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शत्रुंजय मादात्म्य.
सुरासुरनाथस्य, संशयापनयाय यः ॥ कंपयत्रिधा वीरः, श्री विरः श्रेयसेऽस्तुवः ॥ ५ ॥
अर्थः- इंद्रनी शंकाने दूर करवा माटे जेणे मेरु पर्वतने पण कंपाव्यो बे. तथा त्रण प्रकारे शुरवीर एवा श्री वीरप्रभु तमारा कल्याणनेथें था.
श्वर प्रमुख जिनोनुं तथा पुंडरिक प्रमुख मुनिर्जनुं तथा शासनदेवीनुं ध्यान करीने या शत्रुंजयमाहात्म्यनुं हुं वर्णन करूं हुँ. श्री युगादि जिनेश्वरनी यज्ञाथी पुंडरिक गणधरे सवा लाख श्लोकनां प्रमाणवालुं, तथा नाना प्रकारनां श्राश्चर्यवालुं, तथा सघला तत्वोथी संपूर्ण, तथा देवो पण पूजेल एवं शत्रुंजयमाहात्म्यनुं वर्णन, जगतनां हित माटे पूर्वे बनाव्यं हतुं तेमांथी मथन करीने श्रीवीरप्रभुनी आज्ञाथी सुधर्मास्वामी ए, लोकोने अल्प श्रायुष्यवाला जाणीने ते माहात्म्य संपथी चोविस हजार श्लोकनुं बनाव्युं. तेमांथी पण सारने उधरीने, स्याद्वादवाणीमय एवं ते माहात्म्य, अष्टांग योगमां निपुण, तथा वि
श्रादिकमां निस्पृही, तथा नाना प्रकारनी लब्धिवाला, तथा राजगनां मंडन रूप, तथा उत्तम चारित्र्थी पवित्र अंगवाला, अने वैराग्यना समुद्र सरखा, अने, सर्व विद्यामां निपुण एवा श्री धनेश्वर सूए, बौद्धोने मद रहित करतां थकां शत्रुंजयनो उद्धार करनार, तथा ढार राजार्जुना स्वामी, तथा सुराष्ट्र देशनां राजा, एवा श्री शीलादित्यनां श्राग्रहथी वलजी नगरमां बनाव्युं; माटे हे लोको ! ते माहात्म्य तमो जक्तिपूर्वक सांजलो ?
हे नव्य लोको! तप, जप, दान विगेरेनुं शुं प्रयोजन बे ? पण केवल शत्रुंजयमाहात्म्यज सांजलो ? वली धर्मनी वांबाथी सघली दिशाJai जमवानुं शुं प्रयोजन बे ? फक्त शत्रुंजय तीर्थनी बायानो तमो स्पर्श करो ? वल्ली या मनुष्य जन्म पामीने, तथा अनेक शास्त्रो सांजलीने पण, या शत्रुंजयमाहात्म्य सांजलीने जन्म सफल करो ? वली जो तत्वने जाणवानी वा होय, अथवा धर्ममां वास्तविक बुद्धि होय, तो बीजुं सघलुं तजीने उत्तम गिरिवरनो आश्रय करो ? या शत
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