Book Title: Saptabhangimimansa
Author(s): Shivanandvijay
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 14
________________ श्रीरत्नप्रभसूरि वचनसंवाद, न्यायाचार्य श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय आदि विद्वानोने अपने अपने ग्रन्थोमें जो सप्तभंगीके अलग २ भागेको अनुसरके ख्याल प्रति विद्वद् समाजका ध्यान खींचा है वह भी यहँ अवतरणरूप लिया है। अन्तमें निक्षेपमीमांसा भी नव्य न्यायकी सरल प्रणालिका से समजानेकों लेखक महाशयने प्रायः नई रीति हि ग्रहण की है एसा स्थाल किया जाता है यह रीति प्रायः अलुप्तदशामेंसे जागृत होती है एसा मालुम होता है प्रायः करके यह विषय कम देखनेमें आता है। दर्शनशास्त्रके इतर ग्रन्थोंमें तो यह विषय दृष्टिपात होना असंभवसा है । जैनदर्शनशास्त्रके आधुनिक ग्रन्थोमें तो यह बात प्रायः उपलब्ध नहीं होती है यह निर्विवादित बात है और प्राचीन ग्रन्थप्रणेताओने भी इस विषयका बहुत कम स्पर्श किया है या किया है तो केवल अंश मात्र ही। प्रायः करके ग्रन्थकारने एक बातकी विशेषता बतलाई है और वह यह है कि जैन विद्वानो के बनाये हुए पृथग २ अन्थोमें 'सप्तभंगी' विषयक विवेचन है वह यहाँ एकत्र करके संकलित किया है जिससे विद्वानोको भिन्न २ ग्रन्थ देखनेका परिश्रम उठाना न पड़े और एक ही ग्रन्थ देखनेसे सप्तभंगी का विषय संपूर्णतया अवगत हो। मेरा अभिप्राय है कि लेखक महाशयने प्रायः सप्तभंगी विषयक चर्चा पूर्ण की है इसलिये इसके संबंधमें ज्यादा लिखना ' पिसेको पुनः पसना' बराबर है। अनावश्यकीय बात लिखके विद्वानो को

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