Book Title: Shiksha ka Bharatiya Adarsh
Author(s): Vishnukant Shastri
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

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Page 3
________________ शिक्षक की अद्भुत दृष्टि थी। वह कहता था, 'सर्वत्र जयमन्विच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् पराजयम् ।' मनुष्य को सर्वत्र विजय की कामना करनी चाहिए लेकिन मेरा पुत्र मुझको हरा दे, मेरा विद्यार्थी मुझको हरा दे, यह कामना भी भारत का शिक्षक करता था। अगर मेरा विद्यार्थी मुझको पराजित करेगा तो कैसे पराजित करेगा ? ज्ञान की सीमा को जहाँ तक मैने बढ़ाया है जब उससे आगे वह बढ़ा के ले जायेगा, तब मेरी बात में वह कहीं खोट निकालेगा और उसको दूर करेगा, जब मुझसे भी ज्यादा वह ज्ञानी हो जाएगा तब न मुझे पराजित करेगा ? अगर कोई शिष्य किसी गुरु को अपने ज्ञान से पराजित करता है तो गुरु की छाती फूल जाती है। हमारे आदर्श गुरु की चेष्टा होती थी कि हमारे शिष्य हमसे भी योग्य बन जाएँ, यह नहीं कि हम अपने शिष्यों को दबाते रहें। हमारे देश में कहा गया है कि दो प्रकार के गुरु होते हैं। एक प्रकार का गुरु होता है आकाशधर्मी गुरु और दूसरे प्रकार का गुरु होता है शिलाधर्मी गुरु । शिलाधर्मी गुरु कैसा होता है ? आप लोगों ने मैदानों में देखा होगा कि हरी घास के ऊपर अगर कोई एक ईंट रख दे, एक शिला रख दे और एक महीने के बाद उस ईंट को हटाये तो दिखेगा कि ईंट से दबी घास पीली पड़ गई, निस्तेज हो गई, विकलांग हो गई। जो गुरु शिलाधर्मी गुरु के रूप में अपने विद्यार्थियों पर लद जाए और कहे कि मैं जो कहता हूँ वही तुमको मानना पड़ेगा, वही सत्य है, तो वह अपने विद्यार्थियों का विकास नहीं कर सकता। शिलाधर्मी गुरु हमारे यहाँ त्याज्य, हमारे यहाँ निन्द्य माना जाता है। हमारे यहाँ जिस गुरु की आदर्श कल्पना की गई है उस गुरु की संज्ञा आकाशधर्मी है। आकाशधर्मी गुरु कैसा होता है ? आकार चाहता है कि उसके नीचे जो वनस्पतियाँ हैं वे विकसित हो, जिनकी जितनी क्षमता हे वह उतनी विकसित हों घास को , उगने की क्षमता प्रायः सतह तक है और देवदारु की उगने की क्षमता बहुत ऊँची है, बरगद बहुत फैल सकता है। आकाशधर्मी गुरु प्रत्येक शिष्य को प्रकाश देता है, प्रत्येक शिष्य को वायु देता है, प्रत्येक शिष्य को अवकाश देता है बढ़ने का ताकि जिसकी जितनी क्षमता है वह उतनी विकसित भूमिका को अर्जित कर सके। यह आकाशधर्मी गुरु का लक्षण है आकाशधर्मी गुरु शिष्य की क्षमता को पहचानता है। जैसे चिकित्सा रोग की नहीं हो जाती, चिकित्सा रोगी की की जाती है, वैसे विद्या विद्या के लिए नहीं दी जाती विद्या व्यक्ति को दी जाती है। उस व्यक्ति की जो क्षमता है. उस व्यक्ति के जो विशेष गुण हैं, उन विशेष गुणों को कैसे विकसित किया जाए, यह कुशलता जिस गुरु में होती है उसको आकाशधर्मी गुरु कहते हैं। आकाशधर्मी गुरुओं के द्वारा भारतवर्ष बड़ा हुआ है और शिक्षा एक यशस्वी दशक Jain Education International आज भी अगर भारतवर्ष बड़ा होगा तो इन्हीं आकाशधर्मी गुरुओं के द्वारा होगा जो अपने शिष्यों से मतभेद की चिन्ता किए बिना उनको सही रास्ते बताते हुए उनकी प्रवृत्ति के अनुसार उनके विकास की सुविधा देते रहेंगे। शिष्यों की क्षमता के अनुसार उनके विकास की दिशा बताने वाला आकाशधर्मी गुरु हमारा आदर्श होना चाहिए। हम अध्यापकगण यदि आकाशधर्मी गुरु के रूप में जीवन जियें, तब हम अपने शिष्यों को भी अपनी भूमिका पर ला सकेंगे। हमारे कबीर दासजी ने कहा है, पारस में और गुरु में बहुत अन्तर होता है 'पारस पत्थर लोहे को सोना बना सकता है लेकिन गुरु, आकाशधर्मी गुरु शिष्य को भी आकाशधर्मी गुरु बना सकता है।' गुरु की वास्तविक सफलता शिष्य की श्रद्धा अर्जित करने में है। एक बढ़िया श्लोक है : बहव: गुरवः सन्ति शिष्यवित्तापहारक: । दुर्लभः स गुरुलोंक शिष्यचित्तापहारकः ।। > ऐसे तो गुरु बहुत हैं जो शिष्यों के वित्त का अर्थ का अपहरण कर लेते हैं। आजकल हम लोग फीस लेते ही हैं, प्राय: हर विद्यार्थी को फीस देनी पड़ती है तो वित्त का अपहरण करने वाली शिक्षा संस्थाएँ और गुरु बहुत हैं । 'दुर्लभः स गुरुलेकि शिष्यचित्तापहारकः', किन्तु वैसा गुरु दुर्लभ है इस लोक में जो शिष्य के चित्त का अपहरण कर सके, जो शिष्य की श्रद्धा अर्जित कर सके । शिष्य श्रद्धेय के रूप में किसी गुरु को क्या केवल इसलिए स्वीकार कर लेगा कि वह अध्यापक है, वह प्रोफेसर है। ऐसा नहीं होता । केवल पद से सम्मान प्राप्त नहीं होता। शिक्षक में कुछ वैशिष्ट्य होना चाहिए, जिससे शिष्य के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो और वह वैशिष्ट्य जब तक हमारा शिक्षक वर्ग अर्जित करता रहेगा तब तक हमारे विद्यार्थी आगे बढ़ते रहेंगे। हमको इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि अध्यापक के समान ही शिष्य का क्या स्वरूपभूत लक्षण होना चाहिए। शिष्य कैसे ज्ञान प्राप्त करे, इसके बारे में गीता में दो बहुत अच्छी उक्तियाँ कही गईं हैं : तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । शिष्य का आधारभूत लक्षण है ज्ञान प्राप्त करने के लिए अग्रणी होना । शिष्य ज्ञान प्राप्त कर सके, इसके लिए उनको परिप्रश्न करने का अधिकार मिलना चाहिए। परिप्रश्न माने बार-बार प्रश्न, परिप्रश्न माने चारों तरफ से प्रश्न, परिप्रश्न माने जब तक विषय समझ में न आए तब तक प्रश्न करने का अधिकार शिष्यों का है, इसकी स्वीकृति लेकिन परिप्रश्न को सम्पुटित किया गया है, प्रणिपात यानी विनम्रतापूर्वक नमस्कार और सेवा के द्वारा विद्यार्थी अध्यापक से । For Private & Personal Use Only विद्वत खण्ड / २५ www.jainelibrary.org

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