Book Title: Shiksha ka Bharatiya Adarsh
Author(s): Vishnukant Shastri
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/212007/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० विष्णुकांत शास्त्री अपने नाम में, अपने व्यवहार में वे अंग्रेजों के अधिकाधिक अनुकरण द्वारा अपने को अंग्रेज साबित करने की चेष्टा करते थे। निश्चय ही यह रास्ता भारत के लिए स्वाभिमान का रास्ता नहीं था। कुछ ऐसे विद्वान भी थे जिन्होंने पश्चिमी शिक्षा का बहिष्कार करना चाहा और उसके द्वारा अपने पुरातन जीवन मूल्यों से चिपटे रहने का प्रयास किया। निश्चय ही यह रास्ता भी सही रास्ता नहीं था क्योंकि ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हम केवल भौगोलिक सीमा के आधार पर जानने, या न जानने का निर्णय नहीं कर सकते। हमारे ही वेद की उक्ति है : 'आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:' अर्थात् सब दिशाओं से मिले शुभ ज्ञान। जो शुभ ज्ञान है वह किसी भी देश से क्यों न आए हमको स्वीकार करना चाहिए। हमारे पुरखों की एक तीसरी श्रेणी थी जिसने अंधानुकरण करने से भी इन्कार किया और पश्चिम के ज्ञान-विज्ञान के उज्ज्वल पक्ष का बहिष्कार करने से भी इन्कार किया। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। यह जो तीसरा मार्ग है इस तीसरे मार्ग को आज तक उचित मानते हैं, क्योंकि यही सही रास्ता है। शिक्षा का भारतीय आदर्श हम यह जानते हैं कि हम अपने पुराने ज्ञान-विज्ञान को आज के युग प्राय: कहा जाता है कि एक समय था जब भारत को जगद्गुरु में अगर स्वीकार करें तो उसको हम युगानुकूल बनाएँ। प्राचीन की उपाधि प्राप्त थी और हमारे विश्वविद्यालयों में, तक्षशिला में, परंपरा को युगानुकूल बनाकर और विदेशी शैली से ली गई ज्ञान नालन्दा में, विक्रमशिला में या और दूसरे विश्वविद्यालयों में विदेशों राशि को अपन देश के अनुकूल बनाकर हम अपने विकास के से भी बड़े-बड़े विद्वान शिक्षा ग्रहण करने आते थे। बाद में रास्ते पर चल सकते हैं। विकास और शिक्षा इन दोनों का ऐतिहासिक विपर्यय के कारण हमारी स्थिति में परिवर्तन हुआ और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में पीछे रहेंगे तो हमारी शिक्षा का विकास-क्रम अवरुद्ध-सा हो गया। १८५७ में हम विकास के क्षेत्र में भी आगे नहीं बढ़ सकते। हमारे देश की अंग्रेजों ने लंदन विश्वविद्यालय के अनुकरण पर कलकत्ता आज की स्थिति बहुत प्रशंसनीय नहीं है। आज भी हमारे देश की विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय और बम्बई विश्वविद्यालय की बहुत बड़ी जनसंख्या निरक्षर है। आज भी हमारे देश में बहुत बड़ी स्थापना की। उनकी स्थापना के पीछे एक कूट योजना भी थी। संख्या प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ऊपर नहीं उठ पाई है। बहुत कम मैकाले ने जो टिप्पणी (मिनट) लिखी थी उसमें उन्होंने बताया था लोग उच्चतर शिक्षा प्राप्त कर सके हैं। उनके ऊपर कितना बड़ा कि अगर हम अंग्रेजी माध्यम से भारत के विद्वानों को प्रशिक्षित उत्तरदायित्व है सारे देश के पुनर्निर्माण का, सारे देश के राष्ट्रीय करने का प्रयास करें तो एक दिन ऐसा आएगा कि वे केवल रंग विकास का, इस बात का हमको अनुभव करना चाहिए। में भारतीय रह जाएँगे। अपने चिन्तन में, व्यवहार में वे हमारा हमें इस बात को समझना चाहिए कि आखिर वे कौन-से गुण अनुकरण करने की चेष्टा करेंगे। उनकी यह चेष्टा थी कि वे अंग्रेजी हैं जिन गुणों ने हमारे देश को जगद्गुरु बनाया था और उन गुणों को के माध्यम से शिक्षा देकर भारतीयों को मुख्यत: क्लर्क बनाने के आज हम किस रूप में स्वीकार कर सकते हैं। हमें विचार करना लिए तैयार करें। हमारे उस समय के पुरखों ने इसकी तीन प्रकार