Book Title: Sanjay ka Vikshepvada aur Syadwad
Author(s): Mahendrakumar Jain
Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf

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Page 4
________________ बुद्ध प्राचार्य विजयदल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ इस निरूपण में आप देखेंगे कि वस्तु का पूर्णरूप वचनों के अगोचर है, अवक्तव्य है। चौथा उत्तर वस्तु के पूर्ण रूप को युगपत् न कह सकने की दृष्टि से है। पर वही जगत् शाश्वत कहा जाता हैं द्रव्य दृष्टि से, और अशाश्वत कहा जाता है पर्याय दृष्टि से। इस तरह मूलतः चौथा, पहला और दूसरा ये तीन प्रश्न मौलिक हैं। तीसरा उभयरूपता का प्रश्न तो प्रथम और द्वितीय का संयोगरूप है। अब आप विचारें कि जब संजय ने लोक के शाश्वत और अशाश्वत श्रादि के बारे में स्पष्ट कहा है कि 'यदि मैं जानता होऊं तो बताऊँ' और बुद्ध ने कह दिया कि 'इनके चक्कर में न पड़ो, इनका जानना उपयोगी नहीं है, ये अव्याकृत हैं' तब महावीर ने उन प्रश्नों का वस्तुस्थिति के अनुसार यथार्थ उत्तर दिया और शिष्यों की जिज्ञासा का समाधान कर उनको बौद्धिक दीनता से त्राण दिया। इन प्रश्नों का स्वरूप इस प्रकार हैप्रश्न संजय महावीर १ क्या लोक मैं जानता इनका जानना हाँ, लोक द्रव्य दृष्टि से शाश्वत होऊँ तो अनुपयोगी है शाश्वत है। इसके बताऊँ ? (अव्या किसी भी सत् का (अनिकरणीय, सर्वथा नाश नहीं हो श्चय, अकथनीय) सकता, न किसी अज्ञान) असत् से नये सत् का उत्पाद ही संभव है। २ क्या लोक हां, लोक अपने प्रतिअशाश्वत क्षणभावी परिणमनों की दृष्टि से अशाश्वत है। कोई भी पर्याय दो क्षण ठहरने वाली नहीं ३ क्या लोक शाश्वत और अव्याकृत अशाश्वत है ? ४ क्या लोक दोनों रूप नहीं है, अनुभय मैं जानता होऊँ तो बताऊँ हाँ, लोक दोनों दृष्टियों से क्रमशः विचार करने पर शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं जो लोक के परिपूर्ण स्वरूप को एक साथ समग्रभाव से कह सके, अतः पूर्ण रूप से वस्तु अनुभय है, अवक्तव्य है। १. बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों का पूरा समाधान तथा उनके आगमिक अवतरणों के लिये देखो जैनतर्कवार्तिक की प्रस्तावना पृ० १४-२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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