Book Title: Sastravartasamucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 16
________________ अभी ऊपर कहा जा चुका है कि पहले, दूसरे एवं ग्यारवें स्तबकों के अमुक अंश तथा पूरा नवाँ स्तबक आचारशास्त्रीय प्रश्नों को उठाते हैं, जबकि प्रस्तुत सूची से अनुमान लगाया जा सकता है कि सातवें स्तबक में हरिभद्र ने किसी विरोधी दार्शनिक सम्प्रदाय की मान्यताओं की आलोचनात्मक समीक्षा न कर के अपने अभीष्ट जैन सम्प्रदाय की मान्यताओं का समर्थनपुर:सर प्रतिपादन किया होगा—जैसा कि वस्तुतः हुआ भी है । अपने प्रतिद्वन्द्वी उक्त दार्शनिक सम्प्रदायों के विरुद्ध उठाई गई हरिभद्र की मुख्य आपत्तियों का आधार सत्ताशास्त्रीय प्रश्न हैं और इन आपत्तियों का थोड़े विस्तार से लेखा लेना लाभदायक रहेगा; लेकिन ऐसा करने से पहले संक्षेप में इस प्रश्न से निपट लिया जाए कि अपनी आचारशास्त्रीय चर्चाओ में हरिभद्र किन मूल मन्तव्यों को लेकर हमारे सामने आए हैं। मोक्षवादी दूसरे दार्शनिकों की भाँति हरिभद्र भी मानते हैं कि अपने शुभ कोटि के जीवन-व्यापारों के फलस्वरूप एक प्राणी शुभ 'कर्मों' का संचय करता है तथा अपने अशुभ कोटि के जीवन-व्यापारों के फलस्वरूप अशुभ 'कर्मों' का, जबकि इन शुभ-अशुभ 'कर्मों' का फल भोगने के लिए इस प्राणी को उत्कृष्टनिकृष्ट योनियों में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। ऐसी दशा में हरिभद्र का यह सोचना स्वाभाविक ही है कि पुनर्जन्मचक्र से मुक्ति पाने का साधन अशुभ कोटि के जीवन-व्यापार तो नहीं ही हो सकते; शुभ कोटि के जीवन-व्यापार भी नहीं हो सकते । यही कारण है कि हम उन्हें तर्क देते पाते हैं कि यदि शभ कोटि के जीवन-व्यापारों का नाम 'धर्म' है तो मोक्ष का साधन धर्म नहीं, लेकिन वे यह भी मानने को तैयार हैं कि जिन क्रिया-कलापों के फलस्वरूप एक प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति वस्तुतः होती है उन्हें भी एक प्रकारविशेष का 'धर्म' कहा जा सकता है । मोक्ष का जनक सिद्ध होनेवाले धर्म की एक ही विशेषता पर हरिभद्र ने भार दिया है और वह मारके की है-इसलिए भी कि वह हमें गीता की एतत्संबंधी शिक्षा का स्मरण बरबस करा देती है । हरिभद्र का कहना है कि जो धर्माचरण फल-कामना से रहित होकर किया जाता है वह मोक्ष का जनक सिद्ध होता है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में आचारशास्त्रीय प्रश्नों की जो भी थोडीबहुत चर्चा हरिभद्र ने की है उसे समझने की कुंजी हम उनके प्रस्तुत मन्तव्यों में पा लेते हैं । इतनी बात ध्यान में रखना इसलिए भी आवश्यक है कि हम आचारशास्त्रीय प्रश्नों का उन सत्ताशास्त्रीय प्रश्नों के साथ भेद स्पष्टता के साथ देख सकें जो शास्त्रवार्तासमुच्चय का मुख्य चर्चा विषय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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