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सत्यमेव जयते नानतम्
'सत्यमेव जयते नानृतम्-ए अथर्ववेदना मुण्डकोपनिषद मांनु (३-१-६) वाक्य घणा खरा जाणे छे, एमांनो पहेलो भाग स्वतन्त्र भारतनु ध्येय वाक्य तरीके पण चुटायो छे । ए श्रति वाक्य नो अर्थ सत्यनोज (सदा) जय जूठानो नहीं। एवो आज सघी लेवा प्राव्यो छे।
पण उपनिषद मां जे संदर्भ माँ ए वाक्य प्राव्यु छे ते जोतां उपरनो अर्थ योग्य नथी एम लागे छे, ए अर्थ करती वखते 'सत्यम्' अने 'अनृतम्' ने वाक्य ना कर्ता लेवामां आव्या छे, पण ते योग्य न थी। ए वाक्य मां 'सत्यम्' (अने अनृतम्) ए कर्म रोई ऋषि ने कर्ता तरीके स्वीकारवानो छ । एम करतां ए वाक्य नो अर्थ प्रावो थशे 'ऋषि सत्यज मेलवे छे, अनृत मेलवतो नथी' । उपनिषदो मां ऋषि मुनियो नु ध्येय ब्रह्म प्राप्ति करवा नु छ, अने ए ब्रह्म एटलेज अन्तिम सत्य (सत्यस्य सत्यम्) । अहिया सत्य ए साध्य छे, ए सत्य करतां जे जुदु होय ते बधु अनृत गणाय, ए साध्य थई शकतु नथी । ब्रह्म ना सत्य अने असत्य रूपो विशे में -उपनिषद मां अनुवाक्य छे-द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तच अमूर्त च। अथ यन्मूर्त तद असत्यम्, यमूर्त तत् सत्यम् । तद् ब्रह्म तज्ज्योति: मैत्रि ६,३ । जर्मन तत्वज्ञ Deusseu पण 'सत्यमेव जयते' नो पानोज अर्थ करे छे -Wahiheit Crisicgter (ie.ativadm of. Chandh. 16) nieht unwebrheit" अपर श्रति वाक्य नो नवो आपेलो अर्थ स्पष्ट थाय तेटला माटे मुण्डकोपनिषद मांना बे श्लोक जोव ठीक थशे
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यष आत्मा सम्यक् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तः गरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यंति यतयः क्षीगा दोषाः ।। सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः । योनाक्रम वृन्त्य॒षयो ह्याप्तकामा यत्र न तत्सत्यस्य परमं निधानम् ।। (३,१५--६)
आमांनां पहेला श्लोक मां सत्यना गणतरी तप, सम्यकज्ञान, वगैरे साधनो मां करी छे, अने तेवडे प्रात्म प्राप्ति थाय छे एम का छे। अने बीजा श्लोक मां एम कह्य' छे के जे देवयान थी ऋषिो जाय छे ते सत्य थी वितत छे अने पाखरे ते सोज्यां पहोंचे छे ते सत्यनुपरम निधान छ । तेकी श्लोक ना प्रारंभ मां प्रावतां 'सत्यमेव जयते' ए श्रुति वचन मां सत्य एटले व्यावहारिक सत्य अने ए वचन नो लौकिक दृष्टिाए करेलो अर्थ 'सत्यनोज सदा जय थाय छे' एवो अर्थ करवो योग्व लागत नथी, ऋषि पाखरे ज्यां पहोंचे छे त्यां
१. ऋषि जे मार्ग वडे जाय छे तेनु वर्णन मुण्डक मां जेम सत्येन पन्था विततो देवायानः' एवु कयु छे तेम
वृहदारण्यक मां (४.४.६) मार्ग विशे एष पन्था ब्रह्मगह अनुक्तिः तेन एति ब्रह्मवित....एम का छे । पा वन्ने वाक्यो छेक समानार्थक न थी तो ए तेपर थी मुण्डकमांना उपला श्लोक मां सत्य ए ब्रह्म ना अर्थ मां छे ए जणाई आवशे।
