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महान् शासन-प्रभावक श्रोजिनप्रभसरि
[अगरचन्द नाहटा]
जैन ग्रन्थों में जैन शासन की समय-समय पर महान् बड़े शासन-प्रभावक हो गए हैं जिनके सम्बन्ध में साधारणप्रभावना करने वाले आठ प्रकार के प्रभावक-पुरुषों का तया लोगों को बहुत ही कम जानकारी है। इसलिए यहां उल्लेख मिलता है । ऐसे प्रभावक पुरुषों के सम्बन्ध में प्रभा- उनका आवश्यक परिचय दिया जा रहा है। वक चरित्रादि महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचे गये हैं। आठ प्रकार के वृद्धाचार्य प्रबन्धावली के जिनप्रभसूरि प्रबन्ध में प्राकृत प्रभावक इस प्रकार माने गए हैं -प्रावनिक धर्मकथी,वादी, भाषा में जिनप्रभसूरि का अच्छा विवरण दिया गया है, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्यावान्, सिद्ध और कवि । इन उनके अनुसार ये मोहिलवाड़ी लाडनूं के श्रीमाल ताम्बी प्रभावक पुरुषों ने अपने असाधारण प्रभाव से आपत्ति के गोत्रीय श्रावक महाधर के पुत्र रत्नपाल की धर्मपत्नी खेतलसमय जैन शासन की रक्षा की, राजा-महाराजा एवं जनता देवी के कुक्षि से उत्पन्न हुए थे। इनका नाम सुभटपाल को जैन धर्म के प्रतिबोध द्वारा शासन की उन्नति की एवं था। सात-आठ वर्ष की बाल्यावस्था में ही पद्मावती देवी शोभा बढ़ाई। आर्यरक्षित अभयदेवसूरि को प्रावनिक, के विशेष संकेत द्वारा श्री जिनसिंहसूरि ने उनके निवास पादलिप्तसूरि को कवि, विद्याबली और सिद्ध, विजय- स्थान में जाकर सुभटपाल को दीक्षित किया। सूरिजी ने देवसूरि व जीवदेवसूरि को सिद्ध, मल्लवादी वृद्धवादी, और अपनी आयु अल्प ज्ञात कर सं० १३४१ किढवाणानगर में देवसूरि को वादी, बत्पट्टिसूरि, मानतुंगसूरि को कवि, इन्हें आचार्य पद देकर अपने पट्टपर स्थापित कर दिया। सिद्धर्षि को धर्मकथी महेन्द्रसूरि को नैमित्तिक, आचार्य उपदेशसप्ततिका में जिनप्रभसूरि सं० १३३२ में हुए हेमचन्द्र को प्रावचनिक, धर्मकथी औरक वि प्रभावक, लिखा है, यह सम्भवत: जन्म समय होगा। थोड़े ही समय प्रभावक चरित्र की मुनि कल्याणविजयजी की महत्त्वपूर्ण में जिनसिंहसूरिजी ने जो पद्मावतो आराधना की थी वह प्रस्तावना में बतलाया गया है।
उनके शिष्य-जिनप्रभसूरिजी को फलवती हो गई और आप खरतरगच्छ में भी जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, जिन- व्याकरण, कोश, छंद, लक्षण, साहित्य, न्याय, षट्दर्शन, वल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, मणिधारी-जिनचन्द्रसूरि और जिन- मंत्र-तंत्र और जैन दर्शन के महान् विद्वान बन गए। आपके पतिसूरि ने विविध प्रकार से जिन शासन की प्रभावना को रचित विशाल और महत्त्वपूर्ण विविध विषयक साहित्य से है। जिनपतिसूरि के पट्टधर जिनेश्वरसूरि के दो महान् पट्ट- यह भलो-भांति स्पष्ट है। अन्य गच्छीय और खरतरगच्छ धर हुए-जिनप्रबोधसूरि तो ओसवाल और जिनसिंहसूरि की रुद्रपल्लोय शाखा के विद्वानों को आपने अध्ययन कराया श्रीमाल संघ में विशेष धर्म-प्रचार करते रहे। इसलिए एवं उनके ग्रन्थों का संशोधन किया। इन दो आचार्यों से खरतरगच्छ की दो शाखाएं अलग हो असाधारण विद्वत्ता के साथ-साथ पद्मावतीदेवी के गई। जिनसिंहसूरि की शाखा का नाम खरतर आचार्य सान्निध्य द्वारा आपने बहुत से चमत्कार दिखाये हैं जिनका प्रसिद्ध हो गया, उनके शिष्य एवं पट्टधर जिनप्रभसूरि वहुत वर्णन खरतरगच्छ पट्टावलियों से भी अधिक तपागच्छीय
