Book Title: Shantinath Puran
Author(s): Sakalkirti Acharya, Lalaram Shastri
Publisher: Vitrag Vani Trust

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Page 18
________________ . 4 करता हूँ । हे जिनवाणी ! तू श्रेष्ठ माता है तथा मुनिगण तेरी स्तुति करते हैं, इसलिए मुझ पुत्र का हित करने के लिए तू कृपापूर्वक मुझे उत्तम ज्ञानामृत प्रदान कर । मंगल के लिए पाँचों परमेष्ठियों को, सब गणधरों को, सब कवियों को तथा सरस्वती देवी को नमस्कार करने के अनन्तर इस संसार में अपना एवं दूसरों का भला करने के लिए मैं अनन्त सुखमय श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर का पवित्र चरित्र संक्षेप में कहता हूँ ५०। मैं बुद्धि से अत्यन्त हीन हूँ, इसलिए सिद्धान्त के अत्यन्त पारगामी आचार्यों ने जो कुछ पहिले कहा है, उसे कहने के लिए वास्तव में असमर्थ हूँ, तथापि उनके चरणकमलों को प्रणाम करने से जो कुछ पुण्य प्राप्त हुआ है, उसके प्रभाव से अपनी बुद्धि की शक्ति के अनुसार थोड़ा, किन्तु सारभूत कहूँगा । पहिले के विद्वान लोग ग्रन्थ के प्रारम्भ में वक्ता श्रोता एवं कथा के गुणों का वर्णन कर पीछे धर्म से विभूषित कथा को कहते थे । इसलिए इस परिपाटी के अनुसार ग्रन्थ की प्रामाणिकता प्रगट करने के लिए मैं भी इस जगह वक्ता के लक्षण, श्रोता के चिह्न तथा कथाओं के भेद कहता हूँ । जो विद्वान हों, सम्यक्चारित्र से विभूषित हों, प्रखर बुद्धि से चतुर हों, तपश्चरण से सुशोभित हों, सब जीवों का हित करने के लिए सदा तत्पर हों, अत्यन्त कृपालु हों, मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करनेवाले हों, जिन्हें वाणी का सौभाग्य प्राप्त हो, प्रश्नों की भरमार को सहन करनेवाले हों, लौकिक विज्ञानों के जानकार हों, अपनी प्रतिष्ठा-प्रसिद्धि आदि की इच्छा से रहित हों, लोभ-मद कषायों से रहित हों, कवित्व आदि गुणों से सुशोभित हों; जिनके वचन स्पष्ट हों, लोग जिन्हें मानते हों, पूजा करते हों तथा संसार में जिनकी सच्ची कीर्ति फैल रही हो; ऐसे समस्त श्रेष्ठ गुणों से पूर्ण जो आचार्य इस संसार में विद्यमान हैं, वे ही श्रेष्ठ धर्म की कथा कहने के योग्य समझे जाते हैं । अर्थात् ऊपर लिखे गुणों से सुशोभित आचार्य ही वक्ता गिने जाते हैं ।।६०॥ बुद्धिमान लोग | वक्ता की प्रमाणता से ही वचन की प्रामाणिकता मानते हैं, इसलिए सबसे पहिले इस संसार में वक्ता के उत्तम गुण ही ढूंढ़ने चाहिये । जो चारित्र रहित तथा पुत्र-पौत्रादि सहित होकर भी धर्म का निरूपण करते हैं, उनके वचनों को लोग ग्रहण नहीं करते, क्योंकि वे स्वयं ही अपने आचरणों से रहित हैं (वे दूसरों को क्या उपदेश देंगे?)-"जो यह श्रेष्ठ धर्म का स्वरूप जानता है तो फिर स्वयं उसका आचरण क्यों नहीं करता'-यही समझकर लोग उनके वचनों को कभी ग्रहण नहीं करते हैं । जो श्रुतज्ञान सहित हैं एवं अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार स्वयं धर्म का पालन करते हैं, उन लोगों के श्रेष्ठ वाक्यों के अनुसार उनके REFb BF 44

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