Book Title: Shasan Prabhavak Jinaprabhasuri Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf View full book textPage 2
________________ [ ३४ ] योग्य नामक पंचम ग्रन्थों में मिलता है और यह बात विशेष उल्लेख है । सं० १५०३ में सोमधर्म ने उपदेश - सप्ततिका अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ के तृतीय गुरुत्वाधिकार के उपदेश में जनप्रभसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई चमत्कारों का विवरण दिया है। प्रारम्भ में लिखा है कि इस कलियुग में कई आचार्य जिन शासन रूपी घर में दीपक के सामान हुए । इस सम्बन्ध में म्लेच्छपति को प्रतिबोध को देने वाले श्री जिनप्रभसूरि का उदाहरण जानने लायक है । अंत में निम्न श्लोक द्वारा उनकी स्तुति की गई है: स श्री जिनप्रभः सूरि-र्दुरिताशेषतामसः भद्र करोतु संघाय, शासनस्य प्रभावकः ॥ १ ॥ इसी प्रकार संवत् १५२१ में तपागच्छीय शुभशील गणिने प्रबन्ध पंचशती नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया जिसके प्रारम्भ में ही श्री जिनप्रभसूरिजी के चमत्कारिक १६ प्रवन्ध देते हुए अंत में लिखा है ' इति कियन्तो जिनप्रभसूरी अवदातसम्बन्धाः" इस ग्रन्थ में जिनप्रभसूरि सम्बन्धी और भी कई ज्ञातव्य प्रबन्ध हैं । उपरोक्त १६ के अतिरिक्त नं०२०, ३०६, ३१४ तथा अन्य भी कई प्रबन्ध आपके सम्बन्धित हैं । पुरातन प्रबन्ध संग्रह में मुनि जिनविजयजी के प्रकाशित जिनप्रभसूरि उत्पत्ति प्रबन्ध व अन्य एक रविवर्द्धन लिखित विस्तृत प्रबन्ध है । खरतरगच्छ वृहद्-गुर्वावली युगप्रधानाचार्य गुर्वावलो के अंत में जो वृद्धाचार्य प्रबन्धावली नामक प्राकृतकी रचना प्रकाशित हुई है । उसमें जिनसिंहसूरि और जिनप्रभसूरि के प्रबन्ध, खरतरगच्छीय विद्वान के लिखे हुए हैं एवं खरतरगच्छ की पट्टावली आदि में भी कुछ विवरण मिलता है पर सबसे महत्वपूर्ण घटना या कार्यविशेष का सम कालीन विवरण विविध तीर्थकल्प के कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प और उसके कल्प परिशेष में प्राप्त है । उसके अनुसार जिनप्रभसूरिजी ने यह मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा Jain Education International सम्मान प्राप्त किया था । उन्होंने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा सुलतान से प्राप्ताकर दिल्ली के जैन मंदिर में स्थापित करायी थी। पीछे से मुहम्मद तुगलक ने जिनप्रभसूरि के शिष्य 'जिनदेवसूरि को सुरतान सराइ दी थी जिनमें चार सौ श्रावकों के घर, पौषधशाला व मन्दिर बनाया उसी में उक्त महावीर स्वामी को विराजमान किया गया । इनकी पूजा व भक्ति श्वेताम्बर समाज ही नहीं, दिगम्बर और अन्य मतावलम्बी भी करते रहे हैं । कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प के लिखनेवाले 'जिन सिंहसूरि - शिष्य' बतलाये गये हैं अतः जिनप्रभसूरि या उनके किसी गुरुम्राता ने इस कल्प की रचना की है । इसमें स्पष्ट लिखा है कि हमारे पूर्वाचार्य श्री जिनपतिसूरि जी ने सं० १२३३ के आषाढ़ शुक्ल १० गुरुवार को इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी और इसका निर्माण जिनपति सूरि के चाचा मानदेव ने करवाया था | अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज के निधन के बाद तुर्कों के भय से सेठ रामदेव के सूचनानुसार इस प्रतिमा को कंयवास स्थल की विपुल बालू में छिपा दिया गया था । सं० १३११ के दारुण दुर्भिक्ष में जोज्जग नामक सूत्रधार को स्वप्न देकर यह प्रतिमा प्रगट हुई और श्रावकों ने मन्दिर बनवाकर विराजमान की । सं० १३८५ में हांसी के सिकदार ने श्रावकों को बन्दी बनाया और इस महावीर बिम्ब को दिल्ली लाकर तुगलकाबाद के शाही खजाने में रख दिया । पद विहार करते हुए जिनप्रभसूरि दिल्ली पधारे और राजसभा में पण्डितों की गोष्ठी द्वारा सम्राट को प्रभावित कर इस प्रभु प्रतिमा को प्राप्त किया। मुहम्मद तुगलक ने अर्द्धरात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्टी की और उन्हें वहीं रखा । प्रतः काल संतुष्ट सुलतान ने १००० गायें, बहुत सा द्रव्य, वस्त्र- कंवल, चंदन, कर्पूरादि सुगंधित पदार्थ सूरिजी को भेंट किया । पर गुरुश्री ने कहा ये सब साधुओं को लेना प्रकल्प्य है । सुलतान के विशेष अनुरोध से कुछ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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