Book Title: Shiksha ka Bharatiya Adarsh
Author(s): Vishnukant Shastri
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ सौखा हुआ ज्ञान, हमारे आचरण में, हमारे कर्म में उतरना चाहिए। हमको सही दिशा देने वाला ज्ञान हमसे ठीक-ठीक काम करवाए। वेदान्त ने इसमें एक अपवाद बताया है, 'ऋते आत्मज्ञानात्' अर्थात् आत्मज्ञान को छोड़कर, आत्मज्ञान के बाद कर्म अनिवार्य नहीं रहता। किन्तु अभी तो हम लौकिक ज्ञान की बात कर रहे हैं। तो अर्थ विज्ञानम् अर्थात् ज्ञान का उपयोग हो जैसे कोई अनुसंधान हुआ तो उस अनुसंधान के द्वारा, विविध तकनीकों के द्वारा हम कैसे यंत्र बना सकते हैं, कैसे उसका उपयोग समस्याओं का समाधान करने में कर सकते हैं, यह अर्थ विज्ञान आना चाहिए। यह बुद्धि की छठी भूमिका है। तत्वज्ञानं च धी गुणा; और तत्त्वतः किसी विषय को समझ लेना, उस विषय को पूर्णत: समझ लेना है, जैसे मिट्टी को तत्वत: समझ लिया तो मिट्टी से बनी हुई सभी चीजों को समझ लिया, सोने को तत्वतः समझ लिया तो सोने से बनी हुई सब चीजों को समझ लिया किसी चीज का तात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेना उस विषय की समझदारी की सातवीं भूमिका है। हमारे विद्यार्थियों को सातवीं भूमिका तक जाने की तैयारी करनी चाहिए। बड़ा काम कैसे होता है ? बड़ा काम केवल इच्छा से नहीं होता। बड़ा काम उस बड़ी इच्छा को पूर्ण करने के लिए अपने जीवन को होम देने से होता है। जीवन की सारी शक्तियों को एकाग्र करके अपने विषय को उपलब्ध करने के लिए जब हम अपने आप को समर्पित कर देंगे, तब बड़ा काम कर सकेंगे। अनुसंधान या शोध कार्य के लिए भी यह स्थापना सत्य है। ज्ञान का प्रदर्शन कर सस्ती वाहवाही लूट लेना अलग बात है और किसी विषय की तह में जाकर उसकी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाना, उस विषय के ज्ञान को आगे बढ़ाना, बिल्कुल दूसरी बात है। नवीन शोधों के द्वारा ज्ञान की समृद्धि कौन कर सकता है, कैसे कर सकता है, इस पर एक बहुत ही अच्छा श्लोक है : तरन्तो दृश्यन्ते बहव इह गंभीर सरसि, सुसाराभ्यां दोर्भ्यां हृदि विदधतः कौतुकशतम् । प्रविश्यान्तलन किमपि सुविविच्योद्धरति यश्शु चिरं रुद्धश्वासः स खलु पुनरेतेषु विरलः । अर्थात् इस गहरे और विशाल ज्ञान सरोवर में तैरते हुए बहुत 'से तैराक अपनी पुष्ट भुजाओं से नाना प्रकार के कौतुक करते हुए दीख पड़ते हैं किन्तु इन सबमें वह (विद्वान) विरला ही है जो देर तक साँस रोक कर गहरे डूब कर गंभीर विवेचन के बाद किसी दुर्लभ रत्न का उद्धार कर लाता है। आत्मप्रदर्शन विमुख, गंभीर, निष्ठापूर्ण ऐकान्तिक वस्तुनिष्ठ विद्या साधना हो मौलिक शोधपरक उपलब्धि का आधार है, यह सत्य इस श्लोक में बहुत अच्छी तरह शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International निरूपित किया गया है। अभिनवगुप्त ने अपूर्व वस्तु का निर्माण करने में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिभा कहा है, 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा प्रतिभा'। हमारे शोधार्थी प्रतिभाशाली हो और नई-नई शोधों, नए-नए आविष्कारों द्वारा ज्ञान की परिधि को बढ़ाते रहें। हमारी परम्परा यह भी मानती है कि अपनी मान्यताओं की हमें बार-बार जाँच-पड़ताल करनी चाहिए इसके लिए सही रास्ता विद्वानों से विचार-विमर्श करते रहना 'वादे वादे जायते तत्वबोध: इस दिशा में हमारा मार्ग निर्देशक सूत्र है। कई बार ऊँचा पद प्राप्त कर लेने के बाद प्राध्यापकगण विचार-विमर्श से कतराने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यदि उनकी बात गलत साबित हो जाएगी तो उन्हें अपमानित होना पड़ेगा। अतः विवाद से... शास्त्रों या विचार-विमर्श से वे कन्नी काटते हैं। कालिदास ने इस प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए एक मार्मिक श्लोक लिखा है ... O लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोः तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम् । यस्यागमः केवल जीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजे वदन्ति ॥ अर्थात् सम्मानजनक पद प्राप्त हो जाने के बाद जो विवादभीरु, आत्मविश्वासहीनता के कारण दूसरों के द्वारा की गई निन्दा को सहता रहता है, जिसका ज्ञान केवल जीविकोपार्जन के लिए ही होता है वह तो ज्ञान बेचने वाला बनिया है, विद्वान नहीं । विद्वान सब समय विवाद हो करता रहे, इसका अर्थ यह भी नहीं। इसका अभिप्राय यही है कि अपनी मान्यता विचार की कसौटी पर खरी उतरती रहे. इसकी ओर सजग रहना चाहिए। अन्यथा विद्वत्ता तेजस्विनी नहीं हो सकती। हमारी पारम्परिक प्रार्थना यही है कि हमारा अधीत (हमारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान) तेजस्वी हो... 'तेजस्विनावधीतमस्तु' यह तेजस्विता खंडित तभी होती है जब हम अपना ज्ञान बेचने लगते हैं। जायसी की हृदयस्पर्शिणी उक्ति है, 'पंडित होई सो हाट न चढ़ा। यहीं विकाइ भूलि गा पढ़ा मेरी मंगलकामना है कि हमारे तेजस्वी विद्वान प्राध्यापक आत्मविक्रय की स्थिति से बचें। एक बात और ज्ञान प्राप्त करने की तेजस्वी परम्परा यह मानती थी कि केवल एक विषय का ज्ञान रखने वाले वास्तव में ज्ञानी नहीं होते। उनकी मान्यता थी, 'एक शास्त्रं अधीयान: न चिंचिदपि शास्त्रं विजानाति । अर्थात् एक ही शास्त्र को जानने वाला कुछ भी शास्त्र नहीं जानता । सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत से शास्त्र जानने चाहिए, भले ही विशेषज्ञता एक शास्त्र की हो। क्योंकि सभी शास्त्र, सभी विषय परस्पर सम्बद्ध हैं। एक शास्त्र की ग्रन्थि दूसरे शास्त्र के प्रकाश से सुलझाई जा सकती हैं अतः विद्वान को बहुश्रुत होना चाहिए। | For Private & Personal Use Only विद्वत खण्ड / २७ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6