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श्री म० स० महेन्दले मात्र सत्य होवाथी उपरना वाक्य नो अर्थ ऋषि सत्यतेज मेलवे छे' एम लेवो जोइये। ऋषि अनत के वीजा लोको मेलवतो नथी, कारण ऐनुए साध्य नथी।
प्रा नवा अर्थनी योग्यायोग्यता तपासवा माटे उपनिषदोमां 'सत्यं' अने'जी'ए शब्दो तो बापर के वी रीते करवामां आव्यो छे ए जोवू ईष्ट गणाय । एमांथी ब्रह्म एटलेज अन्तिम सत्य ए सिद्धान्त उपनिषदो मां अनेक ठेकाणे मूकवामां आव्यो छे। छांदोग्यमां उद्दालक प्रारुपीए श्वेतकेतु ने जे प्रात्मक्य नी शीखामण पापी तेमां आ बधी चराचर सृष्टिी नो जे प्रात्मा तेनेज सत्य कह्य छे, रसयः एष अणिमा, ऐ तदा त्वमिदं सर्वम् तत् सत्यं, स आत्मा तत् त्वम् आमे श्वेतकेता (६,८-१६) ए शीखामरण अापता पहेला प्रारुपीए श्वेतकेतू ने जे प्रश्न पूछयो तेनो थोडो उकेल करती बखते पण 'सत्य शब्द मूलभूत सत्य ए अर्थ माँ वपरायो छे (एकेन मृत्पिन्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्यात् वाचारम्मणं विकारो नामधेयं मृत्तिका इत्येव सत्यम् । "लोहम् इत्येव सत्यम् । ...."विगेरे ६.१) । एज उपनिषदमां पागल ब्रह्मनु नाम सत्य एवू स्पष्ट रीते का छे (तस्य हवा एतस्य ब्रह्मणो नाम सत्यम् इति । ८,३) जे मुण्डक मां "सत्यमेव जयते' ए वाक्य छे ते मां पण ब्रह्म
प्रानु स्वरूप कहेती बखते 'अक्षर पुरुष एज सत्य' एम कह्य छ (योनाक्षर पुरुष वेद सत्य प्रोवाच तां तत्वतो ब्रह्मविद्याम् । १.२.१३ तेमज, तद् एनद् अक्षर ब्रह्म ... तद् एतत् सत्यं, तद् अमृतं ... (२.२.२.) एजे पाखरो सत्य कां तो ब्रह्म तेना पर आदित्य रूप सोनानु ढांका होई ते दुर कर्या पछी सत्य जोई शकाय छे एन केटलाक ठेकाणे वर्णन छ (हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत् त्वं पूषन् अपावृणु सत्य धर्मपि दृष्टये ।। ईशा० १५ वृह० ५१५) । 'सत्यमेव जयते' ए बाक्यमां सत्यने कर्ता तरीके लेतां पहेलां एक बात ध्यान माँ राखवी जोइए ते एके सत्य ए ब्रह्मनु एक अभिधान होवा थी उपनिषद मां सत्यने कयांय कर्तृत्व प्रापवामां अाव्यु नथी । वृहदारण्यक माँ एक ठेकाणे (५.५.१.) सृष्टी ना उत्पत्ति नु वर्णन करती वखते अावा वाक्यो छेः प्रापः एव इदम् अग्रे पासुः । ता: पापः सत्यं असृजन्त, सत्यं ब्रह्म. ब्रह्म प्रजापति प्रजापति देवान्... । प्रा वाक्यो उपर उपर जोतां पहेला तो एम लागे के अहियां सत्य ने ब्रह्म उत्पन्न करवानु कर्तृत्व प्रापवामां आव्यूछे पण वस्तुस्थिति तेवी नथी । आना पहेला नां खड मां (५.४) सत्य एटलेज जे ब्रह्म ते 'प्रथमज' होवानु का छे (सयोर एतं महद्यक्षं प्रथमजं वेद सत्यं ब्रह्म इति......) या पर थी ए स्पष्ट थशे के उपरनां वाक्यो मां 'सत्यं ब्रह्म ए शब्दो मां सामानाधिकरण्य छ। अने तेनो अर्थ पाणी ए सत्य उत्पन्न कयु"। ए सत्य एटलो ब्रह्म, ब्रह्मा ए प्रजापति, प्रजापति ए देवो ने उत्पन्न कर्या एवो ले वानो छ।
