Book Title: Sanskrut Vyakaran ko Jain Acharyo ka Yogadan
Author(s): Suryakant Bali
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ पर पं० मीमांसक' ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पूज्यपाद अपने ग्रन्थ में महेन्द्र गुप्त विक्रमादित्य की उस विजय का उल्लेख कर रहे हैं जिसमें, तिब्बती साक्ष्य के आधार पर, महेन्द्र ने दो लाख सेना की सहायता से तीन लाख यवन सैनिकों के साथ मथुरा में युद्ध कर उन्हें देश से बाहर निकाल दिया था । तब महेन्द्र गुप्त युवराज था । यह घटना ५वीं सदी ई० में घटी थी । अतः विशिष्ट भूतकालिक प्रयोग के आधार पर पूज्यपाद का काल ६ठी शताब्दी ई० का प्रथमार्ध होना चाहिए। एक अन्य प्रमाण के अनुसार पूज्यपाद और समन्तभद्र समकालीन है । पूज्यपाद ने समन्तभद्र का मत उद्धृत किया है। समन्तभद्र ने जैनेन्द्र के मंगल श्लोक की व्याख्या में ग्रन्थ लिखा था । समन्तभद्र का समय छठी सदी ई० का प्रथमार्ध निश्चित माना जाता है । अतः पूज्यपाद देवनन्दी का वही समय माना जाना चाहिए । इस समय जैनेन्द्र व्याकरण के दो पाठ मिलते हैं। एक पाठ में ३०३६ सूत्र हैं और दूसरे में सूत्रों की संख्या ७०० अधिक है । शेष पाठ भी कहीं-कहीं परिवर्तित तथा परिवर्धित रूप में मिलता है । ३०३६ सूत्रों वाला पाठ "औदीच्यपाठ" और दूसरा अधिक सूत्रों वाला परिवर्तित परिवर्धित पाठ "दाक्षिणात्यपाठ " कहा जाता है। इस बारे में कुछ मतभेद रहा है कि पूज्यपाद ने इन दोनों पाठों में से किस पाठ की रचना की थी। विद्वानों की प्रायः धारणा है कि "औदीच्यपाठ" ही आचार्य पूज्यपाद का अपना मौलिक पाठ है तथा दूसरा पाठ किसी परवर्ती वैयाकरण ने बढ़ाया है । दाक्षिणात्य पाठ के सम्पादक पं० श्री लालशास्त्री ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि बृहद् दाक्षिणात्य पाठ ही जनेन्द्र की अपनी कृति है पर प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध नहीं हो पाया है। इसका प्रमुख कारण यह माना जाता है कि पूज्यपाद ने अपने ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके व्याकरण में एकशेष के लिए कोई स्थान नहीं है ।" हां औदीच्य पाठ में एकशेष का पूर्ण अभाव है वहां दाक्षिणात्यपाठ की स्थिति वैसी नहीं है | इससे स्पष्ट है कि ३०३६ सूत्रों वाला औदीच्यपाठ ही पूज्यपाद का मौलिक जैनेन्द्र व्याकरण है । यहां प्रश्न उठता है कि दाक्षिणात्यपाठ की रचना किसने और कब की थी। ऐसा माना जाता है कि आचार्य गुणनन्दी ने इस पाठ का परिवर्धन किया। इस परिवर्धित संस्करण की ख्याति जैन परम्परा में शब्दार्णव के नाम से है । परिवर्धित संस्करण पर अपनी चन्द्रिका नामक टीका से टीकाकार सोमदेवसूरि ने इस ग्रन्थ का नाम शब्दार्णव लिखा है और इसे स्पष्ट ही गुणनन्दी द्वारा परिवर्धित बताया है ।" गुणनन्दी के इस शब्दार्णव पर जनेन्द्र परवर्ती शाकटायन व्याकरण का प्रभाव माना जाता है । शाकटायन का समय अमोघ - वर्ष के शासन काल' में रचा होने के कारण नवम शती ई० का पूवार्ध माना जाता है। शाकटायन से परवर्ती होने के कारण गुणनन्दी का काल नवम शती का उत्तरार्ध माना जाता है । इस परिवर्धित दाक्षिणात्य संस्करण पर सोमदेव सूरि की शब्दार्णव चन्द्रिका तथा किसी अज्ञात नामा लेखक की शब्दार्णवप्रक्रिया ये दो टीकायें मिलती हैं। सौभाग्यवश ये दोनों ही टीकायें प्रकाशित हैं । औदीच्यपाठ वाले जैनेन्द्र व्याकरण की व्याकरणिक विशेषतायें निम्नलिखित हैं १. इस व्याकरण में पांच अध्याय है । अतः इस व्याकरण को पंचाध्यायी भी कहा गया है। प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं और २० पादों में कुल ३०३६ सूत्र हैं । २. इस पंचाध्यायी में पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्र प्रकारान्तर और भाषान्तर के साथ समाविष्ट कर दिये गये हैं । अध्यायों के सूत्रों का पांच अध्यायों में ही समाविष्ट हो जाने का प्रमुख कारण यह है कि पाणिनीय शास्त्र के वैदिक संस्कृत सम्बन्धी सूत्रों को निकाल दिया गया है क्योंकि जैन व्याकरण में वे अनुपयोगी माने गये। इसलिए सूत्रों की संख्या भी लगभग एक हजार कम हो गई है। ३. जैनेन्द्र व्याकरण (और पाणिनीय व्याकरण ) के अनेक सूत्रों में कोई अन्तर नहीं है। उदाहरणतयाः, निम्नलिखित तालिका में दिये गये सूत्र दोनों व्याकरणों में पूर्ण समानता के साथ प्राप्त होते हैं १. इतिहास, भाग १, पृ० ४१६. २. चतुष्टयं समंतभद्रस्य, जै० व्या० ५, ४, १४०. ३ मीमांसक, यु० इतिहास, भाग १, पृ० ४३२-३३. ४. स्वाभाविकत्वादमिधानस्यैकशेषानारम्भः जै० प० 1, 1.97 ५. संषा श्री गुणनन्दितनितवपुः शब्दार्णवनिर्णय.. -चंद्रिका टीका | ६. Majumdar (ed) History and Culture of Indian people Vol, V 1964, p. 8. जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only ११ε www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18