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योग्य
नामक
पंचम
ग्रन्थों में मिलता है और यह बात विशेष उल्लेख है । सं० १५०३ में सोमधर्म ने उपदेश - सप्ततिका अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ के तृतीय गुरुत्वाधिकार के उपदेश में जनप्रभसूरि के बादशाह को प्रतिबोध एवं कई चमत्कारों का विवरण दिया है। प्रारम्भ में लिखा है कि इस कलियुग में कई आचार्य जिन शासन रूपी घर में दीपक के सामान हुए । इस सम्बन्ध में म्लेच्छपति को प्रतिबोध को देने वाले श्री जिनप्रभसूरि का उदाहरण जानने लायक है । अंत में निम्न श्लोक द्वारा उनकी स्तुति की गई है:
स श्री जिनप्रभः सूरि-र्दुरिताशेषतामसः
भद्र करोतु संघाय, शासनस्य प्रभावकः ॥ १ ॥ इसी प्रकार संवत् १५२१ में तपागच्छीय शुभशील गणिने प्रबन्ध पंचशती नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया जिसके प्रारम्भ में ही श्री जिनप्रभसूरिजी के चमत्कारिक १६ प्रवन्ध देते हुए अंत में लिखा है
' इति कियन्तो जिनप्रभसूरी अवदातसम्बन्धाः"
इस ग्रन्थ में जिनप्रभसूरि सम्बन्धी और भी कई ज्ञातव्य प्रबन्ध हैं । उपरोक्त १६ के अतिरिक्त नं०२०, ३०६, ३१४ तथा अन्य भी कई प्रबन्ध आपके सम्बन्धित हैं । पुरातन प्रबन्ध संग्रह में मुनि जिनविजयजी के प्रकाशित जिनप्रभसूरि उत्पत्ति प्रबन्ध व अन्य एक रविवर्द्धन लिखित विस्तृत प्रबन्ध है । खरतरगच्छ वृहद्-गुर्वावली युगप्रधानाचार्य गुर्वावलो के अंत में जो वृद्धाचार्य प्रबन्धावली नामक प्राकृतकी रचना प्रकाशित हुई है । उसमें जिनसिंहसूरि और जिनप्रभसूरि के प्रबन्ध, खरतरगच्छीय विद्वान के लिखे हुए हैं एवं खरतरगच्छ की पट्टावली आदि में भी कुछ विवरण मिलता है पर सबसे महत्वपूर्ण घटना या कार्यविशेष का सम कालीन विवरण विविध तीर्थकल्प के कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प और उसके कल्प परिशेष में प्राप्त है । उसके अनुसार जिनप्रभसूरिजी ने यह मुहम्मद तुगलक से बहुत बड़ा
सम्मान प्राप्त किया था । उन्होंने कन्नाणा की महावीर प्रतिमा सुलतान से प्राप्ताकर दिल्ली के जैन मंदिर में स्थापित करायी थी। पीछे से मुहम्मद तुगलक ने जिनप्रभसूरि के शिष्य 'जिनदेवसूरि को सुरतान सराइ दी थी जिनमें चार सौ श्रावकों के घर, पौषधशाला व मन्दिर बनाया उसी में उक्त महावीर स्वामी को विराजमान किया गया । इनकी पूजा व भक्ति श्वेताम्बर समाज ही नहीं, दिगम्बर और अन्य मतावलम्बी भी करते रहे हैं ।
