Book Title: Shaddravya Vivechan
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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Page 19
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३०१ है, और इसमें प्रतिक्षण अपने अगुरु-लघु गुणके कारण पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद होते हुए भी सतत अविच्छिन्नता बनी रहती है। अतः यह भी परिणामी नित्य है । आजका विज्ञान प्रकाश और शब्दकी गति के लिए जिस ईथररूप माध्यमकी कल्पना करता है, वह आकाश नहीं है । वह तो एक सूक्ष्म परिणमन करनेवाला लोकव्यापी पुद्गल स्कन्ध ही है; क्योंकि मूर्तद्रव्योंकी गतिका अन्तरंग आधार अमूर्त पदार्थं नहीं हो सकता । आकाशके अनन्त प्रदेश इसलिए माने जाते हैं कि जो आकाशका भाग काशी में है, वही पटना आदिमें नहीं है, अन्यथा काशी आ जायेंगे । और पटना एक ही क्षेत्रमें बौद्ध परम्परा में आकाशका स्वरूप बौद्ध परम्परा में आकाशको असंस्कृत धर्मोमें गिनाया है और उसका 'वर्णन 'अनावृति' (आवरणाभाव ) रूपसे किया है । यह किसीको आवरण नहीं करता और न किसीसे आवृत होता है । संस्कृतका अर्थ है, जिसमें उत्पादादि धर्म पाये जायें। किन्तु सर्वक्षणिकवादी बौद्धका, आकाशको असंस्कृत अर्थात् उत्पादादि धर्मसे रहित मानना कुछ समझ में नहीं आता। इसका वर्णन भले ही अनावृति रूपसे किया जाय, पर वह भावात्मक पदार्थ है, यह वैभाषिकोंके विवेचनसे सिद्ध होता है । कोई भी भावात्मक पदार्थ बौद्धके मतसे उत्पादादिशून्य कैसे हो सकता है ? यह तो हो सकता है कि उसमें होनेवाले उत्पादादिका हम वर्णन न कर सकें, पर स्वरूपभूत उत्पादादिसे इनकार नहीं किया जा सकता और न केवल वह आवरणाभावरूप ही माना जा सकता है । 'अभिधम्मत्थ संगह' में आकाशधातुको परिच्छेदरूप माना है । वह चार महाभूतोंकी तरह निष्पन्न नहीं होता, किन्तु अन्य पृथ्वी आदि धातुओंके परिच्छेद-दर्शनमात्र से इसका ज्ञान होता है, इसलिए इसे परिच्छेदरूप कहते हैं; पर आकाश केवल परिच्छेदरूप नहीं हो सकता; क्योंकि वह अर्थक्रियाकारी है । अत: वह उत्पादादि लक्षणोंसे युक्त एक संस्कृत पदार्थ है । कालद्रव्य समस्त द्रव्यों के उत्पादादिरूप परिणमनमें सहकारी 'कालद्रव्य' होता है । इसका लक्षण है वर्तना । यह स्वयं परिवर्तन करते हुए अन्य द्रव्योंके परिवर्तनमें सहकारी होता है और समस्त लोकाकाशमें घड़ी, घंटा, पल, दिन, रात आदि व्यवहारोंमें निमित्त होता है । यह भी अन्य द्रव्योंकी तरह उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य लक्षणवाला है । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदिसे रहित होने के कारण अमूर्तिक है । प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक काल-द्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्यकी तरह वह लोकाकाशव्यापी एकद्रव्य नहीं है; क्योंकि प्रत्येक आकाश प्रदेशपर समयभेद इसे अनेकद्रव्य माने बिना नहीं बन सकता | लंका और कुरुक्षेत्र में दिन रात आदिका पृथक्-पृथक् व्यवहार तत्तत्स्थानोंके कालभेदके कारण ही होता है । एक अखण्ड द्रव्य माननेपर कालभेद नहीं हो सकता । द्रव्योंमें परत्व - अपरत्व ( लहुरा-जेठ ) आदि व्यवहार कालसे ही होते हैं । पुरानापन - नयापन भी कालकृत ही हैं । अतीत, वर्तमान और भविष्य ये व्यवहार भी कालकी क्रमिक पर्यायोंसे होते हैं। किसी भी पदार्थ के परिणमनको अतीत, वर्तमान या भविष्य कहना कालकी अपेक्षासे ही हो सकता है । १. " तत्राकाशमनावृतिः " - अभिधर्मकोश १ । ५ । २. "छिद्रमाकाशधात्वाख्यम् आलोकतमसी किल । " - अभिधर्मकोश १ । २८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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