Book Title: Satyamev Jayte Nanrutam
Author(s): M S Mahendale
Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf

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Page 4
________________ श्री म० स० मेहेन्दले करी वन मा रहेता प्राप्तकाम ऋषिप्रोने 'सत्यनोज सदा व्यवहार माँ जय थाय छ'-ए बात कहेवानी जरूर नथी) तपः श्रद्ध योह्य प वसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसौ भैक्ष चवं चिरन्त: (१२,११); मा उपदेश देनार अने लेनार गुरु शिष्यनु वर्णन पण अमे भेवु (१, २, १२-१३) एकंदरे मुण्डक उपनिषद् मां प्रापेलु तत्व ज्ञान अने त्या प्रावतु साध्य साधकोनु वर्णन जोतां 'सत्यमेव जयते' नो अर्थ ऋषि सत्य-(ब्रह्म) तेज मेलवे छे' एवो अर्थ उचित थशे। आ विवेचन सामे थोडाफ प्राक्षेपो मूकवा शक्य छ, पहेलो प्राक्षेप एवो छ के 'जी' धातुनो जो परस्म पदे उपयोग कर्यो होय तो कर्मनी अपेक्षा रखाये ।' पण उपरना वाक्य मां 'जयते' एवो पात्मनेपदे उपयोग होवा थी कर्मनी अपेक्षा न थी अने तेथीज ए वाक्यनो 'सत्यनोज जय थाय छे' एवो अकर्मक अर्थ लेवामां आव्यो छ । प्रा बन्ने प्रयोगोनु उदाहरण तरीके ऐतरेय ब्राह्मणमांनु (१२.६) एक वाक्य पापी शकाय । 'यजमान ........जयति स्वर्गलोकं, व्यस्मिन् लोके जयते' । आ आक्षेपनो परिहार एम करी शकाय। पहेली बात एवी के आत्मने पदमां थतां प्रयोगोहमेश कर्म निरपेक्ष होय छे एवं न थी । मुण्डकमांज आवता 'पश्यते' ना सकर्मक उपयोग जोवा: यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णकर्तारं ईशं पुरुष ब्रह्मयोनिम् (३, १, ३) अने 'ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः (३,१,८) । बीजो बात एवी के 'जयते' नोज सकर्मक उपयोग मुण्डकमां छेः ततं लोकं जयते ताश्च कामान् । ३, १, १० । परन्तु खरे खर जोतां तो श्रृ ति वाक्य मां 'सत्यमेव जयति' ने बदले सत्यमेव जयते' एवो प्रयोग करवानु कारण मुण्ड कमां वपरायेला छंद मां छे । जर्मन पंडित हेर्टले २ एमना मुन्डकोपनिषत परना पुस्तकमां ए छंदनु जे विवेचन कर्यु छे ते पर थी (पा० २८) एम स्पष्ट थाय छे के आ उपनिषद् मा आवता त्रिष्टुभ मां ज्या पादनो पहेलो अवयव चार अक्षर नो अने बचलो अवयव त्रण अक्षर नो होय छे त्यां वचता अवयव ना त्रणे अक्षरे कदे लघु होता नथी । अने तेथीज 'सत्यम व जयति' अने तंतलोक जयति' ने बदले 'सत्यमेव जयते' अने तंतलोकं जयते एवा प्रयोग थया छे । तेथी अहियां 'जयति' एवो परस्मैपद मां उपयोग गृहीत-'सत्यं' ने कम लेवामां कोई वांधो न थी। हेर्टलना मानवा प्रमाणे तो पा श्लोकना पहेला पदमां शेवटनु अक्षर नीकली गयुछे । आपाद छंदनी दृष्टि ए एकाक्षर थी न्यून तो छेज, तेथी हेर्टल श्लोकनी पहेली लीटी एम वाँचे छ सत्यम व जयते, नानृतं सः, सत्येन पन्था विततो देवयानः। (पा० ५६ अने ४४) 'एम कयु होयतो 'सः' ए कर्ता अने 'सत्य' ए कर्म ए चो करवी बात छे । हेर्टलेने आ वाक्यनो निश्चित थयो प्रर्थ अभिप्रेत हतो ए समजवा मार्ग नथी । पण उपनिषद् मां एमणे सूजवेली दुरुस्ती मान्य राखवी होय तो ए वाक्यमां 'सत्यं' मानवु केम घटे छे ते उपर जणाव्यु छेज । बीजो आक्षेप एवो के श्लोकना पहेला पादमां 'जयते' एवो एक वचन माँ प्रयोग होवाथी ऋषि ए एक वचनी कर्ता मानवानो छे पण बीजा पादमां तो ऋषयः आक्रयन्ति' आवो बहुवचन मां प्रयोग के तेथी पहेला पादमां एक वचनी कर्ता अव्याहृत न मनाय। आक्षेपनुपरण उत्तर प्रापी शकाय एम छ । प्रावी जात ना वचन विरोध बीजे ठेकारणे पण जोवा मल छ । दाखला तरीके मुण्डकमानां नीचेना श्लोक जोवा : सवेद एतत् परम ब्रह्मधाम यत्र विश्वं निहितं मातिशुभ्रम् । उपासते पुरुषयसे ह्यकामास्ते शुक्रम् एतद अतिवर्तन्ति धीराः ॥३, २, १ १. ग्रे के प्राक्षेप एकदम खरोनथी । “भारतीकवेर्जयति" जेवा प्रयोग पण मल छे।। २. Johannes Hertal-Mundka Upnisad-kritisehe Ausgabe, leipsig 1924. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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