चाहिए कि हम अपने देश की परम्परा से जुड़े रह कर कैसे की प्रतिक्रियाएँ कीं। कुछ लोग थे जो बिलकुल अंग्रेजीदाँ हो गए, आधुनिक हो सकते हैं, कैसे हम वास्तव में अपनी उस वैदिक उक्ति अंग्रेजी की नकल में अंग्रेज बनने की चेष्टा करने लगे। यदि उनका को चरितार्थ कर सकते हैं कि विश्वविद्यालय का मतलब होता है नाम था रतन दे तो वे अपने को लिखते थे डी. रैटन और अगर 'यत्र विश्वं भवत्येक नीड़म्', जहाँ सारा संसार एक घोंसला बन उनका नाम था आशुतोष तो अपने को लिखते थे ए, टोष यानी जाए। सारे संसार के विद्वान जहाँ आ सकें और जिसकी दृष्टि क्षेत्रीय शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/२३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हो, जिसकी दृष्टि संकीर्ण न हो, जिसकी दृष्टि के सामने सारा प्रवचन करना। सभी ऋषियों ने अपनी सहमति ज्ञापित करते हुए विश्व हो। विश्व मानवता को स्वीकार करते हुए अपने देश की कहा, हाँ वही तप है, वही तप है। यही अच्छे शिक्षक का धर्म है। राष्ट्रीयता, अपने देश का सर्वतोमुखी विकास करने के लिए अपने स्वाध्याय जितना उत्तम होगा प्रवचन उतना उत्कृष्ट होगा। इसलिए को समर्पित करने की दृष्टि हममें कैसे विकसित हो यही हमारे तैत्तिरीय उपनिषद ने आदेश दिया 'स्वाध्यायन्मा प्रमदः', स्वाध्याय से अध्यापकों के, हमारे विद्यार्थियों के, हमारे शोधार्थियों के चिन्तन का यानी अच्छे ग्रन्थों के निरन्तर अनुशीलन से कभी प्रमाद मत करना। विषय होना चाहिए और इस दिशा में हमको अग्रसर होना चाहिए। जो भी अध्यापक होगा वह अगर तपस्या करना चाहता है तो उसको मैं यह जानता हूँ कि अपने कार्य के प्रति गौरव-बोध हमें किसी निरन्तर स्वाध्याय करना होगा और जितना अधिक स्वाध्याय वह कर काम को भली-भाँति सम्पन्न करने की प्रेरणा देता है। जब हम सकेगा उसका प्रवचन उतना प्रामाणिक होगा। कालिदास ने शिक्षकों जगद्गुरु थे तो हमने अध्ययन-अध्यापन के कार्य को किस रूप में की एक अद्भुत श्रृंखला बताई है कि बड़ा शिक्षक कौन है, धुरि- . देखा था। उस समय की स्थिति यह थी कि हमने इस कार्य को प्रतिष्ठा का अधिकारी शिक्षक कौन है। उन्होंने कहा : तपस्या के रूप में देखा था। हमारी मान्यता थी : 'छात्राणां अध्ययन श्लिष्टा क्रिया कस्यचिदात्मसंस्था, तपः', यह कथन इस बात को साबित करता है कि अध्ययन संक्रान्तिरन्यस्य विशेष युक्ता । अध्यापन को हमने उच्चतर भूमिका पर प्रतिष्ठापित करने की चेष्टा यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, की थी। हमारी दृष्टि केवल अर्थकारी विद्या प्राप्त करने की नहीं थी। धुरिप्रतिष्ठापयितव्य एव ।। हमारा तत्कालीन अध्यापक सगौरव कहता था : __ अर्थात् कुछ विद्वान होते हैं जो ज्ञान तो बहुत अर्जित कर लेते नाहं विद्या-विक्रयं शासनशतेनापि करोमि । हैं लेकिन ज्ञान का संक्रमण करने में, अपने विद्यार्थियों को ज्ञान दे सैकड़ों शासन का अधिकार प्राप्त होने पर भी मैं विद्या-विक्रय पाने में वे कुशल नहीं होते। संक्रान्ति की विद्या से वे रहित होते हैं। नहीं करूंगा। यह दृष्टि हमारे अध्यापकों की दृष्टि थी। अच्छा कुछ विद्वान होते हैं जो संक्रमण में जो बहुत कुशल होते हैं, जितना अध्यापक कौन होता है? अच्छा अध्यापक वही होता है जो जानते हैं उतना दूसरों को सिखा देते हैं लेकिन वे जानते ही कम आजीवन छात्र रहे। जब तक साँस चलती रहे तब तक सीखने की हैं। . प्रवृत्ति अगर बनी रहेगी तब तक अच्छे अध्यापक हो सकेंगे। ये दोनों प्रकार के विद्वान धुरिप्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं है। आधुनिक युग के महान् उपदेशक, महान् गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस यस्योभयं साधु स शिक्षकाणां, देव ने कहा था, 'जतो दिन बाँची ततो दिन शीखी' (जितने दिन धुरिप्रतिष्ठापयित्य एव ।। जीऊँगा उतने दिन सीखूगा)। यह लगातार जो सीखते रहने की जिसमें ये दोनों गुण हों अर्थात् वह स्वयं ज्ञानी भी हो, और ज्ञान परम्परा है, यह परम्परा विद्या के क्षेत्र को उन्नत मान देती है। कैसे के संक्रमण की कला में भी कुशल हो वही विद्वान धुरिप्रतिष्ठा का, हम विद्या को प्राप्त करें? शिक्षा का मतलब क्या होता है? 