Book Title: Shraddha aur Samarpan se Milta Hai Guru ka Ashirwad
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 2
________________ 10 जनवरी 2011 भी देखता चलेगा ताकि कहीं भटके नहीं, अटके नहीं । गुरु निश्छिद्र यान है - नाव से नदी पार की जाती है, परन्तु नाव में ही यदि छेद है तो नाव स्वयं भी डूबेगी और यात्रा करने वालों को भी डुबो देगी। निश्छिद्र नाव ही पार पहुँचाती है, गुरु इस जीवन समुद्र में पार पहुँचा वाली नाव हैं । जिनवाणी जिस प्रकार इन चीजों की उपयोगिता भौतिक जगत् में है उसी प्रकार अध्यात्म जगत् में गुरु की आवश्यकता और उपयोगिता है । रोगी डॉक्टर या वैद्य के पास जाता है तो चिकित्सक उसको नीरोग एवं स्वस्थ बनाने का उपाय बताता है । छात्र अध्यापक के पास जाता है तो अध्यापक छात्र को अक्षर ज्ञान से लेकर अनेक प्रकार के शास्त्रों तक का ज्ञान देकर विद्वान् या योग्य बनाने की भावना रखता है। गार्ड के हाथ में गाड़ी के संचालन की जिम्मेदारी आती है तो वह गाड़ी को सकुशल अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचाने की चेष्टा करता है। इसी प्रकार गुरु हमेशा ही शिष्य का कल्याण चाहता है । शिष्य की आचार-‍ -शुद्धि एवं विचार-शुद्धि करके उसे जीवन में श्रेष्ठ मानव बनाना गुरु का लक्ष्य रहता है । मिलता । 29 रोगी यदि यह सोचे कि मैं चिकित्सक के पास न जाकर स्वयं ही अपनी चिकित्सा करूँ? तो इसमें बड़ा खतरा रहता । उसे अनुभवी कुशल चिकित्सक की शरण लेनी ही पड़ती है। छात्र अध्यापक की सहायता के बिना स्वयं ही गणित, शिल्प, साहित्य, सर्जरी आदि का ज्ञान प्राप्त करना चाहे तो यह सम्भव नहीं । उसे अपना ज्ञान बढ़ाने और विषय को गहराई से समझने के लिए कुशल प्राध्यापक की जरूरत रहती है। इस प्रकार व्यावहारिक जीवन में भी हमें पद-पद पर दूसरों के सहयोग, मार्गदर्शन और अनुभव की आवश्यकता पड़ती है । अपनी त्रुटि, अपूर्णता और अक्षमता का ज्ञान हम स्वयं नहीं कर सकते, दूसरे अनुभवी ही हमें इस भूल का ज्ञान कराते हैं। अपना मुँह अपनी आँखों से नहीं दिखाई देता, उसके लिए दर्पण की जरूरत पड़ती है । यही स्थिति हमारे आध्यात्मिक जगत् में भी है। अपने दोष-दुर्गुणों को देखने, अपनी आत्म-शक्ति का अनुभव करने और उनका परिष्कार व संस्कार करने के लिए गुरु की आवश्यकता रहती है। गुरु का अर्थ ही है जिसने स्वयं अपनी आत्मा का परिष्कार किया है। अपनी शक्तियों को जगाया है, अपने परिश्रम, तपस्या, साधना और ज्ञान के बल पर अपने आत्म-बल से स्वयं के भीतर छुपी शक्तियों को जगाया है, इस साधना पथ में आने वाली कठिनाइयों का अनुभव किया है और उनका समाधान भी पाया है। वह मंजिल का द्रष्टा और मार्ग का अनुभवी व्यक्ति ही दूसरों को समाधान देने में समर्थ होता है। उपनिषद् में कहा गया है - "गुरुपदेशतो ज्ञेयं न च शास्त्रार्थकोटिभिः ।” आत्म-विद्या का ज्ञान गुरु से ही सीखा जा सकता है, केवल करोड़ों शास्त्र पढ़ने से वह ज्ञान नहीं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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