Book Title: Santhara Sanleshna Ek Chintan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । ४. चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपस्थित किये राजा परीक्षित के भी प्रायोपवेशन ग्रहण करने का वर्णन जाते हों। श्रीमद् भागवत् में मिलता है।९५ महाभारत, राजतरंगिणी और ५. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो। पंचतन्त्र में भी प्रायोपवेशन का उल्लेख संप्राप्त होता है। रामायण में "प्रायोपवेशन" के स्थान पर "प्रायोपगमन" तथा चरक में ६. भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथभ्रष्ट हो जाए। "प्रायोपयोग" अथवा "प्रायोपेत" शब्द व्यवहृत हुए हैं। श्रीमद् ७. देखने की शक्ति व श्रवणशक्ति और पैर आदि से चलने की भगवद्गीता में मृत्युवरण में योग की प्रधानता स्वीकार की है।९६ शक्ति क्षीण हो जाए। इस प्रकार वैदिक परम्परा में भी प्रायोपवेशन जीवन की एक इसी प्रकार अन्य कारण भी उपस्थित हो जाने पर साधक अंतिम विशिष्ट साधना रही है। 1080 अनशन का अधिकारी होता है। आचारांग९७ में संलेखना के संबंध में बताया है कि जब श्रमण वैदिक परम्परा और संलेखना को यह अनुभव हो कि उसका शरीर ग्लान हो रहा है, वह उसे वैदिक परम्परा में संलेखना के ही अर्थ में “प्रायोपवेशन", | धारण करने में असमर्थ है, तब वह क्रमशः आहार का संकोच "प्रायोपवेश", "प्रायोपगमन", "प्रायोपवशानका" शब्द व्यवहृत करे, आहार संकोच करके शरीर को कृश करे। हुए हैं जिनका अर्थ है वह अनशन व्रत जो प्राण त्यागने के लिए संलेखना की विधि किया जाये, अन्न जल त्याग करके बैठना।८७ बी. एस. आप्टे के संलेखना का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का माना गया है। शब्दकोश में “प्रायोपवेशन" में अन्न जल त्याग की स्थिति। मध्यमकाल एक वर्ष का है और जघन्य काल छः महीने का।९८ और मृत्यु की प्रतीक्षा पर बल दिया है।८८ पर मानसिक स्थिति के "प्रवचनसारोद्धार" में उत्कृष्ट संलेखना का स्वरूप प्रतिपादित करते संबंध में कुछ भी चिन्तन नहीं है। जबकि संलेखना में केवल हुए बताया है कि प्रथम चार वर्षों में चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम आदि तप अन्न-जल त्यागना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु अन्न जल के की उत्कृष्ट साधना करता रहे और पारणे में शुद्ध तथा योग्य त्याग के साथ विवेक, संयम और शुभसंकल्प आदि अत्यन्त आहार ग्रहण करे। अगले चार वर्ष में उक्त विधि से विविध प्रकार आवश्यक है। "प्रायोपगमन" या "पादोपगमन" एक सदृश से विचित्र तप करता रहे और पारणे में रसनियूंढ़ विगय का शब्द होने पर भी दोनों में गहन अंतर है। प्रथम का सीधा परित्याग कर दे। इस तरह आठ वर्ष तक तपः साधना करता रहे। संबंध शरीर से है तो दूसरे का संबंध मानसिक विशुद्धि से है। नौवें और दसवें वर्ष में उपवास करे तथा पारणे में आयंबिल तप मानसिक विशुद्धि होने पर शारीरिक स्थिरता, स्वाभाविक रूप से की साधना करे। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छः मास में सिर्फ चतुर्थ आ सकती है। भक्त, छट्ठ भक्त तप के साथ तप करे और पारणे में आयंबिल 9 00 वैदिक पुराणों में प्रायोपवेशन की विधि का उल्लेख है। मानव तप की साधना करें तथा आयंबिल में भी ऊनोदरी तप करें। अगले से जब किसी प्रकार का कोई महान पाप कार्य हो जाए या छ: माह में उपवास, छट्ठ भक्त, अष्टम भक्त, प्रभृति तप करे किन्तु दुश्चिकित्स्य महारोग के उत्पीड़ित होने से देह के विनाश का समय पारणे में आयंबिल तप करना आवश्यक है। इन छ: माह में उपस्थित हो जाये, तब ब्रह्मत्व की उपलब्धि के लिए या स्वर्ग आदि आयंबिल तप में ऊनोदरी तप करने का विधान नहीं है।९९ के लिए प्रदीप्त अग्नि में प्रवेश करें अथवा अनशन से देह का मा संलेखना के बारहवें वर्ष के संबंध में विभिन्न आचार्यों के परित्याग करें। प्रस्तुत अधिकार सभी वर्णवालों के लिए है। इस विभिन्न मत रहे हैं। आचार्य जिनदासगणी महत्तर का अभिमत है कि विधान में पुरुष और नारी का भी भेद नहीं है।८९ बारहवें वर्ष में निरन्तर उष्ण जल के आगार के साथ हायमान प्रायोपवेशन का अर्थ अनशनपूर्वक "मृत्यु का वरण करना" आयंबिल तप करे। जिस आयंबिल में अंतिम क्षण द्वितीय आयंबिल किया गया है।९० प्रायोपवेशन शब्द में दो पद हैं-"प्राय" और । के आदि क्षण से मिल जाता है वह कोडीसहियं आयंबिल कहलाता Sasha "उपवेशन"। "प्राय" का अर्थ "मरण के लिए११ अनशन" और। है।900 हायमान से तात्पर्य है निरन्तर भोजन और पानी की मात्रा "उपवेशन" का अर्थ है "स्थित होना"।९२ न्यून करते जाना। वर्ष के अन्त में उस स्थिति पर पहुँच जाए कि प्रायोपवेशन किसी तीर्थ स्थान में करने का उल्लेख प्राप्त होता एक दाना अन्न और एक बूंद पानी ग्रहण किया जाए। प्रवचनहै। महाकवि कालिदास ने तो रघुवंश में स्पष्ट कहा है-“योगेनान्ते सारोद्धार की वृत्ति में भी प्रस्तुत क्रम का ही प्रतिपादन किया तनुत्यजां।९३ वाल्मीकि रामायण में सीता की अन्वेषणा के प्रसंग में गया है। प्रायोपवेशन का वर्णन प्राप्त होता है। जब सुग्रीव द्वारा भेजे गये बारहवें वर्ष में भोजन करते हुए प्रतिदिन एक-एक कवल कम वानर सीता की अन्वेषणा करने में सफल न हो सके तब अंगद ने करना चाहिए। एक-एक कवल कम करते-करते जब एक कवल उनसे कहा कि हमें प्रायोपवेशन करना चाहिए।९४ आहार आ जाए तब एक-एक दाना कम करते हुए अंतिम चरण में 3000 यमालय एयण 0000000000000289si.aireliaryaR 389067060030036360PROPOR -

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21