'शिक्षा वास्तविक प्रतिष्ठा का अधिकारी होता है। हमारे देश में धुरिप्रतिष्ठा विद्योपादाने', शिक्षा का मतलब होता है विद्या देने की प्रक्रिया। के अधिकारी विद्वान थे, वे जब भिक्षा देते थे, तब हमारे विद्यार्थी 'शिक्षते उपदीयते विद्या यया सा शिक्षा', शिक्षा वह जिससे विद्या आगे बढ़ते थे। आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे धुरिप्रतिष्ठा के प्रदान की जाती है। हमारे देश में विद्या के दो भाग किए गए हैं एक अधिकारी विद्वान हैं लेकिन मेरी अपेक्षा है कि हममें से प्रत्येक पराविद्या, एक अपराविद्या। पराविद्या का मतलब है परमात्म विद्या, शिक्षक इस धुरिप्रतिष्ठा को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो। अध्यात्म विद्या और अपराविद्या माने लौकिक विषयों की विद्या। इन। शिक्षक का यही आदर्श था। आज यह बात आश्चर्यजनक लग दोनों प्रकार की विद्यायों के अर्जन को तपस्या की संज्ञा दी गई है। सकती है, लेकिन हमारे देश का आदर्श शिक्षक डंके की चोट पर एक बार ऋषियों से एक प्रश्न पूछा गया कि सबसे बड़ा तप कौन- अपने विद्यार्थियों से कहता था : सा है? ऋषियों में एक नाकोमौद्गल्य ऋषि थे, उन्होंने कहा : यान्यस्माकं सुचरितानि स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाकोमौद्गल्य: तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि । तद्धितपस् तद्धितप: तद्धितपस् तद्धितपः ।। हमारे देश का शिक्षक कहता था कि 'जो हमारा सुचरित है, विभिन्न ऋषियों ने अलग-अलग तप बताए, लेकिन विद्यार्थियों! केवल उस सुचरित का तुम अनुगमन करना। जो नाकोमौद्गल्य ने कहा कि सबसे बड़ा तप है स्वाध्याय करना और सुचरित से भिन्न है उसका अनुगमन मत करना।' हमारे देश के विद्वत खण्ड/२४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षक की अद्भुत दृष्टि थी। वह कहता था, 'सर्वत्र जयमन्विच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् पराजयम् ।' मनुष्य को सर्वत्र विजय की कामना करनी चाहिए लेकिन मेरा पुत्र मुझको हरा दे, मेरा विद्यार्थी मुझको हरा दे, यह कामना भी भारत का शिक्षक करता था। अगर मेरा विद्यार्थी मुझको पराजित करेगा तो कैसे पराजित करेगा ? ज्ञान की सीमा को जहाँ तक मैने बढ़ाया है जब उससे आगे वह बढ़ा के ले जायेगा, तब मेरी बात में वह कहीं खोट निकालेगा और उसको दूर करेगा, जब मुझसे भी ज्यादा वह ज्ञानी हो जाएगा तब न मुझे पराजित करेगा ? अगर कोई शिष्य किसी गुरु को अपने ज्ञान से पराजित करता है तो गुरु की छाती फूल जाती है। हमारे आदर्श गुरु की चेष्टा होती थी कि हमारे शिष्य हमसे भी योग्य बन जाएँ, यह नहीं कि हम अपने शिष्यों को दबाते रहें। हमारे देश में कहा गया है कि दो प्रकार के गुरु होते हैं। एक प्रकार का गुरु होता है आकाशधर्मी गुरु और दूसरे प्रकार का गुरु होता है शिलाधर्मी गुरु । शिलाधर्मी गुरु कैसा होता है ? आप लोगों ने मैदानों में देखा होगा कि हरी घास के ऊपर अगर कोई एक ईंट रख दे, एक शिला रख दे और एक महीने के बाद उस ईंट को हटाये तो दिखेगा कि ईंट से दबी घास पीली पड़ गई, निस्तेज हो गई, विकलांग हो गई। जो गुरु शिलाधर्मी गुरु के रूप में अपने विद्यार्थियों पर लद जाए और कहे कि मैं जो कहता हूँ वही तुमको मानना पड़ेगा, वही सत्य है, तो वह अपने विद्यार्थियों का