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शास्त्रीय विचार-चर्चा
दीक्षाकालीन केशलोच : कहाँ गायब हो गया
"पर्युषण और केश-लोच कब और क्यों?" शीर्षक से लिखे चिन्तन प्रधान लेख में केश-लोच सम्बन्धी सन्दर्भ में मैंने लिखा था-"जैन श्रमणों के क्रिया-काण्डों में केश-लोच एक कठोर क्रिया-काण्ड है। अपने हाथों से अपने सिर के बालों को उखाड़ डालना, एक असाधारण साहस, धैर्य, एवं सहिष्णुता की बात है। यह प्रक्रिया देह-भाव से ऊपर उठने की, तितिक्षा की, कष्ट-सहन की चरम प्रक्रिया है। ..... जैन साधक के लिए केश-लोच बाह्य तप है, परन्तु वह समभाव, कष्ट-सहिष्णुता, धैर्य, अनाकुलता, अहिंसा एवं स्वतंत्र जीवन आदि रूप आभ्यान्तर-तप के परीक्षण की भी एक कसौटी है......"
वस्तुतः केश-लोच एक उग्र तपः साधना है। उत्तराध्ययन के अनुसार "वह दारुण है।" सूत्र कृतांग सूत्र में कहा है-“अनेक भिक्षु केश-लोच से संतप्त हो जाते हैं।" केश-लोच : कब, कौन, कितनी बार करे
प्राचीन काल का जिन-कल्पी मुनि प्रतिदिन केश-लोच करता था। स्थविर-कल्पी मुनि को भी चार-चार महीने के अनन्तर वर्ष में तीन बार लोच करना चाहिए। वर्षाकाल में तरुण भिक्षुओं को भी प्रतिदिन लोच करना होता है। जराजर्जर शरीर एवं नेत्र-शक्ति से क्षीण वृद्ध साधुओं को छह-छह महीने में और यदि साधु अधिक वृद्ध हों, तो वर्ष में एक बार वर्षाकाल के प्रारंभ में, लोच करना आवश्यक है। केश-लोच का अपवाद
यह सब वर्णन उत्सर्ग का है, अपवाद की स्थिति में तो इसमें आवश्यक हेर-फेर हो सकता है। सिर-रोग, मन्द-चक्षु, ग्लान आदि की विशेष परिस्थिति में लोच करना अनिवार्य नहीं है। यह केश-लोच का अपवाद नया नहीं है। कल्पसूत्र,
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निशीथ भाष्य आदि प्राचीन-से-प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख है।' केश-लोच : तब और अब
मूल आगम साहित्य में केश-लोच का वर्णन है, परन्तु वह कब और कितनी बार करना चाहिए, ऐसा विधान रूप में कोई उल्लेख नहीं है। वर्ष में तीन बार, दो बार एवं एक बार तथा वर्षावास में प्रतिदिन आदि लोच करने का यह सब वर्णन प्राचीन भाष्यों, चूर्णि एवं टीकाओं में है। लोच करने का विधि रूप से वर्णन सिर्फ कल्पसूत्र में है। वर्षा काल में प्रतिदिन तथा वर्ष में तीन बार लोच करने की परम्परा कब और क्यों लुप्त हुई? यह विचारणीय है। तरुण भिक्षु के लिए तो वर्ष में तीन बार और वर्षाकाल में प्रतिदिन लोच करना अनिवार्य रहा है। आज के तरुण एवं समर्थ भिक्षु, ऐसा क्यों नहीं करते? क्या वे सभी सुखशीलया हो गए हैं? इसका समुचित उत्तर है किसी आगमाभ्यासी के पास? केश-लोच की परम्परा बदलती-बदलती आज कहाँ और किस रूप में पहुँच गई है, यह किसी से छुपा नहीं है? वृद्ध और अशक्त भिक्षुओं की केश-लोच सम्बन्धी छूट का, आज के तरुण और समर्थ भिक्षु भी किस प्रकार प्राचीन परम्परा-विरुद्ध खुला उपयोग कर रहे हैं? यह सबके सामने है। इसके लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा है क्या? केश-लोच : भौतिक हेतुवाद पर आधारित नहीं है
