Book Title: Saptatika Prakaran Ek Adhyayan
Author(s): Devendra Kumar Jain
Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf

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________________ ६७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ इस टीकाकी सबसे बड़ी विशेषता है- विशेषार्थ । यद्यपि विशेषार्थ अर्थ लिखते समय पण्डितजीने श्वेताम्बर आगम- साहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरिकी टीकाको सम्मुख रखकर लिखा है, फिर भी, इसकी अपनी विशेषता है । कहीं-कहीं पर पं० जयसोम रचित गुजराती टब्बाका भी उपयोग किया गया है । इतनेपर भी हाँ कहीं विषय स्पष्ट नहीं हुआ है, वहाँ कोष्ठकों का प्रयोग किया गया है । क्योंकि कर्मशास्त्रका विषय ऐसा जटिल है कि सरलतासे सबको समझमें नहीं आता । अतः सर्वत्र सरल शब्दोंमें स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयत्न किया गया है । इस टीका की दूसरी विशेषता है- टिप्पणियों का प्रयोग | टिप्पणियाँ दो प्रकारकी हैं- प्रथम वे टिप्पणियाँ हैं जिनमें सन्दर्भित विषयका गाथाओंके साथ साम्य सूचित होता । दूसरे प्रकारकी टिप्पणियाँ वे हैं। जिनमें श्वेताम्बर - दिगम्बर विषयक मत भेदकी चर्चा की गई है। ये सभी टिप्पणियाँ अत्यन्त उपयोगी हैं । शोध तथा अनुसन्धान करने वाले इस विषयके शोधार्थियोंके लिए इस प्रकारकी सामग्री विशेष रूपसे महत्त्वपूर्ण हैं। सभी टिप्पणियाँ हिन्दीमें हैं और सम्बद्ध विषयकी पुष्टिमें आगमके प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं । ऐसे आलोचनात्मक तथा गम्भीर विषयका सांगोपांग विवेचन थोड़े से शब्दोंमें प्रस्तुत करना साधारण लेखकका कार्य नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, मतभेदसे सम्बन्धित विषयों पर सन्तुलित भाषामें निष्पक्ष रूप यत्र तत्र संकेत या निर्देश करना प्रकाण्ड विद्वान्‌का ही कार्य हो सकता है । वास्तवमें बिना भेद-भाव के अनेक दिगम्बर विद्वानोंने श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों तरह के साहित्य की भरपूर सेवा की है। पं० कैलाशचन्द्रजीने सन् १९४० के लगभग पंचम कर्मग्रन्थका हिन्दी अनुवाद किया था और उक्त षष्ठ कर्मग्रन्थका अनुवाद पं० फूलचन्द्रजीने सन् १९४२ में पूर्ण किया । उन दिनों प्रकाशन की व्यवस्था न होनेसे सन् १९४८ से पूर्व प्रकाशित नहीं हो सका । इसका प्रकाशन श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, रोशन मुहल्ला, आगरा किया गया । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि विश्व साहित्य में 'कर्मके' सम्बन्धमें जैसा स्वतन्त्र एवं सांगोपांग विशद विवेचन जिनागममें उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र नहीं है । जैनदर्शन कर्मको स्वतन्त्र रूपसे स्वीकार करता है । यद्यपि भारतीय दर्शन कर्मके अस्तित्वको स्वीकार करते हैं, किन्तु उससे सम्बन्धित विस्तृत तथा स्वतन्त्र वर्णन उनमें नहीं पाया जाता । यह सुनिश्चित है कि तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनिसे प्रसूत उपदेशोंका संकलन करते समय कर्म विषयक साहित्यकी भी स्वतन्त्र संकलना की गई थी। उनके सम्पूर्ण उपदेश द्वादशांग में निबद्ध हुए थे । अन्तिम बारहवां अंग बहुत विशाल था । उसके पाँच भेद थे— परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमेंसे पूर्वगतके चौदह भेद थे । इन भेदोंमेंसे आठवें का नाम कर्मप्रवाद था । कर्म विषयक सम्पूर्ण साहित्य इसीके अन्तर्गत संकलित किया गया था । किन्तु कालके सुदीर्घ अन्तरालमें धारणा-शक्ति के ह्रास होनेके साथ ही शनैः-शनैः कर्म-प्रवादका पूर्ण लोप हो गया । वाचनाकी क्रमिक परम्परा के आधार पर केवल अग्ग्रायणीयपूर्व और ज्ञानप्रवादपूर्वका ही कुछ अंश अवशिष्ट रहा । वर्तमानमें उपलब्ध मूल कर्म - साहित्यको संकलनाका आधार अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद कहा जा सकता है । किन्तु ऐसा निर्णय करते समय बहुत छान-बीनकी आवश्यकता है । पं० फूलचन्द्रजीके शब्दोंमें अग्रायणीय पूर्वकी पाँचवी वस्तुके चौथे प्राभृतके आधारसे षट्खण्डागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थोंका संकलन हुआ था । और ज्ञानप्रवाद पूर्वकी दसवीं वस्तुके तीसरे प्राभृतके आधार से कषायप्राभृत का संकलन हुआ था । इनमेंसे कर्मप्रकृति, यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामें माना जाता । कषायप्राभृत और षट्खण्डागम ये दो दिगम्बर परम्परामें माने जाते हैं तथा कुछ पाठ-भेदके साथ शतक और सप्ततिका ये दो ग्रन्थ दोनों परम्पराओंमें माने जाते हैं । वास्तव में समय ज्यों-ज्यों बीतता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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