विकास नहीं कर सकता। शिलाधर्मी गुरु हमारे यहाँ त्याज्य, हमारे यहाँ निन्द्य माना जाता है। हमारे यहाँ जिस गुरु की आदर्श कल्पना की गई है उस गुरु की संज्ञा आकाशधर्मी है। आकाशधर्मी गुरु कैसा होता है ? आकार चाहता है कि उसके नीचे जो वनस्पतियाँ हैं वे विकसित हो, जिनकी जितनी क्षमता हे वह उतनी विकसित हों घास को , उगने की क्षमता प्रायः सतह तक है और देवदारु की उगने की क्षमता बहुत ऊँची है, बरगद बहुत फैल सकता है। आकाशधर्मी गुरु प्रत्येक शिष्य को प्रकाश देता है, प्रत्येक शिष्य को वायु देता है, प्रत्येक शिष्य को अवकाश देता है बढ़ने का ताकि जिसकी जितनी क्षमता है वह उतनी विकसित भूमिका को अर्जित कर सके। यह आकाशधर्मी गुरु का लक्षण है आकाशधर्मी गुरु शिष्य की क्षमता को पहचानता है। जैसे चिकित्सा रोग की नहीं हो जाती, चिकित्सा रोगी की की जाती है, वैसे विद्या विद्या के लिए नहीं दी जाती विद्या व्यक्ति को दी जाती है। उस व्यक्ति की जो क्षमता है. उस व्यक्ति के जो विशेष गुण हैं, उन विशेष गुणों को कैसे विकसित किया जाए, यह कुशलता जिस गुरु में होती है उसको आकाशधर्मी गुरु कहते हैं। आकाशधर्मी गुरुओं के द्वारा भारतवर्ष बड़ा हुआ है और शिक्षा एक यशस्वी दशक आज भी अगर भारतवर्ष बड़ा होगा तो इन्हीं आकाशधर्मी गुरुओं के द्वारा होगा जो अपने शिष्यों से मतभेद की चिन्ता किए बिना उनको सही रास्ते बताते हुए उनकी प्रवृत्ति के अनुसार उनके विकास की सुविधा देते रहेंगे। शिष्यों की क्षमता के अनुसार उनके विकास की दिशा बताने वाला आकाशधर्मी गुरु हमारा आदर्श होना चाहिए। हम अध्यापकगण यदि आकाशधर्मी गुरु के रूप में जीवन जियें, तब हम अपने शिष्यों को भी अपनी भूमिका पर ला सकेंगे। हमारे कबीर दासजी ने कहा है, पारस में और गुरु में बहुत अन्तर होता है 'पारस पत्थर लोहे को सोना बना सकता है लेकिन गुरु, आकाशधर्मी गुरु शिष्य को भी आकाशधर्मी गुरु बना सकता है।' गुरु की वास्तविक सफलता शिष्य की श्रद्धा अर्जित करने में है। एक बढ़िया श्लोक है : बहव: गुरवः सन्ति शिष्यवित्तापहारक: । दुर्लभः स गुरुलोंक शिष्यचित्तापहारकः ।। > ऐसे तो गुरु बहुत हैं जो शिष्यों के वित्त का अर्थ का अपहरण कर लेते हैं। आजकल हम लोग फीस लेते ही हैं, प्राय: हर विद्यार्थी को फीस देनी पड़ती है तो वित्त का अपहरण करने वाली शिक्षा संस्थाएँ और गुरु बहुत हैं । 'दुर्लभः स गुरुलेकि शिष्यचित्तापहारकः', किन्तु वैसा गुरु दुर्लभ है इस लोक में जो शिष्य के चित्त का अपहरण कर सके, जो शिष्य की श्रद्धा अर्जित कर सके । शिष्य श्रद्धेय के रूप में किसी गुरु को क्या केवल इसलिए स्वीकार कर लेगा कि वह अध्यापक है, वह प्रोफेसर है। ऐसा नहीं होता । केवल पद से सम्मान प्राप्त नहीं होता। शिक्षक में कुछ वैशिष्ट्य होना चाहिए, जिससे शिष्य के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो और वह वैशिष्ट्य जब तक हमारा शिक्षक वर्ग अर्जित करता रहेगा तब तक हमारे विद्यार्थी आगे बढ़ते रहेंगे। हमको इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि अध्यापक के समान ही शिष्य का क्या स्वरूपभूत लक्षण होना चाहिए। शिष्य कैसे ज्ञान प्राप्त करे, इसके बारे में गीता में दो बहुत अच्छी उक्तियाँ कही गईं हैं : तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । शिष्य का आधारभूत लक्षण है ज्ञान प्राप्त करने के लिए अग्रणी होना । शिष्य ज्ञान प्राप्त कर सके, इसके लिए उनको परिप्रश्न करने का अधिकार मिलना चाहिए। परिप्रश्न माने बार-बार प्रश्न, परिप्रश्न माने चारों तरफ से प्रश्न, परिप्रश्न माने जब तक विषय समझ में न आए तब तक प्रश्न करने का अधिकार शिष्यों का है, इसकी स्वीकृति लेकिन परिप्रश्न को सम्पुटित किया गया है, प्रणिपात