केश-लोच जैन-साधना की एक अध्यात्म-भावना प्रधान स्वयं प्रेरित क्रिया है। वह साधक की आन्तरिक तितिक्षा का एक उत्कृष्ट मान दण्ड है। वह अन्तर-विवेक के प्रकाश में सहज-भाव से करने जैसी साधना है। वह जनता में प्रतिष्ठा पाने या साधु संस्था की शोभा बढ़ाने आदि भौतिक वासनाओं की पूर्ति हेतु नहीं है। आत्म-रश्मि (मासिक पत्र) 20 अगस्त 1970 का यह कथन तो बहुत नीचे स्तर का है-"समाज से भोजन, वस्त्र , मकान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करता है, तब उसे (साधु को) केश-लोच की प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए।" केश-लोच के लिए यह लोकैषणा का हेतुवाद जैन धर्म से मेल नहीं खाता।6 यह जो जैन-साधना के मूल्य को बिल्कुल गिरा देता है। जो उक्त दृष्टि से बिना अन्तर्-जागरण के लोचादि बाह्यक्रिया करता है, वह साधु ही नहीं है। साधक की अन्तरात्मा जगे, वह देह-बुद्धि के निम्न स्तर से उँचा उठे, तभी उक्त
क्रिया-काण्डों की सार्थकता है। अन्यथा लोकैषणा के चक्कर में तो कुछ साधक __154 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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केश-लोच से बढ़कर भी अत्यन्त घोर देह-पीड़न करते देखे गए हैं, परन्तु उसका आध्यात्मिक मूल्य क्या है? कुछ भी तो नहीं
__ “जन-मन-रंजन धर्म, मोल न एक छदाम"
क्या समाज ऐसे भिक्षुओं से अपरिचित है, जो बाहर में बराबर समय पर केश-लोच करते रहते हैं और अन्दर में मन चाहे गुलछर्रे उड़ाते हैं। साधुत्व तो क्या, नैतिक जीवन भी उनका ठीक नहीं होता। और, कुछ तो ऐसे भी हैं, जो दाढ़ी आदि का लोच श्रृंगार की दृष्टि से भी करते रहते हैं। उन्हें ठोड़ी पर बढ़े हुए बाल अच्छे नहीं लगते हैं। अतः दाढ़ी का लोच जल्दी-जल्दी किया जाता है। क्या, ऐसे लोगों का केश-लोच जैन-साधना की कोटि में आता है? नहीं आता है। बाह्य तप केवल बाह्य नहीं है, उसका कोई भी बाह्य हेतु नहीं है। वह तो अन्तरंग-तप की अभिवृद्धि के लिए होता है-तभी वह तप है, अन्यथा नहीं
"बाह्यं तपः परम दुश्वरमाचरस्त्वम्।
आध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहणार्थम्।।" -आचार्य समन्तभद्र
मैं केश-लोच के महत्त्व को भौतिक-आकांक्षाओं के निम्न स्तर पर उतारना ठीक नहीं समझता। भोजन, वस्त्र, मकान आदि कछ सविधाएँ मिले या न मिले, बाह्य प्रतिष्ठा, शोभा की दृष्टि से लोगों को अच्छा लगे या न लगे साध क को इस आधार पर अपने कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय नहीं करना है। सच्चे साध क का, जो भी निर्णय होता है, वह एक मात्र आध्यात्मिक-विकास को ध्यान में रख कर होता है। धर्म-साधना की आत्मा, आत्म-रमणता है, अन्य नहीं। दीक्षाकालीन केश-लोच
केश-लोच के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर और भी लम्बी चर्चा की जा सकती है। परन्तु, प्रस्तुत में मुझे केश-लोच के संदर्भ में वह चर्चा करनी है, जो अत्यावश्यक है। दुर्भाग्य से केश-लोच की वह परम्परा आज विलुप्त हो चुकी है, जो कभी साधक के जागृत वैराग्य की उज्ज्वल प्रतीक थी, देहातीत-भाव की एक निर्मल अध्यात्म-ज्योति थी।
प्राचीन काल में, जब भी कोई स्त्री या पुरुष प्रव्रज्या ग्रहण करता था, मुनिधर्म की दीक्षा लेता था, तो अपना केश-लोच भी स्वयं करता था। देह-भाव