कन्यानयनीय महावीर प्रतिमा कल्प के लिखनेवाले 'जिन सिंहसूरि - शिष्य' बतलाये गये हैं अतः जिनप्रभसूरि या उनके किसी गुरुम्राता ने इस कल्प की रचना की है । इसमें स्पष्ट लिखा है कि हमारे पूर्वाचार्य श्री जिनपतिसूरि जी ने सं० १२३३ के आषाढ़ शुक्ल १० गुरुवार को इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी और इसका निर्माण जिनपति सूरि के चाचा मानदेव ने करवाया था | अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज के निधन के बाद तुर्कों के भय से सेठ रामदेव के सूचनानुसार इस प्रतिमा को कंयवास स्थल की विपुल बालू में छिपा दिया गया था । सं० १३११ के दारुण दुर्भिक्ष में जोज्जग नामक सूत्रधार को स्वप्न देकर यह प्रतिमा प्रगट हुई और श्रावकों ने मन्दिर बनवाकर विराजमान की । सं० १३८५ में हांसी के सिकदार ने श्रावकों को बन्दी बनाया और इस महावीर बिम्ब को दिल्ली लाकर तुगलकाबाद के शाही खजाने में रख दिया ।
पद विहार करते हुए जिनप्रभसूरि दिल्ली पधारे और राजसभा में पण्डितों की गोष्ठी द्वारा सम्राट को प्रभावित कर इस प्रभु प्रतिमा को प्राप्त किया। मुहम्मद तुगलक ने अर्द्धरात्रि तक सूरिजी के साथ गोष्टी की और उन्हें वहीं रखा । प्रतः काल संतुष्ट सुलतान ने १००० गायें, बहुत सा द्रव्य, वस्त्र- कंवल, चंदन, कर्पूरादि सुगंधित पदार्थ सूरिजी को भेंट किया । पर गुरुश्री ने कहा ये सब साधुओं को लेना प्रकल्प्य है । सुलतान के विशेष अनुरोध से कुछ
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[३ ] वस्त्र-कम्बल उन्होंने 'राजाभियोग' से स्वीकार किया और हरिसागरसूरिजी महाराज की प्रेरणा से परिवद्धित कर मुहम्मद तुगलक ने बड़े महोत्सव के साथ जिनप्रभसूरि और पंडितजी ने ग्रन्थ रूप में तैयार कर दिया, जिसे सं० १९६५ जिनदेवसरि को हाथियों पर आरूढ़ कर पौषधशाला में श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट से देवनागरी पहुँचाया । समय-समय पर सूरिजी एवं उनके शिष्य जिनदेव- लिपि व गुजराती भाषा में प्रकाशित किया गया। सूरि को विद्वत्तादि से चमत्कृत होकर सुलतान ने शत्रुजय, प्रतिभासम्पन्न महान् विद्वान जिनप्रभसूरि जी को दो गिरनार, फलौदी आदि तीर्थों की रक्षा के लिए फरमान प्रधान रचनाएँ विविधतीर्थकल्प और विधिमार्ग-प्रमा दिए । कल्प के रचयिता ने अन्त में लिखा है कि मुहम्मद मुनि जिनविजयजी ने सम्पादित की है, उनमें से विधिशाह को प्रभावित करके जिनप्रभसूरिजी ने बड़ी शासन प्रपा में हमने जिनप्रभसूरि सम्बन्धी निबन्ध लिखा था। प्रभावना एवं उन्नति को। इस प्रकार पंचम काल में चतुर्थ इसके बाद हमारा कई वर्षों से यह प्रयत्न रहा कि सूरिआरे का भास कराया।
महाराज सम्बन्धी एक अध्ययनपूर्ण स्वतन्त्र वृहद्ग्रन्थ प्रकाउपयुक्त कन्नाणय महावीर कल्प का परिशेष रूप अन्य शित किया जाय और महो० विनयसागरजी को यह काम कल्प सिंहतिलकसूरि के आदेश से विद्यातिलक मुनि ने लिखा सौंपा गया। उन्होंने वह ग्रन्थ तैयार भी कर दिया है, है जिसमें जिनप्रभसूरि और जिनदेवसूरि को शासन साथ ही सूरिजी के रचित स्तोत्रों का संग्रह भी संपादित कर प्रभावना व मुहम्मद तुगलक को सविशेष प्रभावित करने का रखा है। हम शीघ्र ही उस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशन विवरण है । ये दोनों ही कल्प जिनप्रभसूरिजी की विद्य- करने में प्रत्यनशील हैं। मानता में रचे गए थे। इसी प्रकार उन्हीं के समकालीन सूरिजी सम्बन्धी प्रबन्धों की एक सतरहवीं शती रचित जिनप्रभसूरि गीत तथा जिनदेवसूरि गीत हमें प्राप्त की लिखित संग्रह प्रति हमारे संग्रह में है, पर वह अपूर्ण हो हुए जिन्हें हमने सं० १९६४ में प्रकाशित अपने ऐतिहासिक प्राप्त हुई है। हम उपदेशसप्तति प्रबन्ध-पंचशती एवं प्रबन्ध
जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित कर दिया है। उनमें स्पष्ट संग्रहादि प्रकाशित प्रबन्धों को देखने का पाठकों को लिखा है सं० १३८५ के पौष शुक्ल ८ शनिवार को दिल्ली अनुरोध करते हैं जिससे उनके चामत्कारिक प्रभाव और में मुहम्मद साह से श्री जिनप्रभसूरि मिले । सुलतान ने उन्हें महान व्यक्तित्व का कुछ परिचय मिल जायगा। जिनप्रभअपने पास बैठाकर आदर दिया। सूरिजीने नवीन काव्यों सूरिजी का एक महत्वपूर्ण मंत्र-तंत्र सम्बन्धी ग्रन्थ रहस्यद्वारा उसे प्रसन्न किया। सुलतान ने इन्हें धन-कनक आदि कल्पद्रुम भी अभी पूर्ण रूप से प्राप्त नही हुआ, उसकी खोज बहुत सी चीज दी और जो चाहिए, मांगने को कहा पर जारी है। सोलहवीं शताब्दी की प्रति का प्राप्त अन्तिम निरीह सूरिजी ने उन अकल्प्य वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया। पत्र यहां प्रकाशित किया जा रहा है । इससे विशेष प्रभावित होकर उन्हें नई वस्ती आदि का रहस्यकल्पदुम' फरमान दिया और वस्त्रादि द्वारा स्वहस्त से इनकी पूजा त संघ प्रत्यनीकानां भयंकरादेशाः । करीयं जयः । की।
स्वदेशे जयः परदेशे अपराजितत्वं । तीर्थादिप्रत्यनीकमध्ये _____सं० १९८६ में पं० लालचन्द भ० गांधी का जिनप्रभ- एतत्त्रयमस्य महापीठस्य स्मरणेन भवति । ॐ ह्रीं महासूरि और सुलतान मुहम्मद सम्बन्धी एक ऐतिहासिक निबन्ध मातंगे शुचि चंडालो अमुकं दह २ पच २ मथ २ उच्चाटय 'जेन' के रौप्य महोत्सव अंक में प्रकाशित हुआ। जिसे श्री २ ह्र फुट् स्वाहा ॥ कृष्ण खडी खंड १०८ होमयेतू
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उच्चाटनं विशेषतः । संपन्नी विषये । ॐ रक्त चामुंडे नर उपर्युक्त १६वीं शती की प्रति का अन्तिम पत्र प्राप्त हुआ। शिर तंड मुंड मालिनी अमुकी आकर्षय २ ह्रीं नमः। इस प्राप्त अंश की नकल उपर दी है। इस ग्रन्थ की पूरी आकृष्टि मंत्र । सहस्रत्रयजापात् सिद्धि सिद्धिः पश्चात् प्रति का पता लगाना आवश्यक है । किसी भी सज्जन को १०८ आकर्षयति । ॐ ह्रीं प्रत्यंगिरे महाविद्य येन केन- इसकी पूरी प्रति की जानकारी मिले तो हमें सूचित करने का चित् पापं कृतं कारितं अनुमतं वा नश्यतु तत्पापं तत्रैव अनुरोध करते हैं। गच्छतु"
श्री जिनप्रभसूरिजी और उनके विविध तीर्थकल्प के ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविद्य स्वाहा वार २१ लवण- सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी ने लिखा है-"ग्रन्थकार डली जच्चा आतुरस्योपरि म्रामयित्वा कांजिके क्षिप्त्वा। (जिनप्रभसूरि ) अपने समय के एक बड़े भारी विद्वान और आतुरे ढाल्यते कार्मण भद्रो भवति ।
प्रभावशाली थे। जिनप्रभसूरि ने जिस तरह विक्रम की ___ उभयलिंगी बीज ७ साठी चोखा ६ पली १ गोदूध। सतरहीं शताब्दी में मुगल व सम्राट अकबर बादशाह के ऋतुस्नातायाः पानं देयं स्निग्धमधुरभोजनं । ऋतुगर्भो- दरबार में जैन जगद्गुरु हीरविजयसूरि ( और युगप्रधान त्पत्तिप्रधानसूक डिदुवारन् वात् एकवर्ण गोदुग्धेन पीयते गर्भा- जिनचन्द्रसूरि ) ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह धानादिन ७५ अनंतर दिन ३ गर्भव्यत्ययः ॥छ॥ जिनप्रभसूरि ने भो चोदहवीं शताब्दी में तुगलक सुल्तान
संवत् १५४६ वर्षे श्रावण सुदि १३ त्रयोदशी दिने मुहम्मद शाह के दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया। गुरौ श्रीमडपमहादुर्ग श्री खरतरगच्छे श्रीजिनभद्र- भारत के मुसलमान बादशाहों के दरवार में जैनधर्म का सूरि पट्टालंकार श्री श्रीजिनचन्द्रसूरि पट्टोदया चलचूला महत्व बतलाने वाले और उसका गौरव बढ़ाने वाले शायद सहस्रकरावतार श्री संप्रतिविजयमान श्रीजिनसमुद्रसूरि सबसे पहले ये ही आचार्य हुए। विजयराज्ये श्री वादीन्द्र
विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ जैन साहित्य की एक पाध्याय विनेय वाचनाचार्य वर्थ श्री साधुराज गणिवराणा- विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों मादेशेन शिष्यलेश ....... लेखि श्री रहस्य कल्पद्रुम- प्रकार के विषयों की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत कुछ महाम्नाय: ॥छ॥छ॥ श्रेयोस्तु । पं० भक्तिवल्लभ गणि- महत्त्व है। जैन साहित्य ही में नहीं, समग्र भारतीय सान्निध्येन ॥
साहित्य में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रंथ अभी [पत्र ११ वां प्राप्त किनारे त्रुटित] तक ज्ञात नहीं हुआ। यह ग्रन्थ विक्रम की चौदहवीं उपर्युक्त नन्थ का उल्लेख जिनप्रभसूरिजी ने व उनके शताब्दी में जैनधर्म के जितने पुरातन और विद्यमान समकालीन रुद्रपल्लीय सोमतिलकसूरि रचित लधुस्तव तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्ध में प्रायः एक प्रकार की टोकादि में प्राप्त है । यह टीका सं० १३६७ में रची गई गाइड बुक" है इसमें वर्णित उन तीर्थों का संक्षिप्त रूप
और राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रका- से स्थान वर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी है । शित है।
__ प्रस्तुत रचना के अवलोकन से ज्ञात होता है कि ____ बीकानेर के वृहद् ज्ञानभंडार में हमें बहुत वर्ष पूर्व इतिहास और स्थलभ्रमण से रचयिता को बड़ा प्रेम था। इस ग्रन्थ का कुछ अंश प्राप्त हुआ था जिसे जैन सिद्धान्त- इन्होंने अपने जीवन में भारत के बहुत से भागों में परिभास्कर एवं जन सत्यप्रकाश में प्रकाशित किया। उसके बाद भ्रमण किया था । गुजरात, राजपूताना, मालवा, मध्य
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________________ प्रदेश, बराड़, दक्षिण, कर्णाटक, तेलंग, बिहार, कोशल, जिनप्रभसूरिजी की एक उल्लेखनीय प्रतिमा महातीर्थ अवध, युक्तप्रान्त और पंजाब आदि के कई पुरातन और शत्रुञ्जय की खरतर-वसही में विराजमान है जिसको प्रसिद्ध स्थलों की इन्होंने यात्रा को थी। इस यात्रा के प्रतिकृति इस ग्रन्थ में दी गई है। जिनप्रभसूरि शाखा समय उस स्थान के बारे में जो जो साहित्यगत और परम्परा- सतरहवीं शताब्दी तक तो बराबर चलती रही जिसमें श्रुत बात उन्हें ज्ञात हुई उनको उन्होंने संक्षप में लिपिबद्ध चारित्रवर्द्धन आदि बहुत बड़े-बड़े विद्वान इस परम्परा में कर लिया। इस तरह उस स्थान या तीर्थ का एक कल्प हुए हैं। बना दिया और साथ ही ग्रन्थकार को संस्कृत और प्राकृत जिनप्रभसूरि का श्रेणिक द्याश्रय काव्य पालीताना से दोनों भाषाओं में, गद्य और पद्य दोनों ही प्रकार से ग्रन्थ अपूर्ण प्रकाशित हुआ था उसे सुसम्पादित रूप से प्रकाशन रचना करने का एक सा अभ्यास होने के कारण कभी कोई करना आवश्यक है। कल्प उन्होंने संस्कृत भाषा में लिख दिया तो कोई प्राकृत __ हमारी राय में श्री जिनप्रभसूरिजी को यही गौरवपूर्ण में। इसी तरह कभी किसी कल्प की रचना गद्य में कर स्थान मिलना चाहिए जो अन्य चारों दादा-गुरुओं का है। ली तो किसी की पद्य में। इनके इतिहास प्रकाशन द्वारा भारतीय इतिहास का एक जिनप्रभसूरि का विधिप्रपाग्रन्थ भी विधि-विधानों का नया अध्याय जुड़ेगा / सुलतान मुहम्मद तुगलक को इतिहास बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण संग्रह है। जैन स्तोत्र आपने कारों ने अद्यावधि जिस दृष्टिकोण से देखा है वस्तुत: वह सात सौ बनाये कहे जाते हैं, पर अभी करीब सौ के लग एकाङ्गी है। जिनप्रभसूरि सम्बन्धी समकालीन प्राप्त भग उपलब्ध हैं। इतने अधिक विविध प्रकार के और उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि वह एक विद्याप्रेमी और विशिष्ट स्तोत्र अन्य किसी के भी प्राप्त नहीं हैं। कल्पसूत्र गुणग्राही शासक था। को 'सन्देहविषौषधि" टीका सं० 1364 में सबसे पहले ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित श्री जिनप्रभआपने बनाई। सं० 1356 में रचित द्वयाश्रम महाकाव्य सूरि के एक गीत से श्रीजिनप्रभसूरिजी ने अश्वपति कुतुबुद्दीन आपकी विशिष्ट काव्य प्रतिभा का परिचायक है / सं० को भी रंजित व प्रभावित किया था१३५२ से 1360 तक की आपको पचासों रचनायें स्तोत्रों के अतिरिक्त भी प्राप्त हैं। सूरि मन्त्रकल्प एवं चूलिका आगमु सिद्धंतुपुराण वखाणीइए पडिबोहइ सव्वलोइए ह्रींकार कल्प, वर्तमान विद्या और रहस्यकल्पद्रुम आपको जिणप्रभसूरि गुरु सारिखउ हो विरला दीसइ कोइ ए // विद्याओं व मंत्र-तंत्र सम्बन्धी उल्लेखनीय रचनाएं हैं। आठाही आठामिहि चउथि तेड़ावइ सुरिताणु ए / अजितशांति, उवसग्गहर, भयहर, अनुयोगचतुष्टय, महावीर- पुहसितु मुखु जिनप्रभसूरि चलियउ जिमि ससि इंदु विमाणि ए॥ स्तव, षडावश्यक, साधु प्रतिक्रमण, विदग्धमुखमंडन आदि असपति कुतुबदीनु मनिरंजिउ, दीठेलि जिनप्रभसरि ए अनेक ग्रन्थों की महत्त्वपूर्ण टीकाए आपने बनाई / कातन्त्र- एकतिहि मन सासउ पूछइ, राय मणारह पूरि ए॥ विभ्रमवृत्ति, हेम अनेकार्थ शेषवृत्ति, रुचादिगण वृत्ति आदि तपागच्छोय जिनप्रभसूरि प्रबन्धों में पीरोजसाह को आपकी व्याकरण विषयक रचनाए हैं। कई प्रकरण प्रतिबोध देने का उल्लेख मिलता है पर वे प्रबन्ध, सवासो और उनके विवरण भी आपने रचे हैं, उन सब का यहां वर्ष बाद के होने से स्मृति दोष से यह नाम लिखा जाना विवरण देना संभव नहीं। संभव है।