यानी विनम्रतापूर्वक नमस्कार और सेवा के द्वारा विद्यार्थी अध्यापक से । विद्वत खण्ड / २५ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न करने के अधिकारी हैं, अगर सचमुच उस विषय को वे जानने, समझने की इच्छा रखते हैं, किन्तु उस विषय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें विनम्र होना चाहिए। इस सन्दर्भ में एक अच्छी उक्ति पैये असीस लवैसे जो सीस, लवी रहिये तब ऊँची कहैये । : जब तक विद्यार्थी का सिर श्रद्धा से झुकता नहीं है गुरु के सामने, तब तक वह विद्या अर्जित नहीं कर सकता। साथ ही हमें निश्छल सेवा के द्वारा गुरु को प्रसन्न भी करना चाहिए। इस प्रकार सेवा और प्रणिपात के द्वारा हम अनेकानेक प्रश्न करने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। एक और बात है, एक उक्ति बहुत बार उद्धत की जाती है श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् श्रद्धावान को ज्ञान प्राप्त होता है लेकिन इतनी ही बात आधी बात है पूरी उक्ति है गीता की श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतोन्द्रयः । उस व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है जो अपने गुरु एवं विषय प्रति श्रद्धा तो रखता ही है साथ ही उसको अर्जित करने के लिए तत्पर है, जुटा हुआ है, उसी के प्रति समर्पित है। दूसरी ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। दूसरी ओर उसका ध्यान जाए इसके लिए उसको संयतेन्द्रिय होना चाहिए, अपनी इन्द्रियों पर संयम करना चाहिए। अपनी इन्द्रियों पर संयम करके जब हम अपना पूरा ध्यान अपने अध्येतव्य विषय की ओर लगायेंगे तब हम श्रद्धा के द्वारा ज्ञान अर्जित कर सकेंगे। विद्यार्थियों के लिए एक बहुत अच्छा श्लोक है, याज्ञवल्क्यीय शिक्षा का उसका अभिप्राय यह है कि हम अपनी भूमिका को सतत नापते रहें कि हम कहाँ खड़े हैं। विद्या - बुद्धि की कौन-सी भूमिका है जिस पर अभी हम खड़े हैं और जिससे अग्रसर होना चाहते हैं, उच्चतर भूमिका पर जाना चाहते हैं। यह अद्भुत श्लोक है : शुश्रुषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहार्थविज्ञानं तत्वज्ञानं च धी गुणाः ।। धीमाने बुद्धि । बुद्धि के सात गुण हैं अर्थात् बुद्धि की सात भूमिकाएँ हैं। हम सब विचार करें कि हम किस भूमिका पर खड़े हैं। बुद्धि की पहली भूमिका है शुश्रूषा शुश्रूषा माने श्रोतुमिच्छा। श्रोतुमिच्छा माने जानने की इच्छा, सुनने की इच्छा। पुराकाल का यह श्लोक है। पुराकाल में तो छपी हुई किताबें होती नहीं थीं, 'हस्तलिखित ग्रन्थ होते थे उनकी संख्या भी बहुत कम थी इसलिए गुरु के निकट जाकर पूछा जाता था कोई बात जानने की इच्छा हुई तो उसे कहते थे शुश्रुषा । सुनने की, जानने की इच्छा। यदि इच्छा के स्तर पर ही रुक गई तो समझिए कि बुद्धि बहुत मंद है । शुश्रुषा श्रवणं चैव बुद्धि की दूसरी भूमिका है जानने की चेष्टा, जानने की विद्वत खण्ड / २६ क्रिया श्रवणम् का मतलब हुआ कि अपनी जिज्ञासा को लेकर, अपने प्रश्न को लेकर किसी योग्य अधिकारी गुरु के पास गये उनसे विनम्रतापूर्वक प्रश्न किया और उन्होंने जो उत्तर दिया, जो उन्होंने समझाया, उसको सुना। श्रवणम् का मतलब हुआ जानने की, ज्ञान अर्जित करने की चेष्टा । आज हमारे मन में शुश्रुषा हो तो हम इनसाइक्लोपीडिया से समझ सकते हैं, हम इन्टरनेट से समझ सकते हैं लेकिन आधारभूत बात यह है कि जानने की इच्छा होनी चाहिए और जानने की इच्छा के बाद जानने की क्रिया होनी चाहिए। श्रवणम् माने जानने की क्रिया जानने के लिए अध्यापक के पास गए, आपने अपने अध्यापक से सवाल किया, उनका बताया हुआ उत्तर सुना, लेकिन समझ में नहीं आया तो मतलब हुआ कि बुद्धि मन्द है । बुद्धि की तीसरी भूमिका है ग्रहणम् । जो कुछ आपको बताया