उपनिषदो मां बधेज ठेकाणे सत्य एटले ब्रह्म एवो अर्थ होय छे एनूसूचन करवानो हेतु न थी। केटलेक ठेकारणे सत्य एटले 'साचु' बोल' एवो व्यावहारिक अर्थ पण होय छे दाखला तरीके वेदाभ्यास पूरोथाय पछी गुरु ए शिष्य ने जे उपदेश करवाने होय छे तेमां 'सत्यंवद । .. सत्यान्न प्रमदितव्यम्' (तति १.१११) एवा वाक्यो छे छांदोग्य माँ (१.२,३.) पण का छे 'तस्मात् तया (X वाचा) उभय वदनि सत्यं च अनृतम् द, कोई के चोरी करी छे के नहीं ए बाबत मां चुकादो प्रापवा माटे तप्त परथु नो जे प्रख्यात दाखलो छ तेमां पण आवा प्रसंगे जेना हाथ दझाय ते अनृताभि संधी अने जेनो हाथ न दझाय ते सत्याभि संधी एवो निर्णय को छे (छांदोग्य ६-६). आँखे जोएल ते सत्य काने सांभले ल नहीं: प्रा सत्य अत्मवार व्यावहारिक सत्य होई ते बस प्रतिष्ठित होय छ। एम वृहदारण्यक कहे छ। चक्ष सत्यम ।.."तस्माद पद इदानी द्वौ विवध्यानौ एया ताम्, अहम् प्रदर्शन, अहम् अश्रौषम् इति, यो एवं ब्रयात् अहम् प्रदर्शम् इति, तस्मै एव श्रद्दध्याय (५.१४.४) ब्रह्म मेलबवाना साधनो माँ ज्य रे सत्यनी गणत्री होय छे त्यारे त्यापरण
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सत्यमेव जयते नानृतम्
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सत्य एटले लौकिक सत्य अभिप्रेत होय छे। उपर प्रापेला मुण्डकमांना श्लोक मां सत्य, तप, सम्यज्ज्ञान अने ब्रह्मचर्य ए चार अात्म प्राप्ती ना साधनो कह्या छ । एमां ना सत्य अने तपनो उल्लेख श्वेताश्वतर मां पण छे (सत्येन् एव तपसा योऽनुपश्यति । १.१५) ए सिवाय साधन विषयक बीजु वाक्य : तस्माद् विषया तपसा चिन्तया च उपलभ्यते ब्रह्म । (मैत्रि. ४-४ विगेरे) ब्रह्म प्राप्ति ना ए साधनो नी उत्पत्ति अक्षर ब्रह्म थी ज थई छ (तस्माच्च देवा: वद्यासं प्रसूताः तपश्च श्रहा सत्यं ब्रह्मचर्य विधिश्च । (मुण्डक २.१.७) प्रश्नोपनिषद् मां क्या साधनो ब्रह्म लोक मेलवा माटे सफल थाय छे अने क्या थता नथी ए स्पष्ट रीते बताव्यु छः तेषान् एव ब्रह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्य, येषु सत्य प्रतिष्ठितम् । "न येषु जिह्मम् अनृत् न माया च इति । १.१५.६ तेमज मुण्डक मां (३.२.३) नायमात्मा प्रबचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रु तेन-एम जणाव्यु छ । परण प्रापरणे जे वाक्यनो अर्थ करबो छे ते श्लोक मां ऋषि पाखरे क्यां जई पहुंचे छे ते कह्य होवाथी पत्यनो अर्थ ब्रह्म लेवो पटे, साचु बोलवए नथी ।
