Book Title: Saptadalam Lekhakmalam Ek Sanskrut Patra
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सप्तदलं लेखकमलम् एक संस्कृत पत्र - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि प्रत्येक भाषाने तेनुं साहित्य होय छे : विधविध प्रकारचें अने विविध शैलीनुं. आq वैविध्य धरावतुं साहित्य पोतानी भाषाने अलंकृत ज नहि, समृद्ध पण करे छे. संस्कृत भाषाने निसबत छे त्यां सुधी तेमां साहित्यना असंख्य प्रकारो खेडाया छे. आ प्रकारोना इतिहास पण हवे तो प्राप्त छे. आ असंख्य प्रकारोमां एक प्रकार छ : पत्र-साहित्य. बहु प्राचीन काळथी आपणे त्यां संस्कृतमा पत्र-लेखन चालु छे. संस्कृत जे समये राजभाषा हशे, त्यारे तो बधो ज व्यवहार ते भाषामां थतो हशे, अने ते वखते पत्रो के वी रीते लखातां हशै, ते जाणवा माटें 'लेखपद्धतिः' (गायकवाड्झ ओरिएन्टल सिरीज, वडोदरा) नामे ग्रन्थ जोवा जेवो छे. व्यवहारु पत्रोनुं स्वरूप उक्त ग्रन्थमां जोवा मळे छे. पण साहित्यिक दृष्टिए महत्त्व धरावतां पत्रोनुं संकलन तथा तेनो इतिहास हजी सुधी थयेल नथी. कोईके आ दिशामां अध्ययन कर जोईए, तो ख्याल आवे के आ प्रकार- पत्रलेखन केटला समयथी प्रवर्ते छे, अने तेमां सैके सैके के काळांतरे केवां केवां परिवर्तनो आवतां गयां छे. पत्रसाहित्यनी वात करीए एटले सहेजे मेघदूत अने तेना अनुकरणरूपे तथा पादपूर्तिरूपे रचायेला दूतकाव्यो, स्मरण अवश्य थवानुं. आ खण्डकाव्योए पत्र-साहित्यने एक नवो ज वैभवी ओप आप्यो छे, एम कही शकाय. आ साहित्यने समृद्ध बनाववामां जैन विद्वानोए पण घणो फाळो आप्यो छे, जेनी नोंध लीधा विना चाले नहि. संस्कृत दूतकाव्यो (विज्ञसि त्रिवेणी, इन्दुदूत, मयूरदूत, शीलदूत, सेवालेख, समस्यालेख इत्यादि) उपरांत, विज्ञप्ति पत्रो अने क्षमापनापत्रोनो विपुल जथ्थो, जे आपणा ग्रंथागारोमां तथा ज्ञानभंडारोमां उपलब्ध छे ते, आनो जळहळतो पुरावो छे. अलबत्त, घणीवार आ पत्रो मिश्रभाषा धरावतां होय छे, छतां तेमां संस्कृतनी प्रधानता / प्रचुरता तो होवानी ज. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 अर्वाचीन जैन विद्वानोए पण पत्रव्यवहारनी अर्वाचीन पद्धति तथा भाषारीति वगेरेनो उपयोग-प्रयोग करीने मबलख पत्र-साहित्य नीपजाव्यु छे. क्यारेक गद्यप्रधान, क्वचित् मात्र पद्यमय, कदीक मिश्र पत्रो; तेमां पण छन्दोवैविध्य, अलंकार-प्राचुर्य, रीतिवैलक्षण्य, आम विभिन्न मुद्रा उपसावतां पत्रो; क्यारेक मात्र आवश्यक वातचीत के संदेशानुं आदान-प्रदान करनारा पत्रो तो महदंशे साहित्यिक बोधथी प्रेराइने ज लखाता पत्रो; छेक १६मा शतकथी चालती आवेली, के पछी तेथीय पहेले थी चालु थयेली पत्रसाहित्य-प्रणालीने अस्खलितपणे जीवंत राखता आ बधा पत्रो ए खरेखर तो संस्कृत साहित्यनी आधुनिको द्वारा उपार्जित समृद्धि ज गणावी घटे. अहीं प्रस्तुत थतो पत्र ते आ परंपराने ज अनुसरतो एक रसप्रद पत्र छे. तेना पत्रलेखक छे आचार्य श्रीविजयलावण्यसूरि महाराज. वीसमी शताब्दीना प्रभावक अने प्रतापी जैनाचार्य श्रीविजयनेमिसूरिमहाराजना विद्वान शिष्यो पैकी एक ते विजयलावण्यसूरिजी. व्याकरण, तर्क, छन्द, अलंकार अने काव्य - आ तमाम साहित्यना विशिष्ट कोटिना विद्वान अने बहुश्रुत एवा आ आचार्यश्रीनी ग्रंथरचनाओ, टीकाग्रंथो तथा काव्यरचनाओ अनुपम छे. तेमणे ६० वर्ष पूर्वे संवत् १९९३मां, बोरसद(बहु रसद) थी, पोताना गुरुजी आचार्य श्रीविजयनेमिसूरिजी उपर लखेलो, पद्य-गद्यमय, श्लेषप्रधान विविध अलंकारोथी सभर आ पत्र छे. मूळ पत्र फुल्स्के प कही शकाय तेवां ७ पानामां, पेन्सिल वडे, लेखके स्वहस्ते आले खेल होई तेने, तदनुरूप "श्रीगुरुचरणानां चरणार्चायां सप्तदलं लेखकमलं" एवं नाम लेखके ज आप्युं छे. मूळ पत्रमा तो आ शीर्षकनी साथे ज पेन्सिल द्वारा, लेखके सात पांखडीओ दर्शावतुं कमल पण दोरी बताव्युं छे. आ पत्रमा प्रारंभे पांच पद्योमा इष्ट- स्मरणपूर्वक गुरुवर्यनुं वर्णन अने तेमना प्रत्ये पोतानी विज्ञप्ति माटेनी भूमिका रचवामां आवी छे. त्यारबाद श्लेषगर्भित अने तेथी द्विअर्थी एवां घणां विशेषणो द्वारा गुरुवर्यने संबोधवामां आव्या छे. खूबी ए छे के श्लेषना माध्यमथी पोताना गुरु भगवंत पासे वर्तता साधुओनां नामो आमां वणी लेवामां आव्यां छे. वळी, श्लेषप्रचुर पदोनो बोध सुगमताथी थाय ते माटे लेखके पोतेज नीचे विस्तृत टिप्पणीओ पण लखी छे. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 आ विशेषणो ए ज पत्रनुं हार्द छे. ते पूर्ण थतां ज आवे छे वृत्तान्तनिवेदनः जेमां पोते पांच साधुओनी कुशलतानुं तथा गुरुजीना सांनिध्यमांथी नीकळ्या बाद सुखपूर्वक बोरसंद पहोंच्यानी वात जणाववापूर्वक, चातुर्मास माटे खंभात, छाणी, भरूच, झगडिया इत्यादि क्षेत्रोना श्रावक-संघोनी विनंति होई पोते क्यां चातुर्मास करवू ते माटे गुरुदेवनी आज्ञानी अपेक्षा व्यक्त करवामां आवी छे. प्रांते वळी बे पद्य छे, अने त्यां पत्र समाप्त थाय छे.