गया वह आपकी समझ में आना चाहिए। वह आपको समझ में आया कि नहीं, अगर समझ में आया तो आप बुद्धि की तीसरी भूमिका पर हैं और समझ में नहीं आया तो आपकी बुद्धि मंद है । बुद्धि की चौथी भूमिका है धारणम्। आपने किसी विद्वान का व्याख्यान सुना, घर में आकर कहा, आज का व्याख्यान बहुत अच्छा था, वाह-वाह, वाह-वाह कितना अच्छा व्याख्यान था आज का। किसी ने पूछा क्या कहा गया था व्याख्यान में, उत्तर दिया, भाई, यह तो याद नहीं, तो यह बुद्धि की मन्दता है । बुद्धि की चौथी भूमिक धारणम् अर्थात् जो हमने सुना जिसको हमने समझा उसको हम धारण किया कि नहीं किया अगर हमको वह याद नहीं है तो हमारी बुद्धि मन्द है हमको बुद्धि की चौथी भूमिका पर जाना चाहिए कि हम पढ़ें उसको स्मरण रख सकें, धारण कर सकें। ऊहापोहार्थविज्ञानाम् । 'गंगा गए गंगादास, यमुना गए यमुनादास' ऐसा नहीं होना चाहिए। इन्होंने कहा यह भी सही, उन्होंने कहा वह भी सही, ऐसा नहीं होना चाहिए जो विषय सुना है, जो विषय समझा है या जो विषय पढ़ा है उसके ऊपर ऊहापोह किया कि नहीं, विचार किया कि नहीं, वह सही है तो क्यों सही है, वह गलत है तो क्यों गलत है। यह जो सही और गलत के बारे में विश्लेषण करना, वितर्क करना, विवेचन करना है यह बुद्धि की पाँचवीं भूमिका है। अन्धश्रद्धा की बात भारतीय दृष्टि में नहीं है। ऊहापोह करना चाहिए, विचार करना चाहिए और विचार करने के बाद जो सही लगे उसे स्वीकार करना चाहिए, जो गलत लगे उसे छोड़ देना चाहिए और जो कुछ सीखा है उस सीखे हुए को काम में लाना चाहिए। 'अर्थविज्ञानम्' यह बुद्धि की छठी भूमिका है। जो भी हमने सीखा है, जो हमने ज्ञान प्राप्त किया है वह अगर काम में नहीं आया तो किस काम का मीमांसा का सूत्र है, 'सर्वमपि ज्ञानं कर्मपरम्' अर्थात् शिक्षा एक यशस्वी दशक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौखा हुआ ज्ञान, हमारे आचरण में, हमारे कर्म में उतरना चाहिए। हमको सही दिशा देने वाला ज्ञान हमसे ठीक-ठीक काम करवाए। वेदान्त ने इसमें एक अपवाद बताया है, 'ऋते आत्मज्ञानात्' अर्थात् आत्मज्ञान को छोड़कर, आत्मज्ञान के बाद कर्म अनिवार्य नहीं रहता। किन्तु अभी तो हम लौकिक ज्ञान की बात कर रहे हैं। तो अर्थ विज्ञानम् अर्थात् ज्ञान का उपयोग हो जैसे कोई अनुसंधान हुआ तो उस अनुसंधान के द्वारा, विविध तकनीकों के द्वारा हम कैसे यंत्र बना सकते हैं, कैसे उसका उपयोग समस्याओं का समाधान करने में कर सकते हैं, यह अर्थ विज्ञान आना चाहिए। यह बुद्धि की छठी भूमिका है। तत्वज्ञानं च धी गुणा; और तत्त्वतः किसी विषय को समझ लेना, उस विषय को पूर्णत: समझ लेना है, जैसे मिट्टी को तत्वत: समझ लिया तो मिट्टी से बनी हुई सभी चीजों को समझ लिया, सोने को तत्वतः समझ लिया तो सोने से बनी हुई सब चीजों को समझ लिया किसी चीज का तात्विक ज्ञान प्राप्त कर लेना उस विषय की समझदारी की सातवीं भूमिका है। हमारे विद्यार्थियों को सातवीं भूमिका तक जाने की तैयारी करनी चाहिए। बड़ा काम कैसे होता है ? बड़ा काम केवल इच्छा से नहीं होता। बड़ा काम उस बड़ी इच्छा को पूर्ण करने के लिए अपने जीवन को होम देने से होता है। जीवन की सारी शक्तियों को एकाग्र करके अपने विषय को उपलब्ध करने के लिए जब हम अपने आप को समर्पित कर देंगे, तब बड़ा काम कर सकेंगे। अनुसंधान या शोध कार्य के लिए भी यह स्थापना सत्य है। ज्ञान का प्रदर्शन कर सस्ती वाहवाही लूट लेना अलग बात है और किसी विषय की तह में जाकर उसकी उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाना, उस विषय के ज्ञान को आगे बढ़ाना, बिल्कुल दूसरी बात है। नवीन शोधों के द्वारा ज्ञान की समृद्धि कौन कर सकता है, कैसे कर सकता है, इस पर एक बहुत ही अच्छा श्लोक है : तरन्तो दृश्यन्ते बहव