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से ऊँचे उठे हुए साधक का यह अन्तर्नाद था, जो उपस्थित जन-समाज में वैराग्य-भावना की एक तीव्र लहर पैदा कर देता था। यह दीक्षाकालीन केश-लोच साधक स्वयं करता था, किसी अन्य से नहीं करवाता था। आज की तरह यह नाटक नहीं होता था कि नाई से सिर के बाल मुंडवा लिए, सिर्फ चोटी के रूप में दो-चार बाल रख छोड़े और दीक्षादाता गुरुजी ने जनता के समक्ष उन्हें राख की चुटकी से उखाड़ कर केश-लोच की रस्म अदा कर दी। जय-जयकार हो गया और भक्तजन-बाल-ग्रहण करने हेतु ऊपर-तले गिरने पड़ने लगे। उस युग में ऐसा दिखावा नहीं था। साधक स्वयं अपने हाथों से पंचमुष्टि लोच करता था और विवेक मूलक दृढ़ता के साथ साधना-पथ पर चल पड़ता था।
श्रमण भगवान् महावीर दीक्षित होते समय अपने हाथों से केश-लोच करते हैं।' भगवती मल्ली (भगवान् मल्लीनाथ) भी स्वयं केश-लुंचन करते हैं। भगवान् ऋषभदेव और नेमिनाथ तथा अन्य तीर्थंकर भी स्वयं केश-लोच करते हैं।' तीर्थंकर ही नहीं, अन्य साधारण साधक भी ऐसा ही करते हैं। ऋषभदत्त ब्राह्मण, शिवराजर्षि परिव्राजक", महाबलकुमार', मेघकुमार'3, पोटिला, काली', सुभद्रा, राजीमति',? आदि अनेक भिक्षु एवं भिक्षुणियाँ दीक्षा-काल में स्वयं केश-लुंचन कर के दीक्षित-प्रव्रजित होते हैं। सर्वत्र 'सयमेव' लोच करने का शब्दोल्लेख है, जिसे कोई भी जिज्ञासु आगमों में यथास्थान देख सकता है। दीक्षा-काल और नाई
दीक्षाकालीन केश-लोच की यथा प्रसंग चर्चा चलने पर कुछ साधुओं तथा श्रावकों द्वारा नाई की बात की जाती है। कहा जाता है, कि वर्तमान में नाई के द्वारा बाल कटाने की प्रथा प्राचीन युग से चली आ रही है। प्राचीन युग में भी नाई बुलाया जाता था और वह दीक्षार्थी के बालों का मुण्डन कर देता था। अतः दीक्षा-काल में केश-लोच आवश्यक नहीं है। इसके लिए मेघकमार आदि के उदाहरण दिए जाते हैं। परन्तु, यह कथन सत्य पर आधारित नहीं है। प्राचीन युग में स्त्रियों के समान पुरुष भी सिर पर लम्बे केश रखते थे, कटवाते नहीं थे, जैसा कि आजकल भी राम-कृष्ण आदि महापुरुषों के चित्रों में देखा जा सकता है। अस्तु, दीक्षा लेते समय नाई चार अंगुल छोड़ कर लम्बे बालों को काट देता था, जिससे कि वे केश-लुंचन के योग्य स्थिति में आ जाएँ। तत्पश्चात् दीक्षार्थी
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चार अंगुल छोड़े हुए केशों का अपने हाथों से लोच करता था। अतएव मेघकुमार के दीक्षा-प्रसंग में सम्राट् श्रेणिक ने नाई को बुलाकर कहा है- "देवानुप्रिय ! तु जाओ और पहले सुगन्धित गन्धोदक से अपने हाथ-पैरों को अच्छी तरह साफ करो। अनन्तर चार पुट वाले श्वेतवस्त्र से अपना मुख बाँध कर मेघकुमार के केशों को चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण योग्य कर दो अर्थात् मेघकुमार के बाल चार अंगुल प्रमाण छोड़कर शेष सब काट दो।
राजा के उक्त कथनानुसार नाई सारी क्रिया संपादित कर देता है। तदनन्तर जब मेघकुमार श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में दीक्षा ग्रहण करता है, तो अपने आप पंचमुष्टि केश-लोच करता है
"तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंच मुट्ठियं लोयं करे।।"
