Book Title: Saptatika Prakaran Ek Adhyayan
Author(s): Devendra Kumar Jain
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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Page 3
________________ पंचम खण्ड : ६७५ जाता है त्यों-त्यों मान्यता विषयक भेद-परम्पराकी खाई चौड़ी होती जाती है और हम भेद प्रदर्शित करने वाले मान्य ग्रन्थोंको भी छोड़ते जाते है । क्योंकि आजकी पीढ़ीको इतना अवकाश कहाँ है जो यह निर्णय कर सके कि समीचीन क्या-कौन है ? अतः ऐसी रचनाओंको दिनोंदिन भूलते जाते हैं या भुलाते जा रहे हैं। क्यों न भूलें ? इस उलझनमें कौन पड़ना चाहता है ? बौद्धिक विवाद या मतभेदोंका सिरनामा पुराने पण्डितोंके माथे ही था । भले ही पण्डितजी इसके अपवाद रहे हों ? वास्तविकताको कौन जानता हुआ सामने नहीं रखना चाहेगा। कलमके धनी और आगम तथा सिद्धान्तके रहस्यको हृदयंगम करने वाले पण्डितजीने इन सभी तथ्योंका पूर्ण विवरण प्रस्तुत करनेमें किसी प्रकारकी न्यूनता प्रदर्शित नहीं होने दी। इस दृष्टिसे उनको प्रस्तावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। लगभग साठ पृष्ठोंकी प्रस्तावनामें पण्डितजीने जहाँ कर्म-साहित्यकी क्रम परम्पराका निर्देश किया है, वहीं "सप्ततिका" संज्ञक अन्य रचनाओंका भी विचार किया गया है। केवल यही नहीं, सप्ततिकाओंमें संकलित विषयका आपने सूक्ष्मता तथा गम्भीरताके साथ विवेचन किया है। उदाहरणके लिए, सप्ततिकाका नाम ७० गाथाओंके आधार पर होने पर भी विभिन्न स्थानोंसे प्रकाशित गाथाओंकी संख्याकी भिन्नता, अन्तर्भाष्य गाथाओंके सम्मिलित हो जानेसे चणियोंमें गाथाओंकी संख्यासे टीकाओंकी गाथा-संख्याकी भिन्नता परिलक्षित होना, इस सप्ततिकामें उपशमना और क्षपणाकी कुछ मुख्य प्रकृतियोंका ही निर्देश होना, किन्तु दिगम्बर-परम्पराको सप्ततिकामें सम्बन्धित सभी प्रकृतियों की संख्याका निर्देश, प्राकृत पंचसंग्रहको प्राचीनता, दिगम्बर परम्पराके पंचसंग्रहका संकलन सम्भवतः धवलाके पूर्व ही हो गया था ये कुछ उल्लेख ऐसे तथ्य हैं जिनके आधार पर गोम्मटसार (जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड) की प्रामाणिकता तथा विषयके सांगोप का विवरण दिगम्बर-परम्परा में ही उपलब्ध होता है । कर्म-मीमांसाके अन्तर्गत पण्डितजीने बन्ध होनेके लिए जीव और पुद्गलकी योग्यताको ही मूल रूपमें माना है। जीवमें मिथ्यात्वादि रूप योग्यता संश्लेषपुर्वक ही होती है, इसलिये उसे अनादि माना गया है। किन्तु पुद्गलमें स्निग्ध या रूक्ष गुण रूप योग्यता संश्लेषके बिना भी पाई जाती है, इसलिये वह अनादि और सादि दोनों प्रकारकी मानी गई है। संसार और कर्मका अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है। जब तक यह सम्बन्ध है, तब तक जीवके राग-द्वेष रूप परिणाम होते रहते हैं। परिणामोंसे कर्म बंधते हैं। कर्मसे गतियों में जन्म लेना पड़ता है. भव-भ्रमण होता है। संसारी जीवके प्रत्येक समयमें जो परिस्पन्दात्मक क्रिया होती है, वह कर्म कही जाती है । परिस्पन्दात्मक क्रिया सब पदार्थों में नहीं होती। यह क्रिया पुद्गल और संसारी जीवके हो पाई जाती है। जीव की विविध अवस्थाओंके होनेका मुख्य कारण कर्म है। अपने-अपने कर्मके अनुरूप भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं। उक्त कर्म-मीमांसाके प्रसंगमें पण्डितजीने एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया है कि कर्मकी कार्य-मर्यादा क्या है ? किन्तु अधिकतर विद्वानोंका यह विचार है कि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति भी कर्मसे होती है। इस सम्बन्धमें पण्डितजीने "मोक्षमार्गप्रकाश'' तत्त्वार्थराजवार्तिक, पुराणादिका उल्लेख किया है और बताया है कि कर्मके दो भेद है-जीवविपाकी और पद गलविपाकी। जीवको विभिन्न अवस्थाओं तथा परिणामोंके होनेमें जो निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म हैं । जिससे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवासकी प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म है। इन दोनोंमें से एक भी बाह्य सामग्रीकी प्राप्त करानेका कार्य नहीं करता है। अत. किसके परिणामसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होना मानी जाये? इसका समाधान करते हए स्वयं पण्डितजी निष्कर्ष रूप में कहते हैं श्वेताम्बर कर्म-ग्रन्थोंमें भी इन कर्मोका यही अर्थ किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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