Book Title: Sanskrut Vyakaran ko Jain Acharyo ka Yogadan
Author(s): Suryakant Bali
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 10
________________ १३. पाणिनीय सूत्रों, सूत्रों पर लिखे आवश्यक वार्तिक तथा पंतजलि की इष्टियों सभी के सूत्र बना कर इस सारी व्यवस्था को अधिक एकरूपता देने का प्रयास पूज्यपाद ने अपने व्याकरण में किया है । १४. जैसा कि हम ऊपर कह आये हैं- पाणिनि की अष्टाध्यायी की अपेक्षा पूज्यपाद के व्याकरण की विशेषता यह है कि इसमें एकशेष प्रकरण का अभाव है। अपने व्याकरण से एक शेष प्रकरण को पूरी तरह से निकालने के पीछे आचार्य के पास क्या हेतु था - इसके अतिशय अध्ययन की आवश्यकता निश्चित रूप से है । क्या ऐसा माना जा सकता है कि जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के महान् सिद्धान्त को व्याकरणिक अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए एकशेष प्रकरण को ही समास कर दिया गया ? वैसे पूज्यपाद ने अपने ग्रन्थ का प्रारम्भ "सिद्धिरने कान्तात्" । (जैसे व्या० १-१-११ ) इस मंगलवाची सूत्र के साथ किया है । जैनेन्द्र व्याकरण पर चार महत्वपूर्ण टीकायें लिखी गई जो उपलब्ध हैं। आचार्य की स्वोपज्ञवृत्ति के अतिरिक्त उपर्युक्त चार टीकायें इस प्रकार हैं--अभयनन्दि कृत् महावृत्ति, प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्करन्यास, श्रुतिकीर्तिकृत पंचवस्तुप्रक्रिया और महाचन्द्रकृत लघुजैनेन्द्र । इनमें से प्रत्येक वृत्ति का अपना महत्व है। इनमें सबसे अधिक महत्व की वृत्ति अभयनन्दि कृत महावृत्ति है । इसमें दो तत्वों का सुन्दर सम्मिश्रण है। एक ओर इसमें अष्टाध्यायी, वार्तिकपाठ, महाभाष्य, काशिका आदि की व्याकरण सामग्री का पूरा उपयोग उठाते हुए कुछ वार्तिक जोड़ने का प्रयास किया गया है। दूसरी ओर उदाहरणों के लिए इसमें जैन इतिहास, धर्म, दर्शन नीतिशास्त्र परम्परा आदि का स्रोत के रूप में उपयोग किया गया है। अनुसन्त तार्किकाः, उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः प्राभूतपर्यन्तमधीते, आकुमारं यशः समन्तभद्रस्य सदृश उदाहरण पूरे ग्रन्थ को जैन आकार देने में समर्थ है । " शब्दाभोजभास्करन्यास उपर्युक्त महावृत्ति से कलेवर में विशाल है, पर वृत्ति के विषय में प्रभाचन्द्र ने अभयनन्दि का अधिक सहारा लिया है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है श्रुतकीर्ति की टीका जैनेन्द्र का प्रक्रिया रूपान्तर है जबकि महाचन्द्र का लघुजैनेन्द्र बाल बोध के लिए है । (३) जैनेन्द्रपरवर्ती जैन व्याकरण आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा सुव्यवस्थित ढंग से एक व्याकरण दे देने के बाद जैन आचार्यों में व्याकरण लेखन की एक विशिष्ट परम्परा चल पड़ी जिसके अन्तर्गत जैन शाकटायन और हैम ये दो व्याकरण बहुत अधिक प्रसिद्ध हुए । यद्यपि इस परम्परा में अन्य अनेक व्याकरण भी लिखे गये तथापि एक उल्लेखनीय और विचित्र तथ्य यह है कि शास्त्रीय दृष्टि से कोई एक जैन व्याकरण पूरे जैन सम्प्रदाय में मान्यता प्राप्त न कर सका। इस पर आगे चलकर निष्कर्ष स्वरूप हम विस्तार से लिखेंगे। जैनेन्द्र परवर्ती जैन व्याकरण में वामन, पाल्यकीर्ति, बुद्धिसागरसूरि भद्रेश्वर सूरि, वर्धमान, हेमचन्द्रसूरि के नाम महत्वपूर्ण हैं । इस प्रसंग में हम इन्हीं का विवेचन करेंगे । वामन - जैनेन्द्र परवर्ती जैन व्याकरण परम्परा में सबसे प्रथम नाम वामन का लिया जा सकता है । वामन के सम्बन्ध में दो बातें विचारणीय हैं : १. जिस वामन की चर्चा हम यहां कर रहे हैं वह उस वामन से पृथक् हैं जिसका नाम " वामन जयादित्य" इस वैयाकरण-युगल में काशिकाकार के रूप में आता है। २. इस सम्बन्ध में कुछ निश्चित नहीं है कि वामन जैन मतानुयायी वैयाकरण थे अथवा नहीं । चूंकि वामन द्वारा लिखित ग्रन्थ इस समय नहीं है अत: यह निश्चित कर पाना और भी अधिक कठिन हो गया है । पं० अम्बालाल शाह ने वामन को स्पष्ट रूप से जैनेतर विद्वान् माना है जबकि पं० मीमांसकर ने इसे "जैन व्याकरण का कर्ता" माना है । जिस प्रकार से जैन ग्रन्थों में इस आचार्य का उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वामन जैन वैयाकरण थे । जैन विद्वान् वर्धमान ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "गणरत्नमहोदधि" में वामन को "सहृदय चक्रवर्ती” कहा है “सहृदय चक्रवर्तिना वामनेन तु हेम्नः इति सूत्रेण” इत्यादि । अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही वर्धमान ने वामन के व्याकरण ग्रन्थ का उल्लेख किया है- "वामनो विश्रान्तविद्याधरकर्ता" । इससे ज्ञात होता है कि वामन ने "विश्वान्तविद्याधर" नामक ग्रन्थ लिखा था जो आज उपलब्ध नहीं है । इसी ग्रन्थ पर श्वेताम्बर जैन संघ के प्रसिद्ध विद्वान् मल्लवादी ने "न्यास" नामक टीका लिखी थी। यह टीका भी आज उपलब्ध नहीं है । पर इसका संकेत प्रभावकचरितान्तर्गत मल्लवादिचरित' में निम्न प्रकार से मिलता है १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, १६६६, पृ० ४८. २. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ४२५. ३. पृ० १६८. ४. निर्णयसागर संस्करण, पृ० ७८. १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.org:

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