Book Title: Shastriya Vichar Charcha Diksha Kalin Kesh Loch Kaha Gayab Ho Gaya Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 6
________________ यह प्राचीन परम्परा : लुप्त कैसे हो गई? प्रश्न है, यह परम्परा लुप्त कैसे हो गई? दीक्षा कालीन केश-लोच कैसे गायब हो गया? और, कैसे उसकी जगह नाई के द्वारा मूल से ही पूर्णतया केश-कर्तन ने ले ली? पूरा-का-पूरा सिर मुंडा कर दो-चार बाल रखना और गुरु के द्वारा उनके लोच का प्रदर्शन- दिखावा करना, यह गलत परम्परा कैसे चालू हो गई? बात यह है, भारतवर्ष का मध्यकालीन युग अन्धकार पूर्ण रहा है। जैन-परम्परा भी इस अन्धकार से अलिप्त नहीं रह सकी। धार्मिक तेज जब क्षीण हो जाता है, तब प्रायः ऐसा ही हुआ करता है। तत्कालीन स्थिति, जो 'संघ-पट्टक' आदि ग्रन्थों में उल्लिखित है, उससे पता चलता है कि छोटे-छोटे बच्चों को, जिन्हें यह भी पता नहीं कि वैराग्य किस चिड़िया का नाम है, दीक्षित किया जाता था। अभाव-ग्रस्त दरिद्र लोग, अच्छे रहन-सहन के प्रलोभन पर, साधु बना लिए जाते थे। अधिकतर दीक्षाएँ सेवा लेने और वंश-परंपरा चलाने की भावना से दी जाती थी। एक बार नाई से सिर मुंडवा कर दीक्षित हो गए कि फिर अन्दर से जैसे-तैसे लोच की बात होती रहती थी। गुरु, चेलों की गीली आँखों में सब-कुछ हो सकता था। प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष में गए कि सब झंझट समाप्त। दूसरों से लोच कराने का मूल भी इसी स्थिति में है। साधक के लिए स्वयं अपने हाथों से लोच करना, प्रथम उत्सर्ग पक्ष है। दूसरों से लोच कराना अपवाद पक्ष है, जो हाथ आदि अंगों की विकृति विशेष में अथवा अन्य किसी विशेष गाढ़ागाढ़ परिस्थिति में विहित है। बिना कारण केवल सुविधा की दृष्टि से, दूसरे भिक्षु से लोच कराना अपवाद नहीं है। अत: वह शास्त्र-विहित भी नहीं है। स्वयं अपने हाथों से लोच करने में देर लगती है, अतः दर्द की मात्रा लम्बी होती है। बस, दूसरों से लोच करा लिया जाए, ताकि जल्दी ही लोच की झंझट समाप्त हो जए। आप देखते हैं, कुछ सन्त दर्द कम करने की मनोवृत्ति से लोच कराने का मुहूर्त देखते हैं, स्तोत्र का पाठ एवं मन्त्र जपते हैं, लोच करने में किसका हलका और नम हाथ है, यह भी तलाशा जाता है, घी आदि द्रव्य भी लगाए जाते हैं। यह सब केश-लोच के दर्द से बचने के उपक्रम हैं, जो मध्य-युग से चले आ रहे हैं। कोई भी सहृदय विचारक देख सकता है, केश-लोच की यह कैसी दुःस्थिति है। मेरे विचार में यही दुर्बल मना साधकों का कारण था कि दीक्षा-कालीन केश-लोच समाप्त हो गया और उसके स्थान में वर्तमान परम्परा नाई से सिर मुंडवाने की परम्परा चालू हो गई। 158 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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