Book Title: Shraman Parampara me Kriyoddhar
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 2
________________ ८४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ : अष्टम खण्ड ++++++++++++++0000000000000mm-0000ranamamernamammmmmmmmmmmmmmmmmmmm. अन्न के कण के संग्रह को पाप बताया, वहाँ भक्ति और अर्चना के नाम पर पुष्पों का अनर्गल ढेर लगाना कहाँ तक उचित है? पूर्ण अकिंचन वीतराग की प्रतिमा पर बहुमूल्य आभूषण सजाना सचित्त पदार्थों से उनकी अर्चना करना कहाँ तक योग्य है आदि के कारण ही लोकाशाह ने श्रमण-यति-वर्ग के विरुद्ध क्रांति की। 'लुंकाना सद्दिया अट्टावन बोल, लुंकानी हुण्डी तैन्तीस बोल' के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि उनकी क्रान्ति मर्यादाहीन तथा उग्र नहीं थी। सत्यशोधक होने पर भी उनके अन्तर्मानस में हित-बुद्धि और मदुता थी। उन्होंने यतिवर्ग को विनम्र शब्दों में कहा-जो बुद्धिमान हैं वे मेरी बातों पर विचार करें। विवेकी लोग मेरी बातों को समझें । इस तरह विरोधियों को भी अपनी बातों पर चिन्तन करने के लिए वे प्रार्थना करते हैं और सत्य को समझने के लिए कहते हैं जिससे उनके चित्त की शान्ति का और उत्तर देने की मधुर शैली का स्पष्ट ज्ञान होता है। जहाँ परस्पर विचारों में संघर्ष की स्थिति होती है वहाँ पर कटुता आना स्वाभाविक है। किन्तु लोकाशाह में कुछ भी कटुता नहीं आयी है । यही कारण है कुछ ही समय में एक अपूर्व प्रभाव छा जाता है, लखमसी जो पाटन का महान धनाढ्य व्यापारी था वह लोंकाशाह का समर्थक बन जाता है और शनैः-शनै: जन-मानस में विचार-क्रान्ति की ऐसी लहर लहराने लगती है कि पुरानी परम्परा के सिंहासन डगमगाने लगते हैं । उस समय की स्थिति का चित्रण करते हुए लोकाशाह के समकालीन प्रसिद्ध विद्वान् कमलसंयम ने लिखा है "डगमगपडियं, सघलउ लोक, पोसालइ पणि आवइ थोक।। लुकइ बात प्रकासी इसी, तेहनु शिष्य हुउ लखमसी ॥" विज्ञों का यह मन्तव्य है कि प्रारम्भ में लोकाशाह ने केवल श्रमणवर्ग के शिथिलाचार के विरुद्ध ही आवाज उठायी थी, पर जब वह विरोध प्रबल हो गया तो उसमें मूर्तिपूजा विरोध, वेश-परिवर्तन प्रभृति अनेक बातें सम्मिलित हो गयीं। लखमसी आदि के साथ विचार चर्चा करते हुए अनेक बातें सामने आयीं । उस पर उन्होंने चिन्तन किया और मतभेद की बातें विस्तृत होती चली गयीं। लोकाशाह के तेजस्वी और निष्ठावान् व्यक्तित्व से हजारों व्यक्ति प्रभावित हो रहे थे । आगम स्वाध्याय व चिन्तन से उन्होंने जो ज्योति प्राप्त की थी, उग्र विरोध होने पर भी वे भय से कतराये नहीं। किन्तु विरोध को विनोद मानकर निरन्तर आगे बढ़ते रहे। उनकी धर्म-क्रान्ति से सहस्रों व्यक्तियों को प्रकाश मिला; क्योंकि वह युग ही धर्मक्रान्ति का यूग था। युरोप में उन दिनों पोप के विरोध में जन-मानस जागृत हो रहा था। मार्टिन लुथर (जर्मन) जैसे उग्रवादी नेता उसका संचालन कर रहे थे। भारत के विविध अंचलों में भी धर्म, समाज और राजनीति में अभिनव क्रान्ति हो रही थी। पंजाब में गुरु नानकदेव, पूर्व भारत में कबीर, और दक्षिण में नामदेव आदि के तेजस्वी स्वर गंज रहे थे । धार्मिक आडम्बर, बाह्याचार, मूर्तिपूजा आदि के विरोध में एक विचित्र सी लहर लहरा रही थी जो जन-मानस को शुद्ध धर्म-साधना की ओर आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित कर रही थी। इस तरह लोंकाशाह ही नहीं किन्तु भारत का प्रबद्ध वर्ग भी उस धार्मिक क्रान्ति से प्रभावित था। जीवन की सान्ध्य बेला में सुकरात की तरह उन्हें भी विरोधियों ने विष दिया। किन्तु जिस महापुरुष ने जीवनभर जन-जन को अमृत बाँटा हो वह कभी विष से विचलित हो सकता है ? वह सत्य-पथ पर जीवन के अन्तिम क्षण तक बढ़ता रहा । मर करके भी वह अमर हो गया। स्थानकवासी और तेरापन्थ परम्परा उस महापुरुष की सदा ऋणी रहेगी और वह प्रकाश-दीप की तरह अपने दिव्य और भव्य आलोक से आलोकित करता रहेगा। (१) भाणाजी-ये सिरोही के निकट अरहटवाल-अटकवाड़ा के निवासी थे । जाति से पोरवाल थे। सं. १५३१ में उन्होंने दीक्षा ली ऐसा स्वर्गीय मोहनलाल दलीचन्द देसाई का मत है; किन्तु तपागच्छीय पट्टावलियों में दीक्षा समय १५३३ उल्लिखित है। उपाध्याय रविवर्धन ने अपनी पट्टावली में उनका दीक्षाकाल १५३८ दिया है। किन्तु उनका यह कथन विश्वसनीय नहीं है, क्योंकि कुंवरजी पक्षीय केशबजी रचित लोंकाशाह शिलोके में जिसकी रचना सं. १६८८ के लगभग हुई है उसमें भी १५३३ का समर्थन होता है । ये लोंकागच्छ के आद्यमुनि थे। इनके वैयक्तिक जीवन और विहार प्रदेश आदि के सम्बन्ध में इतिहास मौन है। कहा जाता है कि इन्होंने पैन्तालीस व्यक्तियों के साथ दीक्षा ग्रहण की थी और ये दीक्षाएँ लोंकाशाह की प्रेरणा से हुई थीं। अतः उन्होंने अपने गच्छ का नाम लोकागच्छ रखा। मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने भाणाजी का स्वर्गगमन १५३७ में सूचित किया है । किन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है । कारण कि कडुवामत पट्टावली में सं. १५४० में भाणाजी से नाडोलाई गाँव में कडुवाशाह मिले थे और उनसे वार्तालाप भी हुआ था । अतः १५४० तक उनका अस्तित्व असंदिग्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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