Book Title: Sanskruti Sahitya ke Vikas me Jainacharyo ka Yogadan Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 2
________________ चतुर्थ खण्ड | २७० पश्चात प्राचार्य माणिक्यनन्दी हए जिन्होंने अपनी परीक्षामुख कृति में जैन न्याय को सत्र रूप में प्रस्तुत किया। परीक्षामुख ९ परिच्छेदों में विभक्त है और इसकी सूत्र संख्या २०७ है । प्राचार्य प्रभाचन्द्र [सन् ८२५] ने इस पर प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसी विशालकाय टीका लिख कर जैन न्याय के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इनकी अकलंक के लघीसस्त्रय पर . न्यायकुमुदचन्द्रोदय टीका भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। नवीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य विद्यानन्दि जैन न्याय के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते हैं । इनकी कितनी ही छोटी-बड़ी रचनाएँ दर्शनसाहित्य की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं, जिनमें विभिन्न मान्यताओं की प्रामाणिक आलोचना की गयी है तथा अकलंक के विचारों का युक्तिपूर्वक समर्थन किया गया है। इनकी कृतियों में प्राप्तपरीक्षा, प्रष्टसहस्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा एवं तत्वार्थश्लोकवातिक के नाम उल्लेखनीय हैं । दसवीं शताब्दी में देवसेन हुए जिनकी लघुनय चक्र, बृहद्नयचक्र एवं पालापपद्धति न्यायशास्त्र की गम्भीर रचनायें हैं। इसी समय अनन्तवीर्य हुये जिन्होंने परीक्षामुख पर प्रमेयरत्नमाला टीका लिख कर उसकी लोकप्रियता में चार चांद लगा दिये । इन्होंने अकलंक की सिद्धिविनिश्चय पर भी अच्छी टीका लिखी थी। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में होने वाले प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि का योगदान जैन न्याय के क्षेत्र में ही नहीं किन्तु संस्कृत वाङमय के सभी क्षेत्रों में अद्भुत एवं प्राश्चर्यकारी है। उनकी प्रमाणमीमांसा जैन न्याय की अनूठी रचना मानी जाती है। उक्त आचार्यों के अतिरिक्त देवसूरि का प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, जिस पर विशालकाय स्याद्वादरत्नाकर ग्रन्थ और रत्नाकरावतारिका नामक टीका लिखी गईं, चन्द्रप्रभसूरि की दर्शनशूद्धि एवं प्रमेयत्नकोश [११०० ए. डी] माघनन्दि का पदार्थसार, राजशेखर सूरि की स्याद्वादकलिता जैसी रचनाओं का नाम भी उल्लेखनीय है । १८वीं शताब्दी में होने वाले अभिनव धर्मभूषण की न्यायदीपिका को जैन न्याय के मौलिक तत्त्वों को सरल एवं सुबोध रीति से प्रतिपादन करने वाली कृति के रूप में मान्यता प्राप्त है । न्यायदीपिका में प्रमाण एवं नय का बहत ही स्पष्ट एवं व्यवस्थित विवेचन किया गया है। २०वीं शताब्दी में होने वाले दार्शनिक विद्वान पंडित चैनसूखदास न्यायतीर्थ का जैनदर्शनसार एक महत्त्वपूर्ण कृति मानी जाती है जिसमें जैनदर्शन के सभी विषयों पर संक्षिप्त किन्तु सरल रीति से प्रकाश डाला गया है। काव्य: जैनाचार्यों ने संस्कृतकाव्यों के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने महाकाव्य लिखे, चम्पूकाव्य लिखे, चरित्रकाव्य एवं द्रतकाव्य निबद्ध किये। लेकिन इन काव्यों की मूल आधारशिला द्वादशांग वाणी है। संस्कृत भाषा का प्रत्येक जैन काव्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्र द्वारा कोई भी मानव चरम सुख प्राप्त कर सकता है, इस सन्देश को प्रसारित करने वाले होते हैं। जैन काव्य वर्णाश्रम धर्म के पोषक न होकर मुनि-पायिका, श्रावक-श्राविका को ही समाज का रूप मानते हैं। इसके अतिरिक्त जैन काव्यों के नायक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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