Book Title: Shraddha aur Samarpan se Milta Hai Guru ka Ashirwad Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 4
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 31 तो शिल्पकार ही रहता है, किन्तु मूर्ति को भगवान बना देता है। गुरु ऐसा ही महान् शिल्पी है जो निष्काम भाव के साथ शिष्यरूपी पत्थर को भगवान की प्रतिष्ठा दिलाने में ही अपना कर्त्तव्य समझता है । शिष्य सदा शिष्य ही बना रहे जैन सूत्रों में कहा गया है कि गुरु तो महान् है ही, परन्तु शिष्य को भी उन महान् गुरु के प्रति सदा विनय और श्रद्धा का भाव रखना चाहिए। शिष्य में श्रद्धा होगी, समर्पण की भावना होगी, विनय और उपकार के प्रति कृतज्ञता की भावना होगी तभी वह गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है। इसलिए यदि शिष्य केवलज्ञानी बन जाये और गुरु छद्मस्थ ही रहे तब भी शिष्य अनन्त ज्ञान ऐश्वर्य प्राप्त करके भी ज्ञानदान देने वाले गुरुओं के प्रति सदा विनयशील और भक्तिमान बना रहे । वास्तव में शिष्य की भक्ति, समर्पण भावना और श्रद्धा ही गुरु को ज्ञानदान के लिए प्रेरित करती है। कहा गया है, गुरु तो गाय है, ज्ञान रूप दूध देने में समर्थ है, परन्तु दूध दुहने वाला ग्वाला है शिष्य । यदि शिष्य में गुरुओं के प्रति विनय, समर्पण, श्रद्धा और आदर भावना है तो उनके ज्ञान व आशीर्वाद का दूध शिष्य को स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा। योग्य शिष्य ही गुरुओं का आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है । यदि शिष्य में पात्रता नहीं है तो गुरुजनों का आशीर्वाद उसे प्राप्त नहीं हो सकता । विनय से मिलता है दुर्लभ रहस्यों का ज्ञान महाभारत का एक सुन्दर प्रसंग है। महाभारत का युद्ध घोषित हो चुका था । कुरुक्षेत्र में एक ओर पाण्डव सेना और दूसरी ओर कौरव सेना आकर डट गई। पाण्डव सेना में पाँचों महाबली पाण्डव थे और उनके साथ थे वासुदेव कृष्ण। किन्तु कौरव सेना बड़ी विशाल थी । युग के बड़े-बड़े महारथी, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य, कर्ण जैसे अजेय योद्धा सभी किसी न किसी कारण से विवश होकर कौरव सेना के साथ थे । सभी दुर्योधन के पक्ष में लड़ने को युद्ध भूमि में आ गये थे। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ युद्ध के लिए सज्जित होकर युद्ध-भूमि में आते हैं। सामने भीष्म पितामह आदि कुल श्रेष्ठ योद्धाओं को देखकर वे अपने शस्त्र आदि रथ में ही रखकर नीचे उतरते हैं, अकेले दुर्योधन की सेना की तरफ चल पड़ते हैं। यह देखकर भीम-अर्जुन घबराये - "भैया यह क्या कर रहे हैं? यह युद्ध भूमि हैं यहाँ शत्रुपक्ष में अकेले शस्त्रहीन होकर जाना कितना खतरनाक है, इतनी बड़ी भूल कैसे कर रहे हैं?" अर्जुन एवं भीम, श्रीकृष्ण से कहते हैं- “आप धर्मराज को शत्रु सेना के सामने अकेले जाने से रोकिए! कहीं अनर्थ न हो जाए ।" । श्रीकृष्ण कहते हैं-“धर्मराज स्वयं धर्म के ज्ञाता हैं। नीति के ज्ञाता हैं । जो भी कर रहे हैं वह अनुचित नहीं होगा । ठहरो, देखो और प्रतीक्षा करो। " कौरव सेना भी धर्मराज को अकेले आते देखकर आपस में घुसुर-फुसुर करती है, अवश्य ही विशाल कौरव सेना को देखकर युधिष्ठिर घबरा गये और क्षमा माँगने या युद्ध में पराजय स्वीकारने के लिए आने लगे । धर्मराज का अकेला आना चारों तरफ चर्चा का विषय बन गया और सब देखने लगे- “अब क्या कहना चाहते हैं?” Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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