इह गंभीर सरसि, सुसाराभ्यां दोर्भ्यां हृदि विदधतः कौतुकशतम् । प्रविश्यान्तलन किमपि सुविविच्योद्धरति यश्शु चिरं रुद्धश्वासः स खलु पुनरेतेषु विरलः । अर्थात् इस गहरे और विशाल ज्ञान सरोवर में तैरते हुए बहुत 'से तैराक अपनी पुष्ट भुजाओं से नाना प्रकार के कौतुक करते हुए दीख पड़ते हैं किन्तु इन सबमें वह (विद्वान) विरला ही है जो देर तक साँस रोक कर गहरे डूब कर गंभीर विवेचन के बाद किसी दुर्लभ रत्न का उद्धार कर लाता है। आत्मप्रदर्शन विमुख, गंभीर, निष्ठापूर्ण ऐकान्तिक वस्तुनिष्ठ विद्या साधना हो मौलिक शोधपरक उपलब्धि का आधार है, यह सत्य इस श्लोक में बहुत अच्छी तरह शिक्षा - एक यशस्वी दशक निरूपित किया गया है। अभिनवगुप्त ने अपूर्व वस्तु का निर्माण करने में समर्थ प्रज्ञा को प्रतिभा कहा है, 'अपूर्ववस्तुनिर्माणक्षमा प्रज्ञा प्रतिभा'। हमारे शोधार्थी प्रतिभाशाली हो और नई-नई शोधों, नए-नए आविष्कारों द्वारा ज्ञान की परिधि को बढ़ाते रहें। हमारी परम्परा यह भी मानती है कि अपनी मान्यताओं की हमें बार-बार जाँच-पड़ताल करनी चाहिए इसके लिए सही रास्ता विद्वानों से विचार-विमर्श करते रहना 'वादे वादे जायते तत्वबोध: इस दिशा में हमारा मार्ग निर्देशक सूत्र है। कई बार ऊँचा पद प्राप्त कर लेने के बाद प्राध्यापकगण विचार-विमर्श से कतराने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यदि उनकी बात गलत साबित हो जाएगी तो उन्हें अपमानित होना पड़ेगा। अतः विवाद से... शास्त्रों या विचार-विमर्श से वे कन्नी काटते हैं। कालिदास ने इस प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए एक मार्मिक श्लोक लिखा है ... O लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोः तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम् । यस्यागमः केवल जीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजे वदन्ति ॥ अर्थात् सम्मानजनक पद प्राप्त हो जाने के बाद जो विवादभीरु, आत्मविश्वासहीनता के कारण दूसरों के द्वारा की गई निन्दा को सहता रहता है, जिसका ज्ञान केवल जीविकोपार्जन के लिए ही होता है वह तो ज्ञान बेचने वाला बनिया है, विद्वान नहीं । विद्वान सब समय विवाद हो करता रहे, इसका अर्थ यह भी नहीं। इसका अभिप्राय यही है कि अपनी मान्यता विचार की कसौटी पर खरी उतरती रहे. इसकी ओर सजग रहना चाहिए। अन्यथा विद्वत्ता तेजस्विनी नहीं हो सकती। हमारी पारम्परिक प्रार्थना यही है कि हमारा अधीत (हमारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान) तेजस्वी हो... 'तेजस्विनावधीतमस्तु' यह तेजस्विता खंडित तभी होती है जब हम अपना ज्ञान बेचने लगते हैं। जायसी की हृदयस्पर्शिणी उक्ति है, 'पंडित होई सो हाट न चढ़ा। यहीं विकाइ भूलि गा पढ़ा मेरी मंगलकामना है कि हमारे तेजस्वी विद्वान प्राध्यापक आत्मविक्रय की स्थिति से बचें। एक बात और ज्ञान प्राप्त करने की तेजस्वी परम्परा यह मानती थी कि केवल एक विषय का ज्ञान रखने वाले वास्तव में ज्ञानी नहीं होते। उनकी मान्यता थी, 'एक शास्त्रं अधीयान: न चिंचिदपि शास्त्रं विजानाति । अर्थात् एक ही शास्त्र को जानने वाला कुछ भी शास्त्र नहीं जानता । सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए बहुत से शास्त्र जानने चाहिए, भले ही विशेषज्ञता एक शास्त्र की हो। क्योंकि सभी शास्त्र, सभी विषय परस्पर सम्बद्ध हैं। एक शास्त्र की ग्रन्थि दूसरे शास्त्र के प्रकाश से सुलझाई जा सकती हैं अतः विद्वान को बहुश्रुत होना चाहिए। | विद्वत खण्ड / २७ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय शैक्षणिक दृष्टि यह रही है कि हम तो अपने जीवन की सार्थकता के लिए पढ़ रहे हैं, हम तो अपने जीवन में ऋषि ऋण उतारने के लिए जो कुछ हमने