उपनिषदो मां 'सत्य' शब्द ना जे प्रयोगो छे ते जोया पछी ग्रापरणे 'जी' शब्द ने लईये । छेक ऋग्वेद थी मांडा ए ध तूना मेलव, प्राप्त करवु 'तेमज' जीत विजय मेलववो एवा बन्ने अर्थों संभवे छे। उपनिषदो मां पण 'एकाद वस्त मेलकवी। एअर्थ जी धातनो प्रयोग जीवा मां पावे छे 'लोके जयति' के संलोकतां जयति-एवा प्रयोगो उपनिषदो मां घरणीवार आवे छे-तंत लोके जयते तांश्च कामान्' एम मुण्डक मांज (३.१.१०) कह्य छे, अने त्यां 'जयते' नो मेलवे छे, प्राप्त करे छे एज अर्थ ए चोक्खु छ । आ वाक्य मां प्रावतां 'कामान् जयते' ने बदले छांदोग्य मां पावता 'पाप्नोति सर्वान् कामान् (७.१०) ए शब्दो पण एज वस्तु बतावे छे । सामविषयक गूढार्थना उकेल करता बखते एकवीस अक्षरो वडे प्रादित्य प्राप्ति थाय छ। अने बावीसमा अक्षरे आदित्यमी जे पर छे ते मल छे ए करती बखते 'जयति' अने 'प्राप्नोति' ना जे प्रयोगो छे ते परथी आ हकीकत वधारे स्पष्ट थाय छः एकविंशत्या अादित्यम्' प्राप्नोति' ।"द्वाबिशेन परम् आदित्यात् जयति तत्नाकम् तद् विशोकम् (छां.२.१०.५.) । ए पर थी 'सत्यमेव जयते' ए वाक्य मां 'सत्य' एटले 'प्रतिम सत्य' अथवा 'ब्रह्म' अने जयते 'मेलवे छे' एवा अर्थो लेवा मां कोई वाँधो न थी ए वस्तु ध्यान मां पावशे।
__'सत्यमेव जयते'-ए श्रति वाक्य पर श्रीशंकराचार्य लखेछः सत्यमेव सत्यवान एव जयते जयति, न अनृतं न अनृनवादी इत्यर्थः। नहि सत्यानृतयोः केवल यो: पुरुषानाश्रितयोः जयः पराजयोवा संभवति । प्रसिद्ध लोके सत्यवादिना अनृतवादी अभिभूयते न विपर्यय-। अत: सिद्ध सत्यस्य बलवत्साधनत्वम् । एपर थी प्राचार्य श्री वेपण मात्र सत्य तरफ कर्तृत्व प्रापवामां अडचण लागी अने तेथी तेमणे सत्यम्-सत्यवादी पुरुष एवो अर्थ लीधो । पण तेम छता एमणो सत्यने वाक्य नो कर्ता मान्यो अने जयते नो अर्थ जयथाय छे एवो लीवो तेथी उपर ना वाक्यनो 'सत्यनोज सदा जय थाय छ। एवो लौकिक अर्थ एमने अभिप्रेत छ। एमना मतव्य प्रमाणे एम कहेवानु” कारण सत्यनी उत्तम साधन तरीके प्रशंसा करवी एछ । पण एनी जरूर गणाती न थी। कारण या उपनिषद जे ऋषिप्रोन अक्षर प्राप्ति तत्व ज्ञान रूप जे पराविद्या तेथी थई शके छे । लोकिक जय के पराजय ए बधु अपर विद्या मां प्रावी शके, ते मुण्डको ने केटला उपनिषत् मां स्थान न थी। ए उपदेश ग्रहण
१. मण्डक उपनिषद मां प्रापेला ब्रह्मविद्या माथानु मुण्डन करी अरण्य मा रहेवारा प्रो माटे हती एव
तेषामेव एता ब्रह्मविद्या वदेन शिरो व्रतं विधिवत् पैस्तु चीर्णम् [३, २,१०] ए वाक्य परथी लागे छ।
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श्री म० स० मेहेन्दले
करी वन मा रहेता प्राप्तकाम ऋषिप्रोने 'सत्यनोज सदा व्यवहार माँ जय थाय छ'-ए बात कहेवानी जरूर नथी) तपः श्रद्ध योह्य प वसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसौ भैक्ष चवं चिरन्त: (१२,११); मा उपदेश देनार अने लेनार गुरु शिष्यनु वर्णन पण अमे भेवु (१, २, १२-१३) एकंदरे मुण्डक उपनिषद् मां प्रापेलु तत्व ज्ञान अने त्या प्रावतु साध्य साधकोनु वर्णन जोतां 'सत्यमेव जयते' नो अर्थ ऋषि सत्य-(ब्रह्म) तेज मेलवे छे' एवो अर्थ उचित थशे।
