Book Title: Shakahar Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ २२ [ शाकाहार पर भी विचार अपेक्षित है, जो शाकाहार और श्रावकाचार के प्रचारप्रसार का मार्ग प्रशस्त करते हों । आज बाजार से तैयार सामग्री लाकर खाने-पीने की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है। महिलाओं के कार्यक्षेत्र में आ जाने से इस प्रवृत्ति को और अधिक प्रोत्साहन मिला है। अब कोई घर में खाना बनाकर खाना ही नहीं चाहता है, सब तैयार खाने के लिए बाजार की ओर ही दौड़ते हैं। न केवल हलवाइयों की दुकानों या सार्वजनिक भोजनालयों में तैयार भोजन की ओर, अपितु आज तो तैयार भोज्य सामग्री के बड़े-बड़े उद्योग खड़े हो रहे हैं। यह सब पश्चिम की नकल पर हो रहा है। - मधु इसप्रकार की सामग्री के सेवन में जाने-अनजाने मद्य-मांसका सेवन होता रहता है। इसीप्रकार बाजारों से तैयार श्रृंगार सामग्री में भी ऐसे पदार्थ शामिल रहते हैं कि जिनके उत्पादन में हिंसा तो होती ही है, क्रूरता भी होती है। जो लोग पूर्णतः शाकाहारी हैं, अहिंसक हैं और अहिंसक एवं शाकाहारी बने रहना चाहते हैं; वे भी जाने-अनजाने में उन वस्तुओं को खाते-पीते रहते हैं, उन श्रृंगार सामग्रियों का उपयोग करते हैं, जिनमें हिंसक और अपवित्र वस्तुओं का समिश्रण रहता है, प्रकारान्तर से मद्य - मांस-मधु का किसी न किसी रूप में उपयोग किया जाता है। इसप्रकार वे भी मांसाहार में सहभागी हो जाते हैं। यदि शाकाहारी समाज को इसप्रकार के मांसाहार, मद्यपान एवं हिंसक श्रृंगार सामग्री के प्रयोग से बचाना है तो हमें बाजार में ऐसे उत्पादन उपलब्ध कराने होंगे, जिनमें मांस न हो, चर्बी न हो, अंडों का प्रयोग न हुआ हो, मद्य का उपयोग न हुआ हो, मधु का उपयोग न हुआ हो और जो हिंसा से उत्पन्न न होते हों; क्योंकि अब यह तो सम्भव रहा नहीं कि किसी को बाजार में उपलब्ध भोज्य सामग्री एवं श्रृंगार सामग्री

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