मेघकुमार के वर्णन के अनुसार ही भगवती में जमालि राजकुमार का वर्णन है। वहाँ पर भी जमालि का पिता इसी प्रकार नाई से चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण योग्य बाल कटवाता है और फिर जमालि दीक्षा लेते समय स्वयं पंचमुष्टि लोच करता है। मेघकुमार के वर्णन में चार पटल के मुखवस्त्र का उल्लेख है, जो नाई बाल बनाते समय मुख पर बाँधता है। और, यहाँ आठ पटल के वस्त्र का उल्लेख है
"अट्ठ पडलाए पोत्तीए मुँह बंधाइ"
ज्ञाता सूत्र के पञ्चम अध्ययन में शैलक राजा भी इसी प्रकार दीक्षा ग्रहण करता है। क्योंकि वहाँ पर भी उनकी रानी पद्मावती के द्वारा 'अग्रकेशों' के ग्रहण करने का उल्लेख है
"पंडमावई देवी अग्गकेसे पडिच्छइ"
दीक्षा-कालीन केश-लोच से पहले नाई के द्वारा अग्रकेशों का कर्तन भी कोई अनिवार्य स्थिति नहीं है। तीर्थंकर और नारी जाति की दीक्षाओं के प्रसंग में कहीं भी नाई को बुलाने का उल्लेख नहीं है। ये सब नाई से अग्रकेश नहीं कटवाते हैं, सीधे ही केश-लोच करते हैं। उक्त वर्णन से सिद्ध है कि दीक्षा-काल में केश-लोच तो हर स्थिति में अनिवार्य है, भले ही कोई साधक दीक्षा के पूर्व नाई से अग्रकेश कटवाए या न कटवाए। दीक्षा के समय स्वयं अपने हाथ से लोच करने की परम्परा रही है।
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यह प्राचीन परम्परा : लुप्त कैसे हो गई?
प्रश्न है, यह परम्परा लुप्त कैसे हो गई? दीक्षा कालीन केश-लोच कैसे गायब हो गया? और, कैसे उसकी जगह नाई के द्वारा मूल से ही पूर्णतया केश-कर्तन ने ले ली? पूरा-का-पूरा सिर मुंडा कर दो-चार बाल रखना और गुरु के द्वारा उनके लोच का प्रदर्शन- दिखावा करना, यह गलत परम्परा कैसे चालू हो गई?
बात यह है, भारतवर्ष का मध्यकालीन युग अन्धकार पूर्ण रहा है। जैन-परम्परा भी इस अन्धकार से अलिप्त नहीं रह सकी। धार्मिक तेज जब क्षीण हो जाता है, तब प्रायः ऐसा ही हुआ करता है। तत्कालीन स्थिति, जो 'संघ-पट्टक' आदि ग्रन्थों में उल्लिखित है, उससे पता चलता है कि छोटे-छोटे बच्चों को, जिन्हें यह भी पता नहीं कि वैराग्य किस चिड़िया का नाम है, दीक्षित किया जाता था। अभाव-ग्रस्त दरिद्र लोग, अच्छे रहन-सहन के प्रलोभन पर, साधु बना लिए जाते थे। अधिकतर दीक्षाएँ सेवा लेने और वंश-परंपरा चलाने की भावना से दी जाती थी। एक बार नाई से सिर मुंडवा कर दीक्षित हो गए कि फिर अन्दर से जैसे-तैसे लोच की बात होती रहती थी। गुरु, चेलों की गीली आँखों में सब-कुछ हो सकता था। प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष में गए कि सब झंझट समाप्त।
दूसरों से लोच कराने का मूल भी इसी स्थिति में है। साधक के लिए स्वयं अपने हाथों से लोच करना, प्रथम उत्सर्ग पक्ष है। दूसरों से लोच कराना अपवाद पक्ष है, जो हाथ आदि अंगों की विकृति विशेष में अथवा अन्य किसी विशेष गाढ़ागाढ़ परिस्थिति में विहित है। बिना कारण केवल सुविधा की दृष्टि से, दूसरे भिक्षु से लोच कराना अपवाद नहीं है। अत: वह शास्त्र-विहित भी नहीं है। स्वयं अपने हाथों से लोच करने में देर लगती है, अतः दर्द की मात्रा लम्बी होती है। बस, दूसरों से लोच करा लिया जाए, ताकि जल्दी ही लोच की झंझट समाप्त हो जए। आप देखते हैं, कुछ सन्त दर्द कम करने की मनोवृत्ति से लोच कराने का मुहूर्त देखते हैं, स्तोत्र का पाठ एवं मन्त्र