Book Title: Shastra Sandesh Mala Part 18
Author(s): Vinayrakshitvijay
Publisher: Shastra Sandesh Mala
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________________ कर्मद्वन्द्वे न हि भवति चिच्चिन्न कर्मावरुद्धेतीत्थं शुद्धग्रहणरसिकः किं विधत्तेऽन्यभावम् // 24 // यदात्मनाऽऽत्मास्रवयोविभेदो ज्ञातो भवेत् ज्ञानदृशा तदानीम् / निवर्ततेऽज्ञानजकर्तृकर्मप्रवृत्तिरस्मानिखिलाऽपि मङ् क्षु // 25 // स्वत्वेन स्वं परमपि परत्वेन जानन् समस्तान्यद्रव्येभ्यो विरमणमितश्चिन्मयत्वं प्रपन्नः / स्वात्मन्येवाभिरतिमुपयन् स्वात्मशीली स्वदर्शीत्येवं कर्ता कथमपि भवेत् कर्मणां नैष जीव: . // 26 // व्याप्तं यत् किल वर्वृतीति निखिलावस्थासु याद्रूप्यतो जातु स्यान्न तदात्मताविरहितं तेनास्य साकं भवेत् / तादात्म्यं तदिह स्फुरन च भवन् मुक्तौ नितान्तं ततो वर्णादिः सकलो गणो ननु परद्रव्यत्वमेव श्रयेत् // 27 // अनवरतमनेकान् भावयन् कल्पनौघान् कथमिव परतत्त्वाऽऽबध्यसे कर्मजालैः / यदि सकलविकल्पातीतमेकं स्वरूपमनुभवसि ततः किं संसृतिः किं च बन्धः // 28 // किं मुग्ध ! चिन्तयसि काममसद्विकल्पांस्तद्ब्रह्मरूपमनिशं परिभावयस्व / यल्लाभतोऽस्ति न परः पुनरिष्टलाभो यदर्शनाच्च न परं पुनरस्ति दृश्यम् // 29 // पन्था विमुक्तेर्भविनां न चान्यो यतः परः केवलिभिः प्रदिष्टः / आनन्द-बोधावपि यद् विहाय पदेऽपरस्मिन्न कदापि भातः॥ 30 // यत् पञ्चेन्द्रियवर्जितं प्रविगलत्कर्माष्टकं प्रस्खलत्स्वान्तं विग्रहपञ्चकेन वियुतं स्पृष्टं न च प्रत्ययैः /
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