Book Title: Saptabhangimimansa
Author(s): Shivanandvijay
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha

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Page 11
________________ प्रायः करके प्रत्येक भाषाके जैनदार्शनिक विषयक ग्रन्थोंमें इस विषयका उल्लेख मीलता है । यह बात खूद इस ग्रन्थ के लेखक महाशयने भी जगह २ और प्रसंग २ पर मौलिक विषयकी प्रमाणिकता बढ़ाने के कारण प्रदर्शित की है। इतना जरूर है कि समय २ पर कुछ अलग २ प्रकार लेखकों में आविष्कार होता है और वही बात नये तरीकेसे समजाने के लिये लेखक लोग कोशीश करते है और विद्वानोंको समजानेमें सहुलियत प्राप्त करते हैं यही कारण लेखक महाशयका हो सकता है जिससे साहित्यिक सेवामें सुयश प्राप्त हो । सप्तभंगी का सरल अर्थ है सात भांगे' यह भांगे के अनुसार ही जैनदर्शनमें प्रमाण और नयका कथन किया जाता है। एक ही वस्तु होने पर भी उनके एक २ धर्मके विषयका प्रश्न करके निर्वाधित रूपसे विस्तारसे और संक्षेपसे, विधान और निषेधकी कल्पनासे 'स्यात्' शब्द युक्त सात प्रकारसे वर्णन करना उसका नाम है 'सप्तभंगी। इसी तरह सत्व के संबंधों, असत्त्व के संबंध, ज्ञेयत्वविषयक, वाच्यत्व विषयक, सामान्य विषयक और विशेषवत्त्वक विषयक नाना धर्मोमें से प्रत्येक धर्मसंबंधके प्रश्नका अवलम्बन करके प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे युक्तियुक्त एसे विधि-प्रतिषेधरूप भिन्न २ धर्मविषयक ज्ञानको रचनेवाले विषयको 'सप्तभंगी' कहेते है। वैयाकरणकार शब्दकी सिद्धि करते है लेकिन वह अर्थका

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