जपते हैं, लोच करने में किसका हलका और नम हाथ है, यह भी तलाशा जाता है, घी आदि द्रव्य भी लगाए जाते हैं। यह सब केश-लोच के दर्द से बचने के उपक्रम हैं, जो मध्य-युग से चले आ रहे हैं। कोई भी सहृदय विचारक देख सकता है, केश-लोच की यह कैसी दुःस्थिति है। मेरे विचार में यही दुर्बल मना साधकों का कारण था कि दीक्षा-कालीन केश-लोच समाप्त हो गया और उसके स्थान में वर्तमान परम्परा नाई से सिर मुंडवाने की परम्परा चालू हो गई।
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प्राचीन परम्परा पुनर्जीवित होनी चाहिए
___ कैसी भी स्थिति रही हो, दीक्षा-कालीन केश-लोच की परम्परा, जो अपने में एक वैराग्य-प्रधान उज्ज्वल परम्परा थी, विलुप्त हो गई। मैं अपेक्षा करता हूँ, वह फिर से जीवित होनी चाहिए। जब दीक्षार्थी सर्व-साधारण जनता के समक्ष अपने हाथों से अपना लोच करता है, तो कितनी अधिक वैराग्य भाव की उद्दीप्ति होती है, जैन-साधना कितनी महिमान्वित होती है। जैन-दीक्षा देहातीत भाव की, सहज विरक्ति की साधना है। उसके लिए महान् धृति-बल की अपेक्षा है। केश-लोच उसी धृति-बल की परीक्षा है, यह परीक्षा दीक्षा के पूर्व होनी चाहिए न !
यह क्या बात है, दीक्षा पहले हो जाती है और उसकी परीक्षा बाद में होती है। बाद में भी परीक्षा होती रहनी चाहिए, वर्ष में तीन बार और वर्षावास में तो प्रतिदिन लोच होते रहना चाहिए, कोई बात नहीं। किन्तु, दीक्षा-काल में स्वयं अपने हाथ से लोच करने की प्राथमिक परीक्षा तो अत्यन्त आवश्यक है।
क्या परम्परा प्रेमी, पुरातन परम्पराओं के अनुरागी संयमी और उत्कृष्ट आचारी मुनिराज मेरे उक्त विचार पर कुछ लक्ष्य देंगे? देंगे, तो कब?
संदर्भ :1. केसलोओ य दारुणो।
-उत्तराध्ययन, 19, 34. 2. संतता केस लोएण।
-सूत्रकृतांग 3, 13. 3. निशीथ भाष्य, 3213. 4. निशीथ भाष्य, 3173. 5. कल्पसूत्र, 9, 57.
कत्तरी-छुर-लोए वा विनियं असह गिलाणेय। -निशीथ भाष्य 3212 वित्तीयपवेणं लोयं न कारवेज्जा। असह् लोयं तरति अधियासेउ। सिरोरोगेण वामंद चक्खुणा वा लोयं असहतो धम्मं छड्डेज्जा। गिलाणस्स वालोओ न कज्जति, लोए वा करेंते गिलाणो हवेज्ज।
__ -चूर्णि 6. न लोगस्सेसणं चरे।
-आचारांग, 14,1. 7. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कंद 8. ज्ञाता सूत्र, अध्य. 8
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________________ 9. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन 10. भगवती 9, 33. 11. वही 11, 10 12. वही, 11, 11 13. ज्ञातासूत्र 1, 1 14. वही 2, 14 15. वही 2, 1 16. पुफिया, 4 17. उत्तराध्ययन, 12 18. तए णं सेणिए रायमा कासवयं एवं वयासी-गच्छहि णं तुम णं तुम देवाणुप्पिया, सुरभिणा गंधोदएणं निक्के हत्थपाए पक्खालेहि, सेमाए चउप्फलाए पोत्तीए मुहं बंधि त्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि। -ज्ञातासूत्र 1, 1 19. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया, जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपओगे अग्गकेसे पडिकप्पेहि। ........ तए णं से जमालि खत्तिय कुमारे सयमेव पंच मुठ्ठियं लोयं करेई। - भगवती सूत्र 9, 33 160* प्रा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प