Book Title: Sanskruti Sahitya ke Vikas me Jainacharyo ka Yogadan Author(s): Kasturchand Kasliwal Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ संस्कृत-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान 0 डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल संस्कृत साहित्य के विकास एवं समुन्नति में जैनाचार्यों एवं विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने इस साहित्य की प्रत्येक विधा पर काव्य-रचना करके उसके प्रचार-प्रसार की दिशा में कार्य किया । जैनाचार्यों ने साहित्यसर्जन करते समय लोक-रुचि का विशेष ध्यान रखा, इसलिये उन्होंने प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत में भी काव्य, चरित, कथा, नाटक, पुराण, छन्द एवं अलंकार जैसे सभी विषयों पर साहित्य-जगत को मूल्यवान रचनाएँ भेंट की। वास्तव में संस्कृत का जैन वाङमय विशाल एवं महत्त्वपूर्ण है। लेकिन विशाल साहित्य होने पर भी उसका प्रकाशन एवं समुचित मूल्यांकन नहीं होने के कारण उसे साहित्यजगत् में यथोचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका है। अकेले राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में संस्कृत ग्रन्थों की लाखों पाण्डुलिपियाँ संगहीत हैं। उस विशाल साहित्य का परिचय कराना एक ही लेख में संभव नहीं है, फिर भी अति संक्षिप्त रूप में हम यहाँ उसका परिचय देना चाहेंगे। दर्शन एवं न्याय : दूसरी शताब्दी में होने वाले प्राचार्य समन्तभद्र जैन दर्शन के प्रस्तोता माने जा सकते हैं । अनेकान्तवाद को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने वाले समन्तभद्र प्रथम प्राचार्य हैं । उनकी प्राप्तमीमांसा एवं युक्त्यनुशासन दोनों ही महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । प्राप्तमीमांसा में एकान्तवादियों के मन्तव्यों की गम्भीर आलोचना करते हये प्राप्त की मीमांसा की गयी है और युक्तियों के साथ स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है। इसी तरह युक्त्यनुशासन में जैन शासन की निर्दोषता युक्तिपूर्वक सिद्ध की गयी है। प्राप्तमीमांसा पर भट्टाकलंक की अष्टशती तथा आचार्य विद्यानन्दि का अष्टसहस्री नामक विस्तृत भाष्य उपलब्ध है । ये दोनों ही प्राप्तमीमांसा की लोकप्रियता एवं उसकी महत्ता को सिद्ध करने वाली कृतियाँ हैं। सातवीं शताब्दी में होने वाले भट्टाकलंक जैन न्याय के संस्थापक माने जाते हैं । इनके पश्चात होने वाले सभी जैनाचार्यों ने इनके द्वारा प्रस्थापित मार्ग का अनुसरण किया है। अष्टशती के अतिरिक्त लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय इनकी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक कृतियाँ हैं । दर्शन जैसे गहन विषय को इन्होंने इन कृतियों में प्रस्तुत करके गागर में सागर को भरने जैसा कार्य किया है । आठवीं शताब्दी में महान् दार्शनिक प्राचार्य हरिभद्र सूरि हुए, जिन्होंने अनेकान्तसिद्धान्त की पूनः प्रतिष्ठा की और अपनी अनेकान्तजयपताका, षटदर्शनसमुच्चय एवं अनेकान्तवाद जैसे दार्शनिक ग्रन्थों की रचना करके देश के दार्शनिक जगत में अनेकान्त की दुन्दुभि बजायी। इसके धम्मो दीवो संसार समुद्र में वर्म ही दीप है www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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