Book Title: Saptatika Prakaran Ek Adhyayan Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf View full book textPage 1
________________ पंचम खण्ड: ६७३ मुद्रित हैं जो इस प्रकार हैं- "सिंध आपको छाया कूपमै देष कारकै आपही अपणास्वरूप भूलि करिकै आपही कूपमै पड़के दुष अनुभव भोग मरता है।" इसका हिन्दी अनुवाद है-सिंह अपनी छाया कुएंमें देखकर तथा स्वयं अपना स्वरूप भूलकर कुएंमें गिरता है और दुःखी होकर मरता है । दूसरे चित्रके नीचे लिखा है-“वानर कुंभ मै मूठो बाँधि सो छोडता नाही जाणता है के कोई मोकू पकड लिया।" इसका अनुवाद है-बन्दरने घड़े मुट्ठी बाँधी है, उसे छोड़ता नहीं और मानता है कि मुझे किसीने पकड़ लिया। ग्रन्थमें नयके द्वारा आत्मवस्तुका जो वर्णन किया गया है, वह "प्रवचनसार" की तत्त्वप्रदीपिका टीकाके अनुसार है। पं० बनारसीदासकृत "समयसार नाटक" के अनेक उद्धरण दोहा-कवित्त रूपमें ज्यों-केत्यों उद्धृत लक्षित होते हैं। इनके अतिरिक्त आचार्यकल्प पं० टोडरमल कृत "मोक्षमार्गप्रकाशक" एवं "त्रिलोकसार", "द्रव्यसंग्रह", सर्वार्थसिद्धि तथा समयसार आदि ग्रन्थोंके आधारपर इस ग्रन्थकी रचना परिलक्षित होती है । अतः केवल दृष्टान्तोंका ऊहापोह या आलोचना न कर हम विषयको गम्भीरताका विचारकर समझनेका प्रयत्न करें, तो निःसन्देह "सम्यग्ज्ञान" पर प्रकाश डालनेवाला यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सिद्ध होता है । सम्यग्ज्ञानकी महिमा, उसका स्वरूप और प्राप्तिका वर्णन बहत ही सरल और सुन्दर शब्दोंमें किया गया है । अतः स्वाध्यायियोंको अवश्य पढ़ना चाहिए । सप्ततिकाप्रकरण : एक अध्ययन डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री, नीमच श्रद्धेय पण्डित फूलचन्द्रजीका साहित्यिक क्षेत्र केवल दिगम्बर साहित्य तक ही सीमित नहीं है, वरन् श्वेताम्बरीय साहित्यका भी उनका अध्ययन गहन, मनन पूर्ण तथा तुलनात्मक है। सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० सुखलाल संघवीकी प्रेरणासे उन्होंने छठे कर्मग्रन्थका सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सफलताके साथ सम्पन्न किया । प्रकाशक बा० दयालचन्द जौहरीने पण्डितजीके सम्बन्धमें अपना अभिप्राय निम्नलिखित शब्दोंमें व्यक्त किया है "पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री अपने विषयके गम्भीर अभ्यासी हैं। उन्होंने दिगम्बरीय कर्मशास्त्रोंका तो आकलन किया ही है, परन्तु इसके साथ ही श्वेताम्बरीय कर्मशास्त्रके भी पूर्ण अभ्यासी हैं । अपने इस अनुवादमें उन्होंने अपने चिरकालीन अभ्यासका पूर्ण उपयोग किया है और प्रत्येक दृष्टिसे ग्रन्थको सर्वाङ्ग सम्पूर्ण बनानेका पूर्ण प्रयत्न किया है।" ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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