आ विवेचन सामे थोडाफ प्राक्षेपो मूकवा शक्य छ, पहेलो प्राक्षेप एवो छ के 'जी' धातुनो जो परस्म पदे उपयोग कर्यो होय तो कर्मनी अपेक्षा रखाये ।' पण उपरना वाक्य मां 'जयते' एवो पात्मनेपदे उपयोग होवा थी कर्मनी अपेक्षा न थी अने तेथीज ए वाक्यनो 'सत्यनोज जय थाय छे' एवो अकर्मक अर्थ लेवामां आव्यो छ । प्रा बन्ने प्रयोगोनु उदाहरण तरीके ऐतरेय ब्राह्मणमांनु (१२.६) एक वाक्य पापी शकाय । 'यजमान ........जयति स्वर्गलोकं, व्यस्मिन् लोके जयते' । आ आक्षेपनो परिहार एम करी शकाय। पहेली बात एवी के आत्मने पदमां थतां प्रयोगोहमेश कर्म निरपेक्ष होय छे एवं न थी । मुण्डकमांज आवता 'पश्यते' ना सकर्मक उपयोग जोवा: यदा पश्य: पश्यते रुक्मवर्णकर्तारं ईशं पुरुष ब्रह्मयोनिम् (३, १, ३) अने 'ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः (३,१,८) । बीजो बात एवी के 'जयते' नोज सकर्मक उपयोग मुण्डकमां छेः ततं लोकं जयते ताश्च कामान् । ३, १, १० । परन्तु खरे खर जोतां तो श्रृ ति वाक्य मां 'सत्यमेव जयति' ने बदले सत्यमेव जयते' एवो प्रयोग करवानु कारण मुण्ड कमां वपरायेला छंद मां छे । जर्मन पंडित हेर्टले २ एमना मुन्डकोपनिषत परना पुस्तकमां ए छंदनु जे विवेचन कर्यु छे ते पर थी (पा० २८) एम स्पष्ट थाय छे के आ उपनिषद् मा आवता त्रिष्टुभ मां ज्या पादनो पहेलो अवयव चार अक्षर नो अने बचलो अवयव त्रण अक्षर नो होय छे त्यां वचता अवयव ना त्रणे अक्षरे कदे लघु होता नथी । अने तेथीज 'सत्यम व जयति' अने तंतलोक जयति' ने बदले 'सत्यमेव जयते' अने तंतलोकं जयते एवा प्रयोग थया छे । तेथी अहियां 'जयति' एवो परस्मैपद मां उपयोग गृहीत-'सत्यं' ने कम लेवामां कोई वांधो न थी। हेर्टलना मानवा प्रमाणे तो पा श्लोकना पहेला पदमां शेवटनु अक्षर नीकली गयुछे । आपाद छंदनी दृष्टि ए एकाक्षर थी न्यून तो छेज, तेथी हेर्टल श्लोकनी पहेली लीटी एम वाँचे छ सत्यम व जयते, नानृतं सः, सत्येन पन्था विततो देवयानः। (पा० ५६ अने ४४) 'एम कयु होयतो 'सः' ए कर्ता अने 'सत्य' ए कर्म ए चो करवी बात छे । हेर्टलेने आ वाक्यनो निश्चित थयो प्रर्थ अभिप्रेत हतो ए समजवा मार्ग नथी । पण उपनिषद् मां एमणे सूजवेली दुरुस्ती मान्य राखवी होय तो ए वाक्यमां 'सत्यं' मानवु केम घटे छे ते उपर जणाव्यु छेज ।
बीजो आक्षेप एवो के श्लोकना पहेला पादमां 'जयते' एवो एक वचन माँ प्रयोग होवाथी ऋषि ए एक वचनी कर्ता मानवानो छे पण बीजा पादमां तो ऋषयः आक्रयन्ति' आवो बहुवचन मां प्रयोग के तेथी पहेला पादमां एक वचनी कर्ता अव्याहृत न मनाय। आक्षेपनुपरण उत्तर प्रापी शकाय एम छ । प्रावी जात ना वचन विरोध बीजे ठेकारणे पण जोवा मल छ । दाखला तरीके मुण्डकमानां नीचेना श्लोक जोवा :
सवेद एतत् परम ब्रह्मधाम यत्र विश्वं निहितं मातिशुभ्रम् । उपासते पुरुषयसे ह्यकामास्ते शुक्रम् एतद अतिवर्तन्ति धीराः ॥३, २, १
१. ग्रे के प्राक्षेप एकदम खरोनथी । “भारतीकवेर्जयति" जेवा प्रयोग पण मल छे।। २. Johannes Hertal-Mundka Upnisad-kritisehe Ausgabe, leipsig 1924.
