Book Title: Sanjay ka Vikshepvada aur Syadwad Author(s): Mahendrakumar Jain Publisher: Z_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf View full book textPage 1
________________ संजय का विक्षेपवाद और स्याद्वाद पं. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन तथा इतः पूर्व डॉ. हर्मन जैकोबी आदि ने स्याद्वाद या सप्तभंग की उत्पत्ति को संजयवेलठिपुत्त के मत से बताने का प्रयत्न किया है। राहुलजी ने दर्शन दिग्दर्शन में लिखा है कि'आधुनिक जैनदर्शन का आधार स्याद्वाद है, जो मालूम होता है संजयवेलठ्ठिपुत्त के चार अंगवाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है । संजय ने तत्त्वों (परलोक, देवता) के बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूप से कहने से इनकार करते हुए उस इनकार को चार प्रकार से कहा है १'है ?' नहीं कह सकता । २'नहीं है ?' नहीं कह सकता। ३ 'है भी और नहीं भी?' नहीं कह सकता । ४ 'न है और न नहीं है ?' नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिए जैनों के सात प्रकार के स्याद्वाद से १ 'है ?' हो सकता है (स्यादस्ति)। २ 'नहीं है ?' नहीं भी हो सकता है (स्यान्नास्ति)। ३ 'है भी और नहीं भी ?' है भी और नहीं भी हो सकता (स्यादस्ति च नास्ति च)। उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं (-वक्तव्य) हैं ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं४ स्यात् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, स्याद् अ-वक्तव्य है । ५ 'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, स्यादस्ति अवक्तव्य है। ६ 'स्यानास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्यात् नास्ति' अवक्तव्य है। ७'स्यादस्ति च नास्ति च'क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्यादस्ति च नास्ति च' अ-वक्तव्य है। दोनों के मिलाने से मालूम होगा कि जैनों ने संजय के पहले वाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोमों) को अलग करके अपने स्याद्वाद की छह भंगियाँ बनाई हैं और उसके चौथे वाक्य 'न है और न नहीं है। को जोड़कर स्यात्सदसत् भी श्रवक्तव्य है यह सातवाँ भंग तैयार कर अपनी सप्तभंगी पूरी की।.........इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (स्यात्) की स्थापना न करना जो कि संजय का वाद था, उसीको संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनों ने अपना लिया और उस के चतुर्भङ्गी न्याय को सप्तभंगी में परिणत कर दिया।' दर्शन दिग्दर्शन पृ. ४६६ राहुलजी ने उक्त सन्दर्भ में सप्तभंगी और स्याद्वाद के रहस्य को न समझकर केवल शब्दसाम्य देख कर एक नये मत की सृष्टि की है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि चोर से जज यह पूछे कि-'क्या तुमने यह कार्य किया है ?' चोर कहे कि 'इससे आपको क्या ?' या 'मैं जानता होऊँ तो कहूँ ?' फिर जज अन्य प्रमाणों से यह सिद्ध कर दे कि 'चोर ने यह कार्य किया है', तब शब्दसाम्य देखकर यह कहना कि जज का फैसला चोरके बयान से निकला है। संजववेलठ्ठिपुत्त के दर्शन का विवेचन स्वयं राहुलजी ने (दर्शनदिग्दर्शन पृ० ४९१) इन शब्दों में किया है-'यदि आप पूछे-'क्या परलोक है ?' तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको १. इसके मत का विस्तृत वर्णन दीघनिकाय सामञ फलसुत्त में है। यह विक्षेपवादी था। 'अमराविक्षेपवाद' रूप से भी इस का मत प्रसिद्ध था । २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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