Book Title: Shaddravya Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 20
________________ ३०२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ वैशेषिककी मान्यता वैशेषिक कालको एक और व्यापक द्रव्य मानते हैं, परन्तु नित्य और एक द्रव्यमें जब स्वयं अतीतादि भेद नहीं हैं, तब उसके निमित्तसे अन्य पदार्थों में अतीतादि भेद कैसे नापे जा सकते हैं ? किसी भी द्रव्यका परिणमन किसी समय में हो तो होता है । बिना समयके उस परिणमनको अतीत, अनागत या वर्तमान कैसे कहा जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि प्रत्येक आकाश-प्रदेशपर विभिन्न द्रव्योंके जो विलक्षण परिणमन हो रहे हैं, उनमें एक साधारण निमित्त काल है, जो अणुरूप है और जिसकी समयपर्यायोंके समुदाय में हम घड़ी, घंटा आदि स्थूल कालका नाप बनाते हैं । अलोकाकाशमें जो अतीतादि व्यवहार होता है, वह लोकाकाशवर्ती कालके कारण ही । चूँकि लोक और अलोकवर्ती आकाश, एक अखण्ड द्रव्य है, अतः लोकाकाशमें होनेवाला कोई भी परिणमन समूचे आकाशमें ही होता है । काल एकप्रदेशी होनेके कारण द्रव्य होकर भी 'अस्तिकाय ' नहीं कहा जाता; क्योंकि बहुप्रदेशी द्रव्योंकी ही 'अस्तिकाय' संज्ञा है । श्वेताम्बर जैन परम्परामें कुछ आचार्य कालको स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते । बौद्ध परम्परामें काल बौद्ध परम्परामें काल केवल व्यवहारके लिए कल्पित होता है । यह कोई स्वभावसिद्ध पदार्थ नहीं है, प्रज्ञप्तिमात्र है । ( अट्ठशालिनी १।३।१६ ) । किन्तु अतीत, अनागत और वर्तमान आदि व्यवहार मुख्य कालके बिना नहीं हो सकते । जैसे कि बालक में शेरका उपचार मुख्य शेरके सद्भावमें ही होता है, उसी तरह समस्त कालिक व्यवहार मुख्य कालद्रव्यके बिना नहीं बन सकते । इस तरह जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्मं, आकाश और काल ये छः द्रव्य अनादि-सिद्ध मौलिक हैं । सबका एक ही सामान्य लक्षण है-उत्पाद-व्यय- प्रोव्ययुक्तता । इस लक्षणका अपवाद कोई भी द्रव्य कभी भी नहीं हो सकता । द्रव्य चाहे शुद्ध हों या अशुद्ध, वे इस सामान्य लक्षणसे हर समय संयुक्त रहते हैं । वैशेषिककी द्रव्यमान्यताका विचार वैशेषिक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव द्रव्य मानते हैं । इनमें पृथ्वी आदिक चार द्रव्य तो 'रूप-रस- गन्ध-स्पर्श-वत्त्व' इस सामान्य लक्षणसे युक्त होने के कारण पुद्गल द्रव्यमें अन्तर्भूत हैं । दिशाका आकाश में अन्तर्भाव होता है । मन स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, वह यथासम्भव जीव और पुद्गलकी ही पर्याय है । मन दो प्रकारका होता है - एक द्रव्यमन और दूसरा भावमन । द्रव्यमन आत्माको विचार करने में सहायता देनेवाले पुद्गल - परमाणुओंका स्कन्ध है । 'शरीर के जिस-जिस भाग में आत्माका उपयोग जाता है; वहाँ-वहाँके शरीरके परमाणु भी तत्काल मनरूपसे परिणत हो जाते हैं । अथवा, हृदयप्रदेशमें अष्टदल कमलके आकारका द्रव्यमन होता है, जो हिताहितके विचार में आत्माका उपकरण बनता है । विचार-शक्ति आत्माकी है । अतः भावमन आत्मरूप ही होता है । जिस प्रकार भावेन्द्रियाँ आत्माकी ही विशेष शक्तियाँ हैं, उसी तरह भावमन भी नोइन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे प्रकट होनेवाली आत्माकी एक विशेष शक्ति है; अतिरिक्त द्रव्य नहीं । १. " द्रव्यमनश्च ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमलाभप्रत्ययाः गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकाः पुद्गलाः वीर्य विशेषावर्जनसमर्थाः मनस्त्वेन परिणता इति कृत्वा पौद्गलिकम् मनस्त्वेन हि परिणताः पुद्गलाः गुणदोषविचारस्मरणादिकार्यं कृत्वा तदनन्तरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवन्ते ।” - तत्त्वार्थवा० ५ । १९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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