बड़ों से सीखा है उसको सामान्य जितेन्द्रियता जनता तक पहुँचा देने के लिए काम कर रहे हैं। अत: हमारी चिन्ता जब तक जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जब तक नासिका होनी चाहिए कि कैसे हम उच्चतम ज्ञान-विज्ञान भारतीय भाषाओं में सुगंध चाहती है, जब तक कान वारांगना के गायन और वाद्य चाहते ले आएँ, कैसे हम उच्चतम विद्या को निम्नतम में ले आएँ, कैसे हैं, जब तक आँखे वनोपवन देखने का लक्ष्य रखती हैं, जब तक हम उच्चतम विद्या को निम्नतम वर्ग तक पहुंचाने की धारावाहिकता त्वचा सुगंधीलेपन चाहती है, तब तक यह मनुष्य नीरोगी, निग्रंथ, उत्पन्न करें। निष्परिग्रही, निरारंभी और ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। मन को वश मैं यह भी मानता हूँ कि हमारे देश के पुनर्निर्माण का जो करना यह सर्वोत्तम है। इससे सभी इन्द्रियाँ वश में की जा सकती हैं। महायज्ञ चल रहा है, उसकी वास्तविक आधारभूमि विश्वविद्यालय / मन को जीतना बहुत-बहुत दुष्कर है। एक समय में असंख्यात योजन हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में जैसे प्राध्यापक, प्रशासक रहेंगे, हम वैसे चलनेवाला अश्व यह मन है। इसे थकाना बहुत दुष्कर है। इसकी गति ही पाठ्यक्रम रखेंगे, वैसा ही वातावरण बनाएँगे, वैसे ही विद्यार्थी ___ चपल और पकड़ में न आ सकनेवाली है। महाज्ञानियों ने ज्ञानरूपी उत्पन्न करेंगे। स्वाभवत: देश वैसा ही बनेगा। अगर हम अपने राष्ट्र लगाम से इसे स्तंभित करके सब पर विजय प्राप्त की है। को महान् बनाना चाहते हैं तो अपनी गौरवपूर्ण परम्परा से प्रेरणा लेते उत्तराध्ययनसूत्र में नमिराज महर्षि ने शकेन्द्र से ऐसा कहा कि हुए आगामी सहस्त्राब्दी में आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने दस लाख सुभटों को जीतनेवाले कई पड़े हैं, परन्त स्वात्मा को में समर्थ प्राध्यापक नवीनतम ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध पाठ्यक्रम और जीतनेवाले बहत दुर्लभ हैं, और वे दस लाख सभटों को जीतनेवालों परिवेश की संयोजना हमें करनी होगी जिससे सभी चुनौतियों का की अपेक्षा अति उत्तम हैं। समुचित प्रत्युत्तर देने में समर्थ विद्यार्थियों का निर्माण हम कर सकें। मन ही सर्वोपाधि की जन्मदात्री भूमिका है। मन ही बंध और (कानपुर विश्वविद्यालय में दीक्षांत भाषण) मोक्ष का कारण है। मन ही सर्व संसार की मोहिनीरूप है। यह वश हो जाने पर आत्मस्वरूप को पाना लेशमात्र दुष्कर नहीं है। मन से इन्द्रियों की लोलुपता है। भोजन, वाद्य, सुगंध, स्त्री का निरीक्षण, सुन्दर विलेपन यह सब मन ही माँगता है। इस मोहिनी के कारण यह धर्म को याद तक नहीं करने देता। याद आने के बाद सावधान नहीं होने देता। सावधान होने के बाद पतित करने में प्रवृत्त होता है अर्थात् लग जाता है। इसमें सफल नहीं होता तो सावधानी में कुछ न्यूनता पहुँचाता है। जो इस न्यूनता को भी न पाकर अडिग रहकर मन को जीतते हैं, वे सर्वसिद्धि को प्राप्त करते हैं। मन अकस्मात् किसी से ही जीता जा सकता है, नहीं तो अभ्यास करके ही जीता जाता है। यह अभ्यास निग्रंथता में बहुत हो सकता है, फिर भी गृहस्थाश्रम में हम सामान्य परिचय करना चाहें तो उसका मुख्य मार्ग यह है कि यह जो दुरिच्छा करे उसे भूल जायें, वैसा न करें। यह जब शब्द, स्पर्श आदि विलास की इच्छा करे तब इसे न दें। संक्षेप में, हम इससे प्रेरित न हों, परन्तु हम इसे प्रेरित करें और वह भी मोक्षमार्ग में। जितेन्द्रियता के बिना सर्व प्रकार की उपाधि खड़ी ही रहती है। त्यागने पर भी न त्यागने जैसा हो जाता है, लोक-लज्जा से उसे निभाना पड़ता है। इसलिए अभ्यास करके भी मन को जीतकर स्वाधीनता में लाकर अवश्य आत्महित करना चाहिये। विद्वत खण्ड/२८ शिक्षा-एक यशस्वी दशक