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________________ 350 ] सत्यमेव जयते नानृ. एतैद उपायर यतते यस्तु विद्वान् तस्य एष प्रात्मा विशत ब्रह्म धाम / संप्राप्य एनम् ऋषयो ज्ञान तृप्ताः कृतात्मानो वीतरागाः प्रशान्ताः / / 3-2-4-5 // एक बीजा आक्षेप एवो के उपनिषदो मां 'ऋषिःब्रह्म जयति' एवो प्रयोग मलतो नथी। आबात साची छे। पण जयतिने बदलेई सत्यम् इविन इसाय ईसथ क्रियापदोना उपयोग नीचे ना वाक्यो मां जोवा जेवा छेः सत्येन लभ्यः .... प्रात्मा (मु०३-१-५) नायामात्मा प्रवचनेन लभ्यः (मु० 3-2-3) तस्माद विद्यया....... उपलभ्यते ब्रह्म (मैत्रि 4-0) ब्रह्मचर्येण प्रात्मानाम् अनुविन्दते (छा-८-५) ब्रह्म प्राप्तः (कठ-६-१८) अत्र ब्रह्म समभु ते (कठ 7-14 वृह० 4-47), 'जयति' विशेषण उपर छां-२-१०-५-६ मानु साहित्यनी प्राप्ति अने साहित्य थी जेपर छे तेनी प्राप्ति तिथेन वाक्य टांकी शकायः एव विशेन आदित्यम् प्राप्नोति .....द्वाविशेन परम् आदित्या ज्जयति / एक ठेकारणे साहित्यनुज अंतिम ध्येय जे ब्रह्म तेंना साथ ऐक्य ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्यया प्रात्मानम् अन्विष्य आदित्यम् अभिजयन्ते / एतद्वै प्राणानाम् अपतनय एतद् अमृतम् अभयम् एतद् परायणम् एतस्यान्न पुनरावर्तना इति / आ वाक्यमा पहेला आत्माना अन्वेषणना साधनो पाप्या छ / अनेते पछी तरतज आदित्यम् अभिजयन्ते नो प्रयोग छ / मुण्डकमां पण पहेलां प्रात्म प्राप्ति ना साधनों बताव्या छे अने तेपछी तरतज 'सत्यमेव जयते' नो प्रयोग छ / प्रश्न मांन प्रादित्यम् अभिजयन्ते अने मुण्डकमान सत्यमेव जयते या वन्ने वाक्यो जे स्थितिमा अाव्या छे तेमानी सरखामणी पापणे ध्यानमां लईए तो सत्यमेव जयते नो जे अर्थ अमे बताववामां आव्योछे ते विशे शक रही शके नथी / उपरना बधा विवेचन माँ एव मनायुनथीं के 'सत्यमेव जयते' ना 'सत्यनोज जय थाय छे' एवो अर्थ कयारेव थई शके नथी / ए वाक्यनो जो प्रकारण निरपेक्ष उपयोग को होय तो तेना तेवो अर्थ लेवामां कोई भूल नथी। ते अर्थ पण शास्त्रशुद्र छे तेथी अर्थनी ज्यां विवक्षा छे त्यां स्वतंत्र रीते ए वाक्यनो उपयोग कर्यो होय त्यां पण उपनिषदमां मलतो मूलनोज अर्थ कायम राखवो जोइए एवो आलेख लखवामां प्राग्रह नथी / आग्रह एटला पर तोज छे के मूल उपनिषदमांज ए अर्थ होवानु जे आज सुधी मनायु छे ते योग्य लागतुन थी।