Book Title: Shaddravya Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 8
________________ २९० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ पड़े हैं, अर्थात् कार्मण-शरीरके साथ उन संस्कारोंके प्रतिनिधिभूत पुद्गल द्रव्योंका जिस प्रकारके रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि परिणमनोंसे युक्त होकर सम्बन्ध हुआ है, कुछ उसी प्रकारके अनुकूल परिणमनवाली परिस्थितिमें यह आत्मा नूतन जन्म ग्रहण करनेका अवसर खोज लेता है और वह पुराने शरीरके नष्ट होते हो अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके साथ उस स्थान तक पहुँच जाता है । इस क्रियामें प्राणीके शरीर छोड़नेके समयके भाव और प्रेरणाएं बहुत कुछ काम करती हैं। इसीलिए जैन परम्पर में समाधिमरणको जीवनकी अन्तिम परीक्षाका समय कहा है; क्योंकि एक बार नया शरीर धारण करनेके बाद उस शरीरकी स्थिति तक लगभग एक जैसी परिस्थितियां बनी रहनेकी सम्भावना रहती है। मरणकालकी इस उत्क्रान्तिको सम्हाल लेनेपर प्राप्त परिस्थितियों के अनुसार बहुत कुछ पुराने संस्कार और बँधे हुए कर्मों में हीनाधिकता होनेकी सम्भावना भी उत्पन्न हो जाती है। जैन शास्त्रोंमें एक मारणान्तिक समुद्घात नामकी क्रियाका वर्णन आता है। इस क्रियामें मरणकालके पहले इस आत्माके कुछ प्रदेश अपने वर्तमान शरीरको छोड़कर भी बाहर निकलने हैं और अपने अगले जन्मके योग्य क्षेत्रको स्पर्श कर वापिस आ जाते हैं। इन प्रदेशके साथ कार्मण शरीर भी जाता है और उसमें जिस प्रकारके रूप, रस, गंध और स्पर्श आदिके परिणमनोंका तारतम्य है, उस प्रकारके अनुकल क्षेत्रकी ओर ही उसका झुकाव होता है । जिसके जीवनमें सदा धर्म और सदाचारकी परम्परा रही है, उसके कार्मण शरीरमें प्रकाशमय, लघु और स्वच्छ परमाणुओंकी बहुलता होती है। इसलिए उसका गमन लघु होनेके कारण स्वभावतः प्रकाशमय लोककी ओर होता है । और जिसके जीवन में हत्या, पाप, छल, प्रपञ्च, माया, मर्छा आदिके काले, गुरु और मैले परमाणुओंका सम्बन्ध विशेषरूपसे हुआ है, वह स्वभावतः अन्धकारलोककी ओर नीचेकी तरफ जाता है। यही बात सांख्य शास्त्रोंमें"धर्मेण गमनमूवं गमनमधस्तात् भवत्यधर्मेण ।" । -सांख्यका० ४४ । इस वाक्यके द्वारा कही गई है । तात्पर्य यह है कि आत्मा परिणामी होनेके कारण प्रतिसमय अपनी मन, वचन और कायकी क्रियाओंसे उन-उन प्रकारके शभ और अशभ संस्कारोंमें स्वयं परिणत होता जाता है, और वातावरणको भी उसी प्रकारसे प्रभावित करता है। ये आत्मसंस्कार अपने पूर्वबद्ध कार्मण शरीरमें कुछ नये कर्मपरमाणुओंका सम्बन्ध करा देते हैं, जिनके परिपाकसे वे संस्कार आत्मामें अच्छे या बुरे भाव पैदा करते है। आत्मा स्वयं उन संस्कारोंका कर्ता है और स्वयं ही उनके फलोंका भोक्ता है। जब यह अपने मल स्वरूपको ओर दृष्टि फेरता है, तब इस स्वरूपदर्शनके द्वारा धीरे-धीरे पुराने कुसंस्कारोंको काटकर स्वरूपस्थितिरूप मुक्ति पा लेता है । कभी-कभी किन्हीं विशेष आत्माओंमें स्वरूपज्ञानकी इतनी तीव्र ज्योति जग जाती है, कि उसके महाप्रकाशमें कुसंस्कारोंका पिण्ड क्षणभरमें ही विलीन हो जाता है और वह आत्मा इस शरीरको धारण किये हुए भी पूर्ण वीतराग और पूर्ण ज्ञानी बन जाता है । यह जीवन्मुक्त अवस्था है। इस अवस्थामें आत्मगुणोंके घातक संस्कारोंका समूल नाश हो जाता है । मात्र शरीरको धारण करने में कारणभत कुछ अघातिया संस्कार शेष रहते हैं, जो शरीरके साथ समाप्त हो जाते हैं। तब यह आत्मा पूर्णरूपसे सिद्ध होकर अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगति करके लोकके ऊपरी छोरमें जा पहुँचता है । इस तरह यह आत्मा स्वयं कर्ता और स्वयं भोक्ता है, स्वयं अपने संस्कारों और बद्धकर्मोके अनुसार असंख्य जीव-योनियोंमें जन्ममरणके भारको ढोता रहता है । यह सर्वथा अपरिणामो और निर्लिप्त नहीं है, किन्तु प्रतिक्षण परिणामी है और वैभाविक या स्वाभाविक किसी भी अवस्थामें स्वयं बदलनेवाला है। यह निश्चित है कि एक बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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