Book Title: Saptadalam Lekhakmalam Ek Sanskrut Patra
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ 72 अर्वाचीन जैन विद्वानोए पण पत्रव्यवहारनी अर्वाचीन पद्धति तथा भाषारीति वगेरेनो उपयोग-प्रयोग करीने मबलख पत्र-साहित्य नीपजाव्यु छे. क्यारेक गद्यप्रधान, क्वचित् मात्र पद्यमय, कदीक मिश्र पत्रो; तेमां पण छन्दोवैविध्य, अलंकार-प्राचुर्य, रीतिवैलक्षण्य, आम विभिन्न मुद्रा उपसावतां पत्रो; क्यारेक मात्र आवश्यक वातचीत के संदेशानुं आदान-प्रदान करनारा पत्रो तो महदंशे साहित्यिक बोधथी प्रेराइने ज लखाता पत्रो; छेक १६मा शतकथी चालती आवेली, के पछी तेथीय पहेले थी चालु थयेली पत्रसाहित्य-प्रणालीने अस्खलितपणे जीवंत राखता आ बधा पत्रो ए खरेखर तो संस्कृत साहित्यनी आधुनिको द्वारा उपार्जित समृद्धि ज गणावी घटे. अहीं प्रस्तुत थतो पत्र ते आ परंपराने ज अनुसरतो एक रसप्रद पत्र छे. तेना पत्रलेखक छे आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरि महाराज. वीसमी शताब्दीना प्रभावक अने प्रतापी जैनाचार्य श्रीविजयनेमिसूरिमहाराजना विद्वान शिष्यो पैकी एक ते विजयलावण्यसूरिजी. व्याकरण, तर्क, छन्द, अलंकार अने काव्य - आ तमाम साहित्यना विशिष्ट कोटिना विद्वान अने बहुश्रुत एवा आ आचार्यश्रीनी ग्रंथरचनाओ, टीकाग्रंथो तथा काव्यरचनाओ अनुपम छे. तेमणे ६० वर्ष पूर्वे संवत् १९९३मां, बोरसद(बहु रसद) थी, पोताना गुरुजी आचार्य श्रीविजयनेमिसूरिजी उपर लखेलो, पद्य-गद्यमय, श्लेषप्रधान विविध अलंकारोथी सभर आ पत्र छे. मूळ पत्र फुल्स्के प कही शकाय तेवां ७ पानामां, पेन्सिल वडे, लेखके स्वहस्ते आले खेल होई तेने, तदनुरूप "श्रीगुरुचरणानां चरणार्चायां सप्तदलं लेखकमलं" एवं नाम लेखके ज आप्युं छे. मूळ पत्रमा तो आ शीर्षकनी साथे ज पेन्सिल द्वारा, लेखके सात पांखडीओ दर्शावतुं कमल पण दोरी बताव्युं छे. आ पत्रमा प्रारंभे पांच पद्योमा इष्ट- स्मरणपूर्वक गुरुवर्यनुं वर्णन अने तेमना प्रत्ये पोतानी विज्ञप्ति माटेनी भूमिका रचवामां आवी छे. त्यारबाद श्लेषगर्भित अने तेथी द्विअर्थी एवां घणां विशेषणो द्वारा गुरुवर्यने संबोधवामां आव्या छे. खूबी ए छे के श्लेषना माध्यमथी पोताना गुरु भगवंत पासे वर्तता साधुओनां नामो आमां वणी लेवामां आव्यां छे. वळी, श्लेषप्रचुर पदोनो बोध सुगमताथी थाय ते माटे लेखके पोतेज नीचे विस्तृत टिप्पणीओ पण लखी छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3