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________________ । ३६ 1 उच्चाटनं विशेषतः । संपन्नी विषये । ॐ रक्त चामुंडे नर उपर्युक्त १६वीं शती की प्रति का अन्तिम पत्र प्राप्त हुआ। शिर तंड मुंड मालिनी अमुकी आकर्षय २ ह्रीं नमः। इस प्राप्त अंश की नकल उपर दी है। इस ग्रन्थ की पूरी आकृष्टि मंत्र । सहस्रत्रयजापात् सिद्धि सिद्धिः पश्चात् प्रति का पता लगाना आवश्यक है । किसी भी सज्जन को १०८ आकर्षयति । ॐ ह्रीं प्रत्यंगिरे महाविद्य येन केन- इसकी पूरी प्रति की जानकारी मिले तो हमें सूचित करने का चित् पापं कृतं कारितं अनुमतं वा नश्यतु तत्पापं तत्रैव अनुरोध करते हैं। गच्छतु" श्री जिनप्रभसूरिजी और उनके विविध तीर्थकल्प के ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविद्य स्वाहा वार २१ लवण- सम्बन्ध में मुनि जिनविजयजी ने लिखा है-"ग्रन्थकार डली जच्चा आतुरस्योपरि म्रामयित्वा कांजिके क्षिप्त्वा। (जिनप्रभसूरि ) अपने समय के एक बड़े भारी विद्वान और आतुरे ढाल्यते कार्मण भद्रो भवति । प्रभावशाली थे। जिनप्रभसूरि ने जिस तरह विक्रम की ___ उभयलिंगी बीज ७ साठी चोखा ६ पली १ गोदूध। सतरहीं शताब्दी में मुगल व सम्राट अकबर बादशाह के ऋतुस्नातायाः पानं देयं स्निग्धमधुरभोजनं । ऋतुगर्भो- दरबार में जैन जगद्गुरु हीरविजयसूरि ( और युगप्रधान त्पत्तिप्रधानसूक डिदुवारन् वात् एकवर्ण गोदुग्धेन पीयते गर्भा- जिनचन्द्रसूरि ) ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह धानादिन ७५ अनंतर दिन ३ गर्भव्यत्ययः ॥छ॥ जिनप्रभसूरि ने भो चोदहवीं शताब्दी में तुगलक सुल्तान संवत् १५४६ वर्षे श्रावण सुदि १३ त्रयोदशी दिने मुहम्मद शाह के दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया। गुरौ श्रीमडपमहादुर्ग श्री खरतरगच्छे श्रीजिनभद्र- भारत के मुसलमान बादशाहों के दरवार में जैनधर्म का सूरि पट्टालंकार श्री श्रीजिनचन्द्रसूरि पट्टोदया चलचूला महत्व बतलाने वाले और उसका गौरव बढ़ाने वाले शायद सहस्रकरावतार श्री संप्रतिविजयमान श्रीजिनसमुद्रसूरि सबसे पहले ये ही आचार्य हुए। विजयराज्ये श्री वादीन्द्र विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ जैन साहित्य की एक पाध्याय विनेय वाचनाचार्य वर्थ श्री साधुराज गणिवराणा- विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों मादेशेन शिष्यलेश ....... लेखि श्री रहस्य कल्पद्रुम- प्रकार के विषयों की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत कुछ महाम्नाय: ॥छ॥छ॥ श्रेयोस्तु । पं० भक्तिवल्लभ गणि- महत्त्व है। जैन साहित्य ही में नहीं, समग्र भारतीय सान्निध्येन ॥ साहित्य में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रंथ अभी [पत्र ११ वां प्राप्त किनारे त्रुटित] तक ज्ञात नहीं हुआ। यह ग्रन्थ विक्रम की चौदहवीं उपर्युक्त नन्थ का उल्लेख जिनप्रभसूरिजी ने व उनके शताब्दी में जैनधर्म के जितने पुरातन और विद्यमान समकालीन रुद्रपल्लीय सोमतिलकसूरि रचित लधुस्तव तीर्थस्थान थे उनके सम्बन्ध में प्रायः एक प्रकार की टोकादि में प्राप्त है । यह टीका सं० १३६७ में रची गई गाइड बुक" है इसमें वर्णित उन तीर्थों का संक्षिप्त रूप और राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रका- से स्थान वर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी है । शित है। __ प्रस्तुत रचना के अवलोकन से ज्ञात होता है कि ____ बीकानेर के वृहद् ज्ञानभंडार में हमें बहुत वर्ष पूर्व इतिहास और स्थलभ्रमण से रचयिता को बड़ा प्रेम था। इस ग्रन्थ का कुछ अंश प्राप्त हुआ था जिसे जैन सिद्धान्त- इन्होंने अपने जीवन में भारत के बहुत से भागों में परिभास्कर एवं जन सत्यप्रकाश में प्रकाशित किया। उसके बाद भ्रमण किया था । गुजरात, राजपूताना, मालवा, मध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211346
Book TitleShasan Prabhavak Jinaprabhasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherZ_Manidhari_Jinchandrasuri_Ashtam_Shatabdi_Smruti_Granth_012019.pdf
Publication Year1971
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size545 KB
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