Book Title: Shraman Parampara me Kriyoddhar
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 4
________________ Jain Education International ८६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड २.वरजी ऋषि श्रीमलजी ऋषि १०. ११. श्री रत्नसिंहजी ऋषि १२. केशव ऋषि १३. १४. १५. श्री शिवजी ऋषि श्री संघराजजी ऋषि समलजी ऋषि सुखमल्लजी न्हानीपक्ष की पट्टावली १६. श्री भागचन्द्रजी ऋषि १७. श्री बालचन्द्रजी ऋषि १८. श्री माणकचन्द्रजी ऋषि १६. श्री मूलचन्द्रजी ऋषि (१८७६) २०. श्री जगतचन्द्रजी ऋषि २१. श्री रत्नचन्द्रजी ऋषि २२. श्री नृपचन्द्रजी ऋषि (ये अन्तिम गादीधर थे, आगे गादीधर नहीं हुए) जीवराजजी महाराज --- यह हम पूर्व बता चुके हैं कि लोकागच्छ में भी शिथिलता प्रारम्भ हो गयी। जिस उद्देश्य से लोकाशाह ने क्रान्ति का बिगुल बजाया था, उसका स्वर मन्द हो गया। आचार-विचार की शिथिलता के कारण पुनः नत्र जागृति लाने के लिए सर्वप्रथम वि. सं. १६६६ में जीवराजजी महाराज ने क्रियोद्धार किया। जीवराजजी महाराज के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में इतिहास मौन है। कितने ही विज्ञ उनकी जन्मस्थली सूरत मानते हैं और माता का नाम केसर बहिन और पिता का नाम वीरजी मानते हैं। किन्तु पूर्ण सत्य तथ्य क्या है यह प्राचीन साक्षी के अभाव में कहना कठिन है तथापि यह सत्य है कि वे गृहस्थाश्रम में किसी विशिष्ट परिवार के सदस्य रहे होंगे। क्योंकि उनकी प्रतिभा की तेजस्विता उनके कृतित्व से झलकती है। यह भी माना जाता है कि उनका पाणिग्रहण एक सुरूपा बाला के साथ सम्पन्न हुआ था, किन्तु उनका मन गृहस्थाश्रम में न लग सका। वे भोग से योग को श्रेष्ठ समझते थे । अतः वे लोंकागच्छ के यति जो बहुत ही प्रसिद्ध ज्योतिर्विद थे, उनकी सेवा में वे पीपाड पहुँचे । यतिप्रवर के प्रभावपूर्ण प्रवचनों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि वस्तुतः संसार असार है, यह मानव का जीवन बहुत ही अनमोल है। विषय-वासना के दलदल में फँसकर यह जीवन कूकर और शूकर की तरह बरबाद करने के लिए नहीं है। इस जीवन को आबाद करने के लिए मुझे साधना के पथ पर बढ़ना चाहिए। अतः सं १६५४ में यतिदीक्षा ग्रहण की । दीक्षा के पश्चात् शिक्षा प्रारम्भ हुई । आगमों के गम्भीर रहस्य ज्यों-ज्यों पढ़ते गये त्यों-त्यों ज्ञात होते गये। उन्हें अनुभव हुआ कि आगमों में जो श्रमण जीवन की आचार संहिता बतायी गयी है आज वह यतिवर्ग में दिखायी नहीं दे रही है। यह प्रवृत्ति आत्मवंचना है। अतः इसमें सुधार अपेक्षित है। उन्होंने सर्वप्रथम अपने गुरुजी से नम्र निवेदन किया कि आज हम किधर जा रहे हैं, धर्म के नाम पर मिथ्याडम्बरों में उलझे हुए हैं। अतः इसमें सुधार अपेक्षित है । किन्तु यतिजी गद्दी के मोह को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। वे सत्य पर आवरण डालना चाहते थे; किन्तु डाल नहीं सके । कुछ समय तक जीवराजजी यह प्रतीक्षा करते रहें कि अवश्य ही सुधार होगा । किन्तु जब उन्होंने देखा कि गुरुजी सत्ता व सम्पत्ति के मोह को नहीं छोड़ सकते हैं, तो वे वि. सं. १६६६ में अपने गुरुजी से पृथक् हो गये और उन्होंने अपने साथी अमीपालजी, महीपालजी, हीरोजी, गिरिधरजी और हरजी इन पाँच व्यक्तियों ने साथ लाल भाटा के उपाश्रय का परित्याग कर पीपाड के बाहर वट वृक्ष के नीचे बैठकर अपने अतीत के जीवन की आलोचना की। अरिहन्त, सिद्ध की साक्षी से पंच महाव्रतों को ग्रहण किया। स्थानकवासी परम्परा के ये ही सर्वप्रथम क्रियोद्धारक हैं । यतिवर्ग ने जब देखा कि इनके तपः तेज से जनमानस इनके प्रति आकर्षित हो रहा है तो उन्होंने उग्र विरोध करना प्रारम्भ किया, किन्तु विरोध के बावजूद भी आपका प्रभाव दूज के चाँद की तरह बढ़ता रहा। आपने सर्वप्रथम ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और एक आवश्यक इन बत्तीस आगमों को प्रमाणभूत माना। साथ ही मुखवस्त्रिका को सदा मुख पर रखना आवश्यक समझा । मुखवस्त्रिका हाथ में रखने से प्रमादजन्य अनेक दोष लग की सम्भावना है । अतः साधक को मुखवस्त्रिका मुख पर बांधना आवश्यक है। मुखवस्त्रिका के साथ ही जीवों की रक्षा के लिए रजोहरण रखना भी आवश्यक माना । श्रमण जीवन की श्रेष्ठता व ज्येष्ठता के लिए श्रमण सामाचारी का भी निर्माण किया । For Private & Personal Use Only जीवराजजी महाराज के साथ जिन पाँच यतिप्रवरों ने क्रियोद्धार में सहयोग दिया था वे भी कष्टों को सहन करते हुए अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर आगे बढ़ते रहे। इन छः साधकों में जीवराजजी महाराज का शिष्य परिवार अधिक विस्तृत था । वर्तमान में भी अनेक सम्प्रदाय आपको अपना मूलपुरुष मानते हैं । www.jainelibrary.org

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