर उसका समग्र व्यक्तित्व टिका हुआ है। श्रमण संस्कृति आंतरिकता को महत्व देती रही। उसका उद्देश्य व्यक्ति की समस्याओं का समाधान ही था वह समाधान जो उसको अपने भीतर एक पूर्णता की अनुभूति प्रदान करे। * * * * * 28. कल्पसूत्र- श्री तारफ गुरु जैन ग्रंथालय, उदयपुर पृष्ठ 161-162 / 29. आचारांग 1-3-9-08, भगवती सूत्र, 1-6-36-86 तथा दिघनिकाय सामज्जन- फल सूत्र 18, 21 विनय-पिट्टक महावग्य पृ. 242 / 30. जैण तिथ्य... वि भाष्य गाथा 1043 तिथ्य जहणं... वही गाथा 1045-1046 31. मत्स्य पुराण 4/13/45 32. गत्वाथ माहमायास रजि पुद्वान वृहस्पति जैन धर्म कृत एवं यज्ञ निंदा पर तथा देवी भागवत 4, 13, 58 / 33. भगवती सूत्र २-८६-८२,स्थानांग सूत्र 4/3, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, उसह चरियं। 34. धम्मपद-ब्राह्मण वर्ग- 36, एवं सुस्त निपात वासट्ठ सूत्र- 35, 245 अध्याय। (103) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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