Book Title: Shasan Prabhavak Jinaprabhasuri
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Z_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf

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Page 5
________________ प्रदेश, बराड़, दक्षिण, कर्णाटक, तेलंग, बिहार, कोशल, जिनप्रभसूरिजी की एक उल्लेखनीय प्रतिमा महातीर्थ अवध, युक्तप्रान्त और पंजाब आदि के कई पुरातन और शत्रुञ्जय की खरतर-वसही में विराजमान है जिसको प्रसिद्ध स्थलों की इन्होंने यात्रा को थी। इस यात्रा के प्रतिकृति इस ग्रन्थ में दी गई है। जिनप्रभसूरि शाखा समय उस स्थान के बारे में जो जो साहित्यगत और परम्परा- सतरहवीं शताब्दी तक तो बराबर चलती रही जिसमें श्रुत बात उन्हें ज्ञात हुई उनको उन्होंने संक्षप में लिपिबद्ध चारित्रवर्द्धन आदि बहुत बड़े-बड़े विद्वान इस परम्परा में कर लिया। इस तरह उस स्थान या तीर्थ का एक कल्प हुए हैं। बना दिया और साथ ही ग्रन्थकार को संस्कृत और प्राकृत जिनप्रभसूरि का श्रेणिक द्याश्रय काव्य पालीताना से दोनों भाषाओं में, गद्य और पद्य दोनों ही प्रकार से ग्रन्थ अपूर्ण प्रकाशित हुआ था उसे सुसम्पादित रूप से प्रकाशन रचना करने का एक सा अभ्यास होने के कारण कभी कोई करना आवश्यक है। कल्प उन्होंने संस्कृत भाषा में लिख दिया तो कोई प्राकृत __ हमारी राय में श्री जिनप्रभसूरिजी को यही गौरवपूर्ण में। इसी तरह कभी किसी कल्प की रचना गद्य में कर स्थान मिलना चाहिए जो अन्य चारों दादा-गुरुओं का है। ली तो किसी की पद्य में। इनके इतिहास प्रकाशन द्वारा भारतीय इतिहास का एक जिनप्रभसूरि का विधिप्रपाग्रन्थ भी विधि-विधानों का नया अध्याय जुड़ेगा / सुलतान मुहम्मद तुगलक को इतिहास बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण संग्रह है। जैन स्तोत्र आपने कारों ने अद्यावधि जिस दृष्टिकोण से देखा है वस्तुत: वह सात सौ बनाये कहे जाते हैं, पर अभी करीब सौ के लग एकाङ्गी है। जिनप्रभसूरि सम्बन्धी समकालीन प्राप्त भग उपलब्ध हैं। इतने अधिक विविध प्रकार के और उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि वह एक विद्याप्रेमी और विशिष्ट स्तोत्र अन्य किसी के भी प्राप्त नहीं हैं। कल्पसूत्र गुणग्राही शासक था। को 'सन्देहविषौषधि" टीका सं० 1364 में सबसे पहले ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित श्री जिनप्रभआपने बनाई। सं० 1356 में रचित द्वयाश्रम महाकाव्य सूरि के एक गीत से श्रीजिनप्रभसूरिजी ने अश्वपति कुतुबुद्दीन आपकी विशिष्ट काव्य प्रतिभा का परिचायक है / सं० को भी रंजित व प्रभावित किया था१३५२ से 1360 तक की आपको पचासों रचनायें स्तोत्रों के अतिरिक्त भी प्राप्त हैं। सूरि मन्त्रकल्प एवं चूलिका आगमु सिद्धंतुपुराण वखाणीइए पडिबोहइ सव्वलोइए ह्रींकार कल्प, वर्तमान विद्या और रहस्यकल्पद्रुम आपको जिणप्रभसूरि गुरु सारिखउ हो विरला दीसइ कोइ ए // विद्याओं व मंत्र-तंत्र सम्बन्धी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। आठाही आठामिहि चउथि तेड़ावइ सुरिताणु ए / अजितशांति, उवसग्गहर, भयहर, अनुयोगचतुष्टय, महावीर- पुहसितु मुखु जिनप्रभसूरि चलियउ जिमि ससि इंदु विमाणि ए॥ स्तव, षडावश्यक, साधु प्रतिक्रमण, विदग्धमुखमंडन आदि असपति कुतुबदीनु मनिरंजिउ, दीठेलि जिनप्रभसरि ए अनेक ग्रन्थों की महत्त्वपूर्ण टीकाए आपने बनाई / कातन्त्र- एकतिहि मन सासउ पूछइ, राय मणारह पूरि ए॥ विभ्रमवृत्ति, हेम अनेकार्थ शेषवृत्ति, रुचादिगण वृत्ति आदि तपागच्छोय जिनप्रभसूरि प्रबन्धों में पीरोजसाह को आपकी व्याकरण विषयक रचनाए हैं। कई प्रकरण प्रतिबोध देने का उल्लेख मिलता है पर वे प्रबन्ध, सवासो और उनके विवरण भी आपने रचे हैं, उन सब का यहां वर्ष बाद के होने से स्मृति दोष से यह नाम लिखा जाना